सोमवार, 24 सितंबर 2018

जलोटा कहां और मैं यहां ! ऐसा क्यों ? फिर सोचता हूँ.....

आज हारमोनियम ने पंजाब के एक छोटे से शहर के, एक छोटे से मोहल्ले के, एक छोटे से घर में रहने वाले अपने प्रियजन, पुरषोत्तम दास जलोटा के सुपुत्र अनूप जलोटा को, उनकी पकी उम्र के बावजूद, ऐसा सम्मान, ऐसी शोहरत, ऐसी मित्र मंडली फिर दिलवाई, जिसके लिए युवा लोग तरसते रह जाते हैं। आज अनूप जी के जलवे देख लोग दांतों के नीचे ऊँगली रख चबाए जा रहे हैं। चबाने से ध्यान आया कि उंगली तो मेरी भी दर्द कर रही है; और क्यों ना करे ! पंजाब के उसी शहर फगवाड़े के उसी हांड़ों के मोहल्ले, उसी गली में मेरा भी तो निवास था ! मेरे घर पर भी हारमोनियम था ! भजनों से मेरा भी नाता था ! आज मेरी भी उम्र हो गयी है ! तो; जलोटा कहां और मैं यहां !ऐसा क्यों ? फिर सोचता हूँ.....

#हिन्दी_ब्लागिंग  
पंजाबी में एक कहावत है, ''कख्ख दी बी लोड़ पै जांदी ऐ'' ! यानी तिनके की भी जरुरत पड़ जाती है, उसे भी बेकार नहीं समझना चाहिए। ऐसी कहावतें, मुहावरे या लोकोक्तियाँ यूं हीं नहीं बन जातीं, इनके पीछे जन-साधारण के अनुभवों, अनुभूतियों, तजुर्बों का पूरा हाथ रहता है। इसी मुहावरे को लें तो इसकी सच्चाई का प्रमाण तो रामायण काल में ही मिल गया था, जब सीताजी ने अशोक वाटिका में रावण के आने पर एक तृण की ओट ली थी। महाभारत में भी इसी की सहायता से श्री कृष्ण जी ने द्रौपदी को दुर्वासा के क्रोध से बचाया था। पर हम समझते कहां हैं ! अक्ल तो तब आती है जब उस चीज की जरुरत पड़ती है जिसे बेकार समझ हम फेंक चुके होते हैं ! जैसे मुझे आज एक अदद हारमोनियम की आवश्यकता आन पड़ी है और विडंबना देखिए कि यह सौगात मेरे पास थी, पर आज जब जरुरत है तब नहीं है ! चलिए पहेली ना बुझा कर सारी बात बताता हूँ।

बात अंग्रेजों के शासनकाल के कलकत्ते की है। मेरी दादीजी स्वतंत्रता सेनानी के साथ-साथ आर्यसमाज की बड़ी नेत्री भी थीं। जहां अक्सर हारमोनियम पर भजनों की ओट में देश प्रेम के गीत भी गाये-बजाये जाते थे। देश स्वतंत्र हुआ; परिवार उस हारमोनियम के साथ पंजाब के फगवाड़ा शहर के मध्य में स्थित ''हांडेयों के मौहल्ले'' में आ बसा। उसी मौहल्ले में हिंदुस्तानी शास्त्रीय और भक्ति गायक, पुरषोत्तम दास जी जलोटा भी रहते थे। जो अपनी भजन गायकी के लिए देश भर में प्रसिद्ध थे। सतलुज में और पानी बहने के साथ ही परिवार उस हारमोनियम को साथ ले दिल्ली आ गया; पर वह बेचारा साज बदलते माहौल के साथ ताल ना मिला पाने की वजह से उपेक्षित सा हो कर रह गया। फिर वही हुआ जो आज लगता है कि नहीं होना चाहिए था ! धूल-मिट्टी के कारण बदरंग होते उस हीरे को बिना मोल एक मंदिर में दान स्वरुप दे दिया गया, ताकि वहां उसकी कुछ तो कद्र हो सके !

आज फिर सब कुछ बदला है ! फिर हारमोनियम की पूछ-गूछ होने लगी है ! कहते हैं ना कि घूरे के दिन भी बदलते हैं; वो तो फिर भी साज-ए-जहां था। किसी जमाने में सारे साजों का सिरमौर। लोग भले ही उसे भूल गए पर उसने अपने लोगों को नहीं भुलाया ! जब उसका समय आया तो बिना गिला-शिकवा किए, बिना किसी मान के, पंजाब के एक छोटे से शहर के एक छोटे से मौहल्ले के एक छोटे से घर में रहने वाले अपने प्रियजन, पुरषोत्तम दास जलोटा के सुपुत्र अनूप जलोटा को, उनकी पकी उम्र के बावजूद, ऐसा सम्मान, ऐसी शोहरत, ऐसी मित्र मंडली फिर दिलवाई, जिसके लिए युवा लोग तरसते रह जाते हैं। आज अनूप जी के जलवे देख लोग दांतों के नीचे ऊँगली रख चबाए जा रहे हैं। चबाने से ध्यान आया कि उंगली तो मेरी भी दर्द कर रही है; और क्यों ना करे ! पंजाब के उसी शहर फगवाड़े के उसी हांड़ों के मौहल्ले में मेरा भी तो निवास था ! मेरे घर पर भी हारमोनियम था ! भजनों से मेरा भी नाता था ! और आज मेरी भी उम्र हो गयी है ! तो फिर जलोटा कहाँ और मैं यहां ! ऐसा क्यों ? फिर सोचता हूँ पता नहीं ऐसा मौका मिलता, तो मैं क्या करता ! क्या यह सब मुझसे हो पाता ? क्या पैसे के लालच से इस कीचड़ में उतरने के पहले मेरे सामने मेरी दादी जी, बाबूजी, माँ के दिए गए संस्कार आकर खड़े नहीं हो जाते ? क्या मेरी आँखों का पानी मर जाता ? क्या अपने परिवार, अपने बच्चों, अपने इष्ट मित्रों का सामना मैं कर पाता ? सबसे बड़ी बात क्या मेरी ही अंतरात्मा मानती ? या अपने भविष्य के लिए पैसा और शोहरत (?) बटोरने में मुझे कुछ गलत नहीं लगता ! और भविष्य भी कौन सा ? और कितने दिन ? कितनी लालसा ? ये सारे सवाल जलोटे के सामने भी तो आ कर खड़े हुए होंगे !!   


तो फिर सवाल यह उठता है कि ऐसा क्यों हो रहा है ? क्यों कुछ लोग अपनी जीवन भर की प्रतिष्ठा को दांव पर लगा, बदनामी मोल ले, इस तरह की ओछी, असामाजिक व गैर जिम्मेदाराना हरकतें करने पर उतारू हो जाते हैं ? जवाब साफ़ है कि इन सब के पीछे नाम (?) के साथ चल कर आने वाले दाम हैं ! वे लोग जिन्होंने अपने आस-पास कभी हर तरह की चकाचौंध देखी हो और आज कोई पहचान ना रहा हो, वे इस तरह के मौके को भुनाने का लोभ संवरण नहीं कर पाते और पैसे के साथ-साथ नाम, चाहे वह बद ही हो, लपकने से बाज नहीं आते ! देखा जाए तो इस तरह के कर्मों में अधिकतर वे ही महिला-पुरुष लिप्त होते हैं जो येन-केन-प्रकारेण किसी भी तरह खबरों में सुर्खियां बटोरने को लालायित रहते हैं, उनके लिए नैतिक-अनैतिक कुछ भी नहीं होता ! अमर्यादित बयान व वस्त्र, अनर्गल वार्तालाप, तथाकथित आजादी के छद्म हिमायती, स्थापित परंपराओं का अपने मतलब से विरोध आदि, इनके हथकंडे हैं, हर तरह के मीडिया में आने और छाने के ! और मीडिया !! जिसकी नकेल या तो नेताओं के हाथ में है या पूँजीपतियों के, उसकी तो बात ही करना बेकार है ! दृशव्य हो या प्रिंट उसे सिर्फ और सिर्फ अपने से मतलब है ! उनके लिए देश, समाज, संस्कृति, परंपराएं, मान्यताएं सब दकियानूसी बातें हैं। दिल्ली का एक मुख्य अंग्रेजी अखबार है #Times_of_India उसके साथ आता है #Delhi_times उसके गुणी सम्पादक महिलाओं की ऐसी-ऐसी तस्वीरें रोज परोसते हैं, जिनके बारे में बात भी नहीं की जा सकती ! आश्चर्य भी होता है कि इनका घर-परिवार कैसा होता होगा ? क्या वहां बच्चे नहीं होते ? क्या माँएं-बहनें नहीं होतीं ? क्या बुजुर्ग नहीं होते ? कैसे ये लोग नग्नता की वकालत कर उसे जायज ठहरा देते हैं ? और क्यों इन्हें ऐसा लगता है कि इन्हीं तस्वीरों से इनका अखबार चलता है ?   

फिर एक आखीरी नजर उपरोक्त काण्ड पर ! आज जलोटे की सभी भर्त्सना कर रहे हैं पर उस "'नासमझ-अबोध-मासूम'' कन्या पर कोई ऊँगली नहीं उठा रहा, जिसके बिना सारा प्रकरण अधूरा रह जाता है ! क्या वह भी उतनी ही दोषी नहीं है जितना उसका पुरुष साथी ? क्या इस तरह के कर्म में उसकी कोई भी महत्वकांक्षा नहीं है ? क्या इस शो के द्वारा वह फिल्म निर्माताओं का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयत्न नहीं कर रही ? या उसको दोष नहीं देने का कारण यह है कि ऐसा करने वाला महिला विरोधी हो जाएगा ? पुरुष प्रधान समाज की वकालत हो जाएगी ? नारी की प्रगति में अड़चने आने लगेंगी ? और फिर जलोटा ही अकेला दोषी क्यों ? शो के अन्य दसियों प्रतिभागी क्यों नहीं ? वह चैनल क्यों नहीं ? उसे संचालित करने वाले क्यों नहीं ? कानों में रूई और आँखों पर पट्टी बांधे बैठे नियंता क्यों नहीं ? धर्म के तथाकथित ठेकेदार क्यों नहीं ? उसे सफल बना वर्षों-वर्षों से हिमाकत करने देने की छूट देने वाले हम क्यों नहीं ?    

शनिवार, 22 सितंबर 2018

क्रिकेट में हीरो फिल्म में जीरो, एक चिरंतन परंपरा

इतने बड़े-बड़े नामों के सफल ना होने,  फिल्मों की इतनी भद्द पिटने के बावजूद भी, ना खिलाड़ी फ़िल्मी हीरो बनने का मोह छोड़ पा रहे हैं और ना हीं फिल्मकार उनको लेकर फिल्म बनाने का ! ताजा उदहारण श्री संत हैं ! जो खेल में प्रतिबंधित हो कर ''अक्‍सर 2'' में हाथ आजमा रहे हैं। पर फिल्मों के आकर्षण से मुक्त न रह पाने वाले वे अकेले नहीं हैं ! जिस तरह से वर्तमान कप्तान का झुकाव फिल्मों की तरफ हो रहा है और जैसा माहौल बनाया जा रहा है, हो सकता है, आने वाले दिनों में कोहली भी तेज रफ़्तार कार चलाते, गाना गाते और विलेन की ठुकाई करते जल्द ही ''सिल्वर स्क्रीन'' पर नजर आ जाएं ......!

#हिन्दी_ब्लागिंग   
क्रिकेट और फिल्म संसार दोनों में पैसा, ग्लैमर, शोहरत बेइंतेहा है। खिलाड़ी और फिल्मी सितारे दोनों ही सुर्खियां बटोरते ही रहते हैं। दोनों संस्थाओं की आपसी घनिष्ठता जितनी पुरानी है क्रिकेट के खिलाड़ियों के प्रति फ़िल्मी दुनिया की अभिनेत्रियों का आकर्षण भी उतना ही पुराना है। शायद पहला ऐसा किस्सा यहां खेलने आयी वेस्ट-इंडीज के कप्तान गैरी सोबर्स और फिल्म अभिनेत्री अंजु महेन्द्रू का सुनने में आया था। यह बात तो फिर भी समझ में आती है कि ज्यादातर महिलाओं ने ख्याति और अपने भविष्य को सुरक्षित करने के लिए ऐसा किया ! पर शोहरत, दौलत, प्रशंसक सब कुछ होने के बावजूद समय-समय पर हमारे क्रिकेट खिलाड़ी रुपहले परदे पर दिखने का लोभ संवरण क्यों नहीं कर पाते, यह एक अनबूझ पहेली है, वो भी यह जानते हुए कि मैदान का कितना भी बड़ा सितारा हो वह कभी भी पर्दे पर कामयाबी हासिल नहीं कर पाया है।  

एक पुरानी कहावत है "जिसका काम उसी को साजे.." ! खेल के मैदान में सफलता हासिल करना एक बात है और फ़िल्मी पर्दे पर सफल होना बिल्कुल अलग ! पर क्रिकेटरों को अपनी खेल प्रतिभा के बल-बूते मिली शोहरत के कारण जब कुछ विज्ञापन फ़िल्में मिल जाती हैं, उन्हीं में काम कर उनको यह गुमान सा हो जाता है कि वे अभिनय कला में भी प्रवीण हैं ! उधर कुछ मौका-परस्त फिल्मकार भी इनकी शोहरत को भुनाने के वास्ते अपनी फिल्म में इन्हें मौका दे देते हैं और फिर सबको अपनी औक़ात का पता चल जाता है। ऐसा एक बार नहीं दसियों बार हो चुका है और लोगों को मुंहकी खानी पडी है, पर फिर भी कोई सबक नहीं सीखता।  भारतीय टीम के ऐसे कई खिलाड़ी हैं, जिन्‍होंने क्रिकेट की अपनी लोकप्रियता को फिल्‍मी दुनिया में बड़ी उम्‍मीद के साथ भुनाने की कोशिश की, लेकिन सबके हाथ नाकामी ही आई। बेशक इन खिलाड़ियों ने अपनी खेल प्रतिभा से अपने अनगिनत प्रशंसक बनाए पर फ़िल्मी दर्शकों पर इनका कोई जादू नहीं चल पाया। हालांकि ऐसा कदम उठाने वाले क्रिकेट जगत के दिग्गज सितारा खिलाड़ी रहे थे ! 

शायद सबसे पहले इस विधा में अपने को आजमाने वाले खिलाड़ी सलीम दुर्रानी रहे हैं। मैदान में दर्शकों की मांग पर उसी ओर छक्का लगाने का हुनर रखने वाले क्रिकेटर ने जब 1973 में रिलीज हुई फिल्म “चरित्र” में परवीन बॉबी के साथ लीड रोल में काम किया तो फिल्म एक रन भी ना बना सकी ! इसके बाद खूबसूरत खिलाड़ी संदीप पाटिल ने ने फिल्म ‘कभी अजनबी थे’ में पूनम और देबश्री रॉय जैसी हीरोइनों के साथ काम किया ! फिल्म में उनके साथ विलेन की भूमिका में वर्ल्‍डकप 1983 की विजेता भारतीय टीम के सदस्‍य सैयद किरमानी भी थे। पर फिल्म ने पानी भी नहीं मांगा ! फिर आए देश-दुनिया के सबसे मशहूर व दिग्गज खिलाड़ी, सुनील गावस्कर, जिन्होंने मराठी फिल्म ''सावली प्रेमाची'' में बतौर मुख्य एक्टर भूमिका निभाई पर वह उनकी छाया ही बन कर रह गयी। पर इन दिग्गजों के फ़िल्मी पराभव से कोई सबक नहीं लेने वाले प्लेयर्स की लंबी लिस्ट है जिसमें सलिल अंकोला, सदगोपन रमेश, अजय जडेजा, विनोद कांबली, दिनेश मोंगिया, युवराज सिंह, हरभजन सिंह जैसे नामी-गिरामी योद्धा शामिल हैं। अपनी बायो-ग्राफ़ी में सचिन भी दिखाई दिए। धोनी ने छुपे रुस्तम की तरह एक फिल्म ''हुक या क्रुक'' में कुछ किया पर वह फिल्म भले ही पर्दे पर अवतरित नहीं हो सकी ! उन पर तो एक फिल्म बन ही गयी, वैसे भी वे ढेर सारी विज्ञापन फिल्मों में नजर आते ही रहते हैं। मेहमान कलाकार के रूप में कपिल देव भी रजत पट पर नजर आ चुके हैं। दर्शकों को इरफान पठान, मोहम्मद कैफ, जवागल श्रीनाथ और आशीष नेहरा भी छोटी-मोटी झलक दिखा चुके हैं। ऐसा नहीं है कि मतलबपरस्त फिल्मकारों ने सिर्फ भारत के खिलाड़ियों पर दांव लगाया हो, अपनी फिल्म की सफलता के लिए उन्होंने दूसरे देशों के नामी-गिरामी खिलाड़ियों को, जैसे मोहसिन खान और ब्रेट ली को भी आजमाया।

इतनी भद्द पिटने के बावजूद भी, ना खिलाड़ी फ़िल्मी हीरो बनने का मोह छोड़ पा रहे हैं और ना हीं फिल्मकार उनको लेकर फिल्म बनाने का ! ताजा उदहारण श्री संत हैं ! जो खेल में प्रतिबंधित हो कर ''अक्‍सर 2'' में हाथ आजमा रहे हैं, हो सकता है कि यह ''अवसर दो'' उन्हें उनका मान-सम्मान फिर से दिला दे। पर फिल्मों के आकर्षण में बंधने वाले वे अकेले उदहारण नहीं हैं !  जिस तरह से वर्तमान कप्तान का झुकाव फिल्मों की तरफ हो रहा है और जैसा माहौल बनाया जा रहा है, हो सकता है, आने वाले दिनों में कोहली भी तेज रफ़्तार कार चलाते, गाना गाते और विलेन की ठुकाई करते जल्द ही ''सिल्वर स्क्रीन'' पर नजर आ जाएं !

बुधवार, 19 सितंबर 2018

एक मंत्र, जिसके सिद्ध होने पर हनुमान जी आज भी दर्शन देते हैं

हनुमान जी के चिरंजीवी होने के रहस्य पर से पर्दा उठाने के लिए पिदुरु के आदिवासियों की हनु पुस्तिका आजकल " सेतु एशिया" नामक आध्यात्मिक संगठन के पास है। सेतु के संत पिदुरु पर्वत की तलहटी में स्थित अपने आश्रम में इस पुस्तिका को समझकर इसका आधुनिक भाषाओं में अनुवाद करने की चेष्टा में जुटे हुए हैं। लेकिन इन आदिवासियों की भाषा की कलिष्टता और हनुमान जी की रहस्य्मयी लीलाएं इतनी पेचीदा हैं कि उसको समझने में ही काफी समय लग रहा है। पिछले 6 महीने में केवल 3 अध्यायों का ही अनुवाद हो पाया है........!

#हिन्दी_ब्लागिंग   
हनुमान जी ! देश के, सबसे लोकप्रिय, प्रसिद्ध, पूजनीय पांच देवताओं में से एक। अकेले ऐसे पात्र, जिनकी मौजूदगी रामायण और महाभारत दोनों ग्रंथों में पाई जाती है। जिनके बारे में यह मान्यता है कि वे अजर-अमर
और चिरंजीवी हैं और अपने भक्तों की रक्षा के लिए आज भी धरती पर विचरण करते हैं। उनका निवास हिमालय में माना जाता है, जहां से वे अपने भक्तों की पुकार पर उनकी सहायता करने मानव समाज में आते हैं लेकिन किसी को आँखों से दिखाई नहीं देते। लेकिन उन्हीं का दिया हुआ एक ऐसा मंत्र भी है जिसके जाप से हनुमान जी अपने सच्चे भक्त के सामने साक्षात प्रकट हो जाते हैं। इसके पीछे एक लोक मान्यता है 

रामायण में अभिन्न रूप से जुडी लंका की एक आदिवासी जनजाति का यह दावा है कि हनुमान जी की उन पर असीम कृपा है। उनके अनुसार जब प्रभु राम जी ने अपना मानव जीवन पूरा कर समाधि ले गो-लोक प्रस्थान किया तो हनुमान जी ने भी व्यथित हो अयोध्या यह सोच कर छोड़ दी कि जब मेरे प्रभू ही यहां नहीं हैं तो मेरा क्या काम ! उन्होंने जंगलों को अपना आवास बना लिया था। पर मन जब अपने इष्ट के बिना ज्यादा
व्यथित हो जाता था तो वह देशाटन के लिए निकल जाते थे। ऐसे ही एक बार वे भ्रमण करते हुए लंका के जंगलों में भी चले गए थे जहाँ उस समय विभीषण का राज्य था। वहां उन्होंने प्रभु राम के स्मरण में पिदुरु (पिदुरुथालागाला) जो श्री लंका का सबसे ऊँचा पर्वत है, वहां बहुत दिन गुजारे थे। उसी दौरान वहां रहने वाले मातंग आदिवासियों, जो कि लंका की पुरानी जन-जाति वेद्दाह की एक उप-जाति है, ने उनकी खूब सेवा की थी। हनुमान जी भी उनसे बहुत घुल-मिल गए थे। जब वे वहां से लौटने लगे तब वहां के लोग बहुत दुखी हो गए, बोले प्रभू हमें अब कौन राह दिखाएगा ! कौन हमें उबारेगा ! इन लोगों ने हनुमान जी को रोकने की बहुत कोशिश की ! पर रमता जोगी बहता पानी कब एक जगह ठहरता है ! पर उनका प्रेम देख भक्तवत्सल हनुमान जी ने यह मंत्र उनको देते हुए कहा, मैं आपकी सेवा, प्रेम और समर्पण से अति प्रसन्न हूँ। जब भी आप लोगों को मेरी जरुरत हो, इस मंत्र का जाप करना, मै प्रकाश की गति से आपके पास आ जाऊँगा। यह कह कर उन्होंने वह अमोघ मंत्र उनके मुखिया को सौंप दिया। जो इस प्रकार था -

                     "कालतंतु कारेचरन्ति एनर मरिष्णु , निर्मुक्तेर कालेत्वम अमरिष्णु"

मंत्र देने के साथ ही हनुमान जी ने इस मंत्र को सिद्ध करने की दो शर्तें भी रखी थीं। पहली कि जाप करने वाले को अपनी आत्मा का मेरे साथ संबंध होने का बोध होना चाहिए, ऐसा ना होने पर यह मंत्र काम नहीं करेगा। 
दूसरी जब इस मंत्र का जाप किया जाए तो 980 मीटर की दूरी तक कोई ऐसा इंसान नहीं होना चाहिए जो पहली शर्त पूरी न कर पा रहा हो। यानी इस मंत्र का जाप या तो बिल्कुल अकेले में हो या फिर वहां सिर्फ वही लोग हों जिनकी आत्मा को मेरे साथ संबंध होने का बोध हो।  

मंत्र तो मिल गया पर मुखिया के मन में उसे पाने के बाद एक चिंता उठी, जिसके निवारण हेतु उसने प्रभू से पूछा, हे प्रभु; हम इस मंत्र को तो यथाशक्ति गुप्त रखेंगे; लेकिन फिर भी अगर किसी को इस मंत्र का पता चल गया और वह इस मंत्र का दुरुपयोग करने लगा ! तो क्या होगा ? हनुमान जी ने उसकी दुविधा दूर करते हुए कहा, आप उसकी चिंता न करें ! अगर कोई ऐसा व्यक्ति इस मंत्र का जाप करेगा, जिसको अपनी आत्मा के मेरे साथ संबंध का बोध नहीं होगा तो यह मंत्र काम नहीं करेगा। 
पर मुखिया की दुविधा अभी भी जारी थी, उसने फिर पूछा, भगवन ! आपने हमें तो आत्मा का ज्ञान दे दिया है जिससे हम तो अपनी आत्मा के आपके साथ संबंध से परिचित हैं। लेकिन हमारे बच्चों और आने वाली पीढ़ियों का क्या होगा ? उनके पास तो ना तो आत्मा का ज्ञान होगा नहीं उन्हें अपनी आत्मा के आपके साथ संबंध का बोध होगा ! तब उनका उद्धार कैसे होगा ? तब हनुमान जी ने उन्हें यह वचन दिया कि मै आपके कुटुंब के साथ समय बिताने हर 41 साल बाद यहां आता रहूँगा और आकर आपकी आने वाली पीढ़ियों को भी आत्म ज्ञान देता रहूंगा; जिससे समय के अंत तक आपके कुनबे के लोग यह मंत्र जाप करके कभी भी मेरे साक्षात दर्शन कर सकेंगे।

उस आदिवसी जन-जाति के वंशज अभी भी श्री लंका के जंगलों में रहते हैं। उन्होंने अपने आप को सभ्य जगत से दूर ही रखा हुआ है। किसी को भी कुछ महीनों पहले तक उन पर की हनुमान कृपा का जरा सा भी आभास नहीं था, जब तक कि कुछ अन्वेषकों ने उनकी अनोखी और कुछ असामान्य गतिविधियों को देख नहीं लिया। खोज-खबर लेने के पश्चात पता चला कि यह कर्म-काण्ड वह "चरण पूजा" है जिसे हर 41 साल बाद प्रभू हनुमान की अगवानी के लिए किया जाता है। उन्होंने बताया कि 2014 में हनुमान जी उनके साथ थे, जिन्हें सिर्फ वही लोग देख सकते थे। उनके साथ कुछ दिन रहने और नई पीढ़ी को "आत्म-ज्ञान" देने के पश्चात 27 मई 2014 को भगवान वापस  चले गए। अब उनका आगमन 41 वर्षों के पश्चात 2055 में होगा। पर यदि     बहुत ही आवश्यक हुआ तो उस दैवी मंत्र के जाप से उनका आह्वान बीच में भी किया जा सकता है। इसी के साथ बिरादरी के मुखिया, बाबा मातंग, ने यह भी बताया कि हनुमान जी के आगमन, उनके यहां निवास, उनके प्रवचन, उनके कहे गए हरेक शब्द, उनके द्वारा किए गए कार्यों का, एक-एक मिनट का पूरा ब्यौरा, हम अपनी हनु पुस्तिका (पंजी या लॉग बुक) में दर्ज करते हैं।  2014 के प्रवास के दौरान हनुमान जी द्वारा जंगल वासियों के साथ की गई सभी लीलाओं का विवरण भी इसी पुस्तिका में नोट किया गया है।

आजकल यह पंजी, लॉग बुक, सेतु एशिया नामक आध्यात्मिक संगठन के पास है। सेतु के संत पिदुरु पर्वत
की तलहटी में स्थित अपने आश्रम में इस पुस्तिका को समझकर इसका आधुनिक भाषाओं में अनुवाद करने की चेष्टा में जुटे हुए हैं, ताकि हनुमान जी के चिरंजीवी होने के रहस्य का पर्दा उठ सके। लेकिन इन आदिवासियों की भाषा की कलिष्टता और हनुमान जी की रहस्य्मयी लीलाएं इतनी पेचीदा हैं कि उसको समझने में ही काफी समय लग रहा है। पिछले 6 महीने में केवल 3 अध्यायों का ही अनुवाद हो पाया है। जब भी इस पुस्तिका में का कोई नया अध्याय अनुवादित होता है तो सेतु संगठन का कोलम्बो ऑफिस उसका औपचारीक घोषणा करता है। अभी तक जिन अध्यायों के विवरण प्राप्त हुए हैं वे इस प्रकार हैं -
अध्याय 1 : चिरंजीवी हनुमान जी का आगमन : इस अध्याय में इस घटना का विवरण है कि पिछले साल एक रात हनुमान जी कैसे पिदुरु पर्वत के शिखर पर इन जंगल वासियों को दिखाई दिए। हनुमान जी ने उसके बाद एक बच्चे के पिछले जन्म की कहानी सुनाई, जो दो माताओं के गर्भ से पैदा हुआ था। 
अध्याय 2 : हनुमान जी के साथ शहद की खोज : इस अध्याय में इस बात का विवरण है कि अगले दिन हनुमान जी जंगल वासियों के साथ शहद खोजने निकले और वहां पर क्या घटनाएं घटित हुईं। 
अध्याय 3 : काल के जाल में चिरंजीवी हनुमान : यह सबसे रोचक अध्याय है। हनुमान जी द्वारा दिए गए  ऊपर दिए गए मंत्र का अर्थ इसी अध्याय में समाहित है। उदाहरण के तौर पर जब हम मनुष्य समय के बारे में सोचते हैं तो हमारे मन में घडी का विचार आता है; लेकिन जब भगवान समय के बारे में सोचते हैं तो उन्हें समय के धागों (तंतुओं ) का विचार आता है। इस मंत्र में “काल तंतु कारे” का अर्थ समय के धागों का जाल है।

आज विश्व भर के हनुमान भक्तों को बेसब्री से नए अध्याय की जानकारी का इंतजा रहता है, क्योंकि हर

ऐसी जानकारी उन्हें इस मंत्र की पहली शर्त पूरी करने के करीब ले जाती है; जिसे पूरी करने के बाद कोई भी भक्त इस दैवी मंत्र के जाप से हनुमान जी को अपने पास पा उनके वास्तविक रूप के दर्शन कर उनकी असीम कृपा का भागी बन सकता है। पर क्या खुद को इस लायक बना पाना इतना आसान है ? मार्ग तो सैंकड़ों वर्ष पहले तुलसीदास जी भी बता गए थे -
संकट ते हनुमान छुड़ावै, मन-क्रम-बचन ध्यान जो लावै।
यानी संकट पड़ने पर जिस वीर हनुमान के नाम का लोग मन, कर्म और वचन से जाप करते हैं, ध्यान लगाते हैं , उन्हें  हर संकट से मुक्ति मिल जाती है। पर कितने लोग मन-कर्म और वचन से निष्ठावान हो पाए। फिर भी यदि उपरोक्त सारी खोज फलीभूत हो जाती है तो यह हम सब के लिए गौरव का विषय तो होगा ही हमारी पौराणिकता की सच्चाई इसको कोरी कल्पना कहने-मानने वालों के लिए एक सबक होगी। 

*संदर्भ -  SPEAKINGTREE

गुरुवार, 13 सितंबर 2018

महाभारत में अंक "18" की प्रमुखता, संयोग या रहस्य !

महर्षि वेदव्यास जी ने 18 पुराणों की रचना की थी। इस महाग्रंथ में भी 18 अध्याय हैं। श्रीकृष्ण जी ने 18 दिन तक अर्जुन को गीता का ज्ञान दिया, जिसके भी 18 ही अध्याय हैं।  युद्ध भी पूरे 18 दिन तक चला। इसमें कौरवों की 11 और पांडवों की 7 यानी कुल 18 अक्षोहिणी सेना ने भाग लिया। एक अक्षौहिणी सेना में शामिल रथों की संख्या होती है 21870, हाथी भी होते हैं 21870, घोड़ों की तादाद होती है 65610 और 109350 पैदल सिपाही होते हैं । इन सबके अंकों को यदि जोड़ा जाए तो सभी का कुल 18 ही आता है । इसके अलावा इस युद्ध के प्रमुख सूत्रधार भी 18 थे। और सबसे आश्चर्य की बात यह है कि इस महासंग्राम के पश्चात जो जीवित बचे थे उन योद्धाओं की संख्या भी 18 ही थी !  जिनमें पांडवों के पंद्रह और कौरवों के तीन योद्धा थे। सवाल यह उठता है कि सब कुछ 18 की संख्‍या में ही क्यों हुआ या किया गया ? क्या यह संयोग है या इसमें कोई रहस्य छिपा है ...........!

#हिन्दी_ब्लागिंग 
महाभारत जैसा अप्रतिम ग्रंथ ना फिर कभी रचा गया और अब शायद कभी लिखा भी नहीं जा सकेगा।
इस ग्रंथ को 'पंचम वेद' कहा गया है। यह ग्रंथ हमारे देश के मन-प्राण में बसा हुआ है। ऐसा महाकाव्य विश्व में और कहीं भी नहीं है। ऐसी मान्यता है कि दुनिया में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसका वर्णन इसमें ना हुआ हो। अब तो इसमें वर्णित दुनिया के पहले विनाशकारी विश्व युद्ध, जिसमें तबके 78 देसी-विदेशी राजाओं ने भाग लिया था, की शुरुआत की तिथि भी ज्ञात कर ली गयी है, जो ईसा पूर्व 22 नवंबर 3067 की बनती है। पर एक बात जो अभी भी रहस्य बनी हुई है; उस का कोई ठोस जवाब नहीं मिल पाया है, और वह है इस सारे प्रसंग में अंक18 की प्रमुखता ! 

महर्षि वेदव्यास जी ने 18 पुराणों की रचना की थी। इस महाग्रंथ में भी 18 अध्याय हैं। श्रीकृष्ण जी ने 18 दिन तक अर्जुन को गीता का ज्ञान दिया, जिसके भी 18 ही अध्याय हैं।  युद्ध भी पूरे 18 दिन तक चला। इसमें कौरवों की 11 और पांडवों की 7 यानी कुल 18 अक्षोहिणी सेना ने भाग लिया। एक अक्षौहिणी सेना में शामिल रथों की संख्या होती है 21870, हाथी भी होते हैं 21870, घोड़ों की तादाद होती है 65610 और 109350 पैदल सिपाही होते हैं । इन सबके अंकों को यदि जोड़ा जाए तो
सभी का कुल 18 ही आता है । इसके अलावा इस युद्ध के प्रमुख सूत्रधार भी 18 थे। और सबसे आश्चर्य की बात यह है कि इस महासंग्राम के पश्चात जो जीवित बचे थे उन योद्धाओं की संख्या भी 18 ही थी !  जिनमें पांडवों के पंद्रह और कौरवों के तीन योद्धा थे। सवाल यह उठता है कि सब कुछ 18 की संख्‍या में ही क्यों हुआ या किया गया ? क्या यह संयोग है या इसमें कोई रहस्य छिपा है ? 

वह महाकाव्य जो महर्षि वेदव्यास द्वारा रचा और श्री गणेश द्वारा लिखा गया हो, उसमें कोई भी वाकया यूँ ही नहीं जुड़ गया होगा ! उसका जरूर कोई अपना रहस्य और महत्व होगा ! देखा जाए तो सनातन धर्म में 18 की संख्या बहुत महत्वपूर्ण है। ऐसी मान्यता है कि अंक 18 का उच्चारण  करने से सकारात्मक उर्जा का प्रवाह होता 
है। महाभारत पर अनेक लोगों ने शोध किया है। जिनमें कुछ लोगों का मानना है कि 18 अंक की प्रमुखता का कारण इसके 1 और 8 के अंक हैं। एक का अंक भगवान का प्रतीक है और 8 प्रतीक है सृष्टि की रचना और उसकी असीमितता, अनंतता का ! फिर 18 के अंक 1 और 8 को जोड़ने पर 9 बनता है, जो एक संपूर्ण अंक है। इसमें सभी अंको का समावेश भी होता है। यह सभी अंको में सबसे बड़ा और शक्तिशाली भी माना जाता है। हो सकता है इन सब बातों को ध्यान में रख कर ही अठ्ठारह के अंक को इतना महत्व मिला हो।

एक महत्वपूर्ण बात ! श्रीकृष्ण जी और अंक आठ का आपस में बहुत महत्व रहा है। उनके जीवन के हर मोड़, हर घटना के साथ यह अंक जुड़ा हुआ है। तो यह भी हो सकता है कि कथा में अंक एक को परमेश्वर का और अंक आठ को श्रीकृष्ण का प्रतीक मान, अंक अठ्ठारह बना, उसको प्राथमिकता दे, यह उपदेश दिया गया हो कि जो हुआ वह सब प्रभू की इच्छा, लीला और माया थी। उसके सिवा कुछ नहीं। इसी संदर्भ में महाभारत की एक
उपकथा भी यहां प्रासंगिक है। युद्ध की समाप्ति पर कुछ लोग जीत का श्रेय लेने की कोशिश करने लगे तो श्रीकृष्ण जी ने कहा कि चलो बर्बरीक से इस बारे में पूछते हैं ! क्योंकि उसी ने निरपेक्ष भाव से पूरा युद्ध देखा है। जब सब जने इकट्ठा हो उसके पास पहुंचे और युद्ध में किए गए अपने-अपने पराक्रम के बारे में पूछने लगे; तो उसने कहा, कौन सा गांडीव ? कौन सा अर्जुन ? कौन भीम ? कौन भीष्म ? कौन दुर्योधन ? मैंने तो अठ्ठारहों दिन रणभूमि में सिर्फ कृष्ण ही कृष्ण को देखा। हर ओर वही ! हर जगह वही ! हर रूप में वही ! इतना सुनते ही सब के सर नीचे झुक गए। इससे तो यही लगता है कि वेदव्यास जी ने प्रभू को ही सर्वोच्च पद में रख, उन्हीं को केंद्र बना, उन्हीं के द्वारा ज्ञान प्रदान करवा मानव मात्र का भला चाहते हुए इस महाकाव्य की रचना की होगी।  

शनिवार, 8 सितंबर 2018

कुछ मंदिरों में प्रवेश निषेध जैसे नियमों का औचित्य

उज्जैन के महाकाल मंदिर परिसर में फूहड़ता प्रदर्शित करती युवती जैसे लोग अच्छी तरह जानते हैं कि उनके कर्म-कुकर्म के विरोध में यदि हजार आवाजें उठेंगीं तो पक्ष में भी सौ लोग खड़े हो जाएंगे ! यही सौ लोग सदा ऐसे सिरफिरों की ताकत और ढाल बन उनका मंतव्य पूरा करवाने का जरिया बन जाते हैं। । कुछ दिनों पहले तक कौन इस युवती को जानता था ! आज वह घर-घर में पहचानने वाली "चीज'' हो गयी है। उसका उद्देश्य पूरा हो गया है; देख लीजिएगा आने वाले कुछ ही दिनों में हमारे किसी ''पारखी-जौहरी'' फिल्म निर्माता ने उसे अपनी फिल्म ऑफर कर देनी है...........!

#हिन्दी_ब्लागिंग   
तकरीबन साल भर पहले चुनिंदा मंदिरों में कुछ लोगों के लिए प्रतिबंध होने पर बहुत गुल-गपाड़ा मचा था। इसको ले कर काफी बहस-बाजी भी होती रही, विरोध दर्ज करवाया जाता रहा, आंदोलन होते रहे, और यह सब उन लोगों द्वारा ज्यादा किया गया जिन पर कोई पाबंदी लागू नहीं थी। कुछ लोग जरूर ऐसे हैं जो इंसान की बराबरी के सच्चे दिल से हिमायती हैं, जो अच्छी बात है; पर विडंबना यह भी है कि ज्यादातर प्रतिवाद करने वालों को प्रतिबंधित वर्ग से उतनी हमदर्दी नहीं थी, जितना वे दिखावा करते रहे !! तब ऐसे ही एक विचार मन में आया था कि ऐसा क्यों है ? जबकि पूजास्थलों की व्यवस्था संभालने वाले लोग, विद्वान, धर्म को समझने वाले, धर्म-भीरु होते हैं। उनको क्या यह पता नहीं होता कि उनका वैसा रवैया गलत है ? क्या वे नहीं जानते कि प्रभू के यहां सब बराबर होते हैं ? क्या उन्हें मालुम नहीं कि ऊपर वाले के यहाँ कोई भेद-भाव नहीं होता ! फिर क्यों भगवान् के घर में ही इंसान और इंसान में फर्क किया जाता है ? कोई तो कारण होगा ?

जो कुछ समझ आता है, उसमें पहला तो यही है कि भले ही हम कितना भी कहें पर कड़वी सच्चाई और इतिहास गवाह है अलग-अलग संप्रदायों के अलग-अलग मतों में, विरोधी मान्यताओं, अपने पंथ को श्रेष्ठ मनवाने की जिद, अपने इष्ट को सर्वोपरि मानने के हठ के कारण अक्सर टकराव होते रहे हैं। एक-दूसरे को नीचा दिखाने के प्रयास में जन-धन-स्थल को हानि पहुंचाने के उपक्रमों को भी मौके-बेमौके, जानबूझ कर अंजाम दिया जाता रहा है। हो सकता है ऐसी मानसिकता वाले लोग दूसरे पंथ के पूजा-स्थल में जा गैर-वाजिब हरकतें करते हों ! शुचिता का ध्यान ना रखते हों ! स्थल के सम्मान में कोताही बरती जाती हो ! पूजा-अर्चना में बाधा उत्पन्न करते हों, और वैसे कुछ अवांछनीय, असमाजिक, गैरजिम्मेदाराना लोगों की हरकतों का खामियाजा औरों को भी भुगतना पड़ गया हो। 

दूसरे दुनिया में ऐसे लोग भरे पड़े हैं, जिनका ध्येय किसी न किसी तरह खबरों में बने रहना होता है ! अपने को कुछ अलग दिखाने की लालसा, तुरंत प्रसिद्ध होने की कामना ! अपने को ख़ास मनवाने की इच्छा ! अप्राप्य को येन-केन-प्रकारेण हासिल करने की लालसा उनसे कुछ भी करवा लेती है ! इन्हें ना किसी शुचिता की परवाह होती है, ना हीं किसी तरह की परंपराओं की, ना किसी की आस्था की, ना हीं वर्षों से चली आ रही व्यवस्थाओं की; ऐसे लोग पहले नाम फिर उससे दाम पाने के लिए कुछ भी नैतिक-अनैतिक करने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते हैं ! ये लोग अच्छी तरह जानते हैं कि इनके कर्म-कुकर्म के विरोध में यदि हजार आवाजें उठेंगीं तो पक्ष में भी सौ लोग खड़े हो जाएंगे ! यही सौ लोग सदा ऐसे सिरफिरों की ताकत और ढाल बनते आए हैं। दो दिन पहले उज्जैन के महाकाल मंदिर परिसर में फूहड़ता प्रदर्शित करती एक युवती ने फिर इस बात को सिद्ध कर दिया। कुछ दिनों पहले तक कौन इसे जानता था ! पर आज वह घर-घर में पहचानने वाली "चीज'' हो गयी है। उसका मंतव्य सफल हो गया है; देख लीजिएगा आने वाले कुछ ही दिनों में हमारे किसी ''पारखी-जौहरी'' फिल्म निर्माता ने उसे अपनी फिल्म ऑफर कर देनी है ! 

महाकाल मंदिर में यह जो कुछ घटा, यह हिन्दू पूजा स्थलों पर पहली बार नहीं हुआ था ! उस कन्या को लोग भूले नहीं होंगे, जिसने जबरदस्ती शिंगणापुर के शनि-चबूतरे पर चढ़ने को ले कर हंगामा मचाया था ! उसके भी पहले एक फोटो अक्सर दिख जाती थी जिसमें एक लड़का किसी मंदिर में शिवलिंग पर जूते समेत एक पैर रखे दिखाई पड़ता था। भले ही वह सच हो ना हो या फोटो से छेड़-छाड़ की गयी हो; पर वैसा या ऐसा करने वाले की दूषित मानसिकता का तो पता चलता ही था ना !! इसी दौरान सोशल मीडिया पर कुछ तथाकथित आधुनिक महिलाओं ने गर्व से यह स्वीकारा था कि माह के अपने कुछ ख़ास दिनों में भी वे मंदिर जाती हैं ! जबकि समाज के कई परिवारों में शुद्धता को ध्यान में रखते हुए इन दिनों में रसोई में भी जाना अनुचित समझा जाता है। यह कैसी आजादी है ? यह कैसी आधुनिकता है ? ये कैसे संस्कार हैं ?

आश्चर्य होता है कि साल भर पहले मंदिरों में कुछ लोगों के प्रवेश निषेद्ध को ले कर गुल-गपाड़ा मचाने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी, आजादी (?) के पक्षकार, मानवाधिकार के स्वयंभू एक पक्षीय झंडावदार, जो उन दिनों जामे से बाहर हो अपन राशन-पानी ले पिले पड़ रहे थे; वे लोग क्या कोमा में चले गए हैं आज ! उनकी सांस की भी आवाज नहीं आ रही ! क्यों नहीं ऐसे लोग उन तथाकथित बाबाओं के विरुद्ध मोर्चा खोलते जो भगवान के नाम पर ज्यादातर महिलाओं का ही शोषण करते हैं ! क्यों नहीं उन पंथों के खिलाफ आवाज उठाते जो जबरन धर्म परिवर्तन करवाने का दुःसाहस करते हैं ! क्या सिर्फ इसलिए क्योंकि वहां नाम मिले ना मिले पर जान को जरूर खतरा होता है !! और यहां तालियां बजती हैं, सम्मान मिलता है ! ऐसे लोगों यह समझ नहीं आता कि अगला तो इनके कंधे पर बंदूक रख इन्हें माध्यम बना अपना काम निकाल गया और यह जूतियों में दाल बाँट-बाँट कर पीते रहे। 

इंसान की बराबरी की हिमायत अच्छी बात है पर वह यदि वही चीज उच्श्रृंखल हो जाए तो ? शायद ऐसे ही कुछ कारण रहे होंगे जब पवित्र स्थानों की सुचिता को बरकरार रखने के लिए कठोर कदम उठाते हुए कुछ इसी प्रकार के अलोकप्रिय निर्णय लेने पड़े होंगे और जैसे गेहूँ के साथ घुन भी पिस जाता है उसी प्रकार कुछ लोगों के अनैतिक कार्यों के परिणाम का खामियाजा कई लोगों को भोगने पर मजबूर होना पड़ा होगा !    

बुधवार, 5 सितंबर 2018

भगवान का धन, भगवान के बंदों के लिए ही उपलब्ध नहीं हो पा रहा

सवाल यह उठ रहा है कि मंदिरों की यह अकूत धन-सम्पदा कब और किस काम आएगी ? किस  ख़ास आयोजन के लिए इसे संभाल कर रखा जा रहा है ? क्या समय के साथ यह सब जमींदोज हो जाने के लिए है ? मंदिरों में जमा यह धन का पहाड़ देश की अमानत है ! यह अकूत, बेशुमार दौलत साधारण लोगों के द्वारा दान करने पर ही इकट्ठा हो पाई है ! तो आज जब वही आम इंसान मुसीबत में है, पूरा देश चिंताग्रस्त है, तो फिर इस बेकार पड़े, भगवान के नाम के धन का उपयोग भगवान के बंदों के लिए क्यों नहीं किया जा रहा  है  ?

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इस साल आई केरल की आपदा शायद स्वतंत्र भारत की सबसे बड़ी आपदा है। जैसा कि होता आया है, हमारी परंपरा ही कह लीजिए, इस परीक्षा की घडी में सारा देश एकजुट हो गया। हर कोई बिना किसी भेद-भाव, धर्म, भाषा, जाति, संप्रदाय, अमीरी-गरीबी, छोटे-बड़े, बच्चे-बूढ़े, जिससे जितना संभव हो सका, सारे देश ने अपना योगदान करने की कोशिश की।  रोज ही खबर मिलती है कि कैसे बच्चे अपनी गुल्लकें फोड़ अपनी छोटी सी धन राशि अर्पित कर रहे हैं ! सक्षम तो एक तरफ आर्थिक रूप से अक्षम लोग भी इस संकट की घडी में अपना योगदान देने से पीछे नहीं हट रहे ! कोई अपने एक दिन की कमाई दे रहा है तो कोई सामूहिक प्रयास से एकत्रित की गयी धन राशि पहुंचा रहा है ! कोई धन से नहीं तो  वस्तुएं प्रदान कर रहा है ! बहुतेरे जांबाज युवक वहां खुद जा हर तरह की मदद कर रहे हैं !  बाहरी और सरकारी धन भी आया है।

पर इस सब के बावजूद लोगों के मन में एक सवाल भी उठा (व्हाट्सएप पर बंगला भाषा में ऐसा ही एक सवाल कई दिनों से घूम रहा है) कि देश के बाकी हिस्सों को तो छोड़िए; दक्षिण भारत के मंदिरों में ही अकूत सम्पदा कोठरियों के अंदर तालों के पहरे में बंद, बेकार पड़ी है, और प्राकृतिक कहर भी उधर ही टूटा है, फिर भी किसी भी बड़े मंदिर ने अपनी तरफ से कोई पहल करते हुए सहायता क्यों नहीं की ? वह विश्व प्रसिद्ध पद्मनाभ जी का मंदिर भी तो केरल में ही है ना; जो अपने सोने के भंडार के लिए दुनिया में चर्चा में बना रहता है ! फिर सबसे धनाढ्य पूजा स्थल तिरुपतिनाथ जी का मंदिर ! मीनाक्षी मंदिर ! श्रृंखला है, ऐसे अरबों-खरबों का धन संजोए, मंदिरों की ! इनके कर्ता-धर्ता क्यों चुप हैं ? जबकि कुछ छोटे मंदिरों ने तथा अन्य धर्मों के पूजा स्थलों ने अपने धर्म गुरुओं की अपील पर बिना भेद-भाव के सहायता राशि भिजवाई है !

सवाल है; यह धन-सम्पदा और किस काम आएगी ? किस ख़ास आयोजन के लिए इसे संभाला जा रहा है ? क्या समय के साथ यह सब जमींदोज हो जाने के लिए है ? मंदिरों में जमा यह धन का पहाड़ देश की अमानत है ! यह अकूत, बेशुमार दौलत साधारण लोगों के द्वारा दान करने पर ही इकट्ठा हुई है ! तो जब वही इंसान मुसीबत में है, पूरा देश चिंताग्रस्त है, तो फिर इस बेकार पड़े, भगवान के नाम के धन का उपयोग भगवान के बंदों के लिए क्यों नहीं किया जा रहा ? क्या प्रभू खुद आकर इन्हें आदेश देंगे ? या प्रबंधकों ने यह राशि अपनी संपत्ति मान ली है और जहां चाहेंगे वहीं खर्च करेंगे ? या इसके लिए भी हर बात की तरह न्यायालय का दरवाजा खटखटाना पड़ेगा ? जबकि सच्चाई यह है कि इन विशाल मंदिरों की अकूत सम्पति का एक छोटा सा भाग ही बहुत बड़ी राहत, राहत तो क्या सारी समस्या को ही दूर कर सकता है !  ऐसा नहीं हो सकता कि जिम्मेवार लोगों ने इस बारे में कुछ सोचा ही नहीं हो ! पर चुप्पी का कोई कारण ! कोई जवाब ! कोई सफाई !  

मंगलवार, 4 सितंबर 2018

मेरे बचपन की पुस्तकें-पत्रिकाएं, जो आज भी मुझे संजोए हुए हैं

पिताजी को पढ़ने का बहुत शौक था। जब मैं कुछ बड़ा हुआ तो मेरे लिए भी उस समय का बाल साहित्य घर आने लगा। सारी बाल पत्रिकाओं के नाम तो मुझे आज भी याद हैं; मनमोहन, बालक, चंदामामा, चुन्नू-मुन्नू जिनमें फिर पराग का नाम भी जुड़ गया। इसके अलावा पाठ्य पुस्तकों के इतर, तरह-तरह की देसी-विदेशी बाल साहित्य की रोचक पुस्तकें भी मेरे लिए लाते-मंगवाते रहते थे, फिर वह चाहे पंचतंत्र हो, ईसप की कथाएं हों, अलादीन हो, एलिस हो या फिर हमारे महान ग्रंथों का बाल संस्करण हो। उन दिनों बच्चों के सर्वांगीण विकास और उनके चरित्र निर्माण, उनके बचपन का बहुत ध्यान रखा जाता था, इसीलिए हर पुस्तक-पत्रिका में ज्ञान-विज्ञान के साथ-साथ पौराणिक-इतिहासिक कहानियों का समावेश  भी जरूर हुआ करता था, हाँ आज की तरह अपने गुरुवरों या बड़ों का मजाक, खिल्ली उड़ाने वाली ना कथाएं होती थीं ना हीं चुटकुले..........  

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पिताजी का कार्य-क्षेत्र कलकत्ता (आज का कोलकाता) होने के कारण मेरा बचपन भी वहीं बीता। ददिहाल व ननिहाल पंजाब में थे। उस लिहाज से जैसा कहते हैं ना कि छुटपन में दादी-नानी की पौराणिक, ऐतिहासिक, परियों की कथा-कहानियां सुनी-सुनाई जाती थीं, वैसा मेरे साथ नहीं हो पाया। पर इस मामले में मैं सौभाग्यशाली रहा ! पिताजी को पढ़ने का बहुत शौक था। घर पर दो कांच की आलमारियां तरह-तरह की पुस्तकों से भरी पड़ी थीं। जब मैं कुछ बड़ा हुआ तो मेरे लिए भी उस समय का बाल साहित्य घर आने लगा। सारी बाल पत्रिकाओं के नाम तो मुझे अभी भी याद हैं, मनमोहन, बालक, चंदामामा, चुन्नू-मुन्नू जिनमें फिर पराग का नाम भी जुड़ गया। इसके अलावा पाठ्य पुस्तकों के इतर, तरह-तरह की देसी-विदेशी बाल पुस्तकें भी लाते-मंगवाते रहते थे। फिर वह चाहे पंचतंत्र हो, ईसप की कथाएं हों, अलदीन हो या फिर हमारे महान ग्रंथों का बाल संस्करण हो। 

उन्होंने कभी पढ़ने पर ना जोर दिया नाहीं दवाब बनाया ! पता नहीं कैसे उन्हें मेरे इस रुझान का अंदाज लग गया ! शायद अपने संकलन में मेरी ताक-झाँक को परख कर। इसी के चलते पुस्तकों के बहुमूल्य खजाने का द्वार मेरे लिए खोल दिया गया। इतना ही नहीं जिस पुस्तकालय ने उन्हें आग्रह कर अपना सदस्य बनाया था, वहाँ से भी मुझे सद्साहित्य की प्राप्ति होने लगी। सस्ती का जमाना था पर लोगों की आमदनी भी वैसी ही होती थी सो मेरे तक़रीबन सभी संगी-साथी इस अवर्चनीय सुख से वंचित रहते थे, पाठ्य-पुस्तकों के अलावा किसी और किताब की कल्पना किसी-किसी घर में ही हो पाती थी वह भी इक्का-दुक्का ! मेरे पास तो भंडार था और दिल दरिया ! फिर क्या था, हरेक के लिए हर पुस्तक उपलब्ध, जो उनके परिवार के बड़े भी पढ़ा करते थे। पर शर्त यही रहती थी कि संभाल कर पढ़ा जाए और सही सलामत, बिना कटे-फटे वापस की जाए। क्योंकि वे पुस्तकें मुझे निर्जीव नहीं सजीव लगा करती थीं, अपने परिवार के सदस्यों की तरह। 

दैनिक अखबार ''अमृत बाज़ार पत्रिका", जिसका प्रकाशन 1991 में 123 साल के बाद किन्हीं कारणों से बंद हो गया, के साथ-साथ साप्ताहिक हिन्दुस्तान तथा धर्मयुग नियम से आते थे। कभी-कभार माया, सरिता, मनोरमा या फ़िल्मी-पत्रिका फिल्म फेयर हावड़ा स्टेशन के A. H. Wheeler के स्टाल से आ जाए तो आ जाए, पर किसी हल्के या सतही पुस्तक या पत्रिका को कभी भी घर में प्रवेश नहीं मिला ! अपने समय की सर्वाधिक बिक्री वाली मनोहर कहानियां को तो कभी भी नहीं। 

पिताजी की कृपा से ही उन सब बातों का असर आज दिख रहा है। पढ़ने की भूख, जिज्ञासु प्रवृत्ति, हर क्षेत्र के बारे में कुछ ना कुछ जानकारी प्राप्त करने की इच्छा अभी भी अपने चरम पर है। आज की पीढ़ी को और उनके
भी छोटे बच्चों को अपनी पौराणिक, ऐतिहासिक, सामयिक कथा कहानियों की जानकारी प्रदान करना बहुत सुहाता है। किसी भी लोकप्रिय कथा-साहित्य-पुस्तक के मुख्य मार्ग से हट कर जब उसके गली-कूचों की बात बताई जाती है तो उनके मुख खुले के खुले रह जाते हैं। क्योंकि आज की शिक्षा पद्यति में उन सब बातों को सम्मलित करना फिजूल माना जाता है, जिनको पहले स्वस्थ मन, दृढ चरित्र, विकसित मस्तिष्क और मानव धर्म के लिए जरुरी समझा जाता था। आज ज्ञान नहीं सिर्फ जानकारी को आगे रख, रोजगार प्राप्ति को ही सर्वोपरि बना सारे मापदंड तय किए जाते हैं, पर विडंबना है कि फिर भी बेरोजगारी बढ़ती जा रही है ! याने ना माया मिली ना राम !

शनिवार, 1 सितंबर 2018

ताश, कुछ जाने-अनजाने रोचक तथ्य !

ताश, अच्छी है या बुरी यह बहस का विषय हो सकता है। पर सैंकड़ों वर्षों से यह आदमी का मनोरंजन करती आ रही है इसमें दो राय नहीं है। इसके  बावन पत्तों में बारह पत्ते, तीन पात्रों, बादशाह, बेगम और गुलाम को तो सभी जानते हैं पर अपने-अपने वर्ग के अनुसार उनकी खासियत और उनके अलग-अलग स्वभाव तथा चरित्र के बारे में कम ही जानकारी प्रचलित है। अच्छी ताशों की गड्डी बनाते समय इनके स्वरूप का पूरा ध्यान रखा जाता है...... ! 
  
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ताश एक ऐसा खेल है जो दुनिया भर में प्रचलित है। इसका उल्लेख 9वीं सदी के चीन में भी पाया गया है। जिसके बाद इसने 14वीं सदी के योरोप में प्रवेश करने के बाद सारी दुनिया को अपना बना लिया। ऐसा मानना है कि ''गंजिफा'' के रूप में 16वीं सदी में इसने भारत में प्रवेश किया। ताश जैसे इस खेल का धार्मिक और नैतिक महत्व था। इसके पत्ते गोलाकार होते थे। ये हैसियत के अनुसार कागज़, कडक कपडे, हाथी दाँत, हड्डी या सीप के बने होते थे। जिनमें 12 कार्ड होते थे जिन पर पौराणिक चित्र बने होते थे। इसका एक अन्य रूप भी होता था जिसमें 108 कार्डों 9 गड्डियों में रखा जाता था, प्रत्येक गड्डी सौर मण्डल के नव ग्रहों को दर्शाती थी। इसे नवग्रह-गंजिफा कहा जाता था। 


ताश की लोकप्रियता इसी से आंकी जा सकती है कि इसे तक़रीबन हर छोटा-बड़ा, व्यक्ति, भले ही खेलता न हो पर इसके बारे में थोड़ा-बहुत जानता जरूर है। यहां तक कि दृष्टि-बाधित लोगों के लिए ब्रेल लिपि के कार्ड भी मिलने लगे हैं। जैसे-जैसे इसकी लोकप्रियता बढ़ी वैसे-वैसे इसकी गुणवत्ता में भी बढ़ोत्तरी होती चली गयी। इन्हें विशेष कार्ड, प्लास्टिक या बहुत विशिष्ट प्रकार की शीट पर छापा जाने लगा फिर इसके रंग और चमक बढ़ाने के लिए इन पर वार्निश, लिनन, कैलेंडरिंग जैसे उपचार किए गए, जिससे इनके टूट-फूट और रख-रखाव में भी बढ़ोत्तरी हुई। इसके कोनों को आकार दिया गया। खेलते समय पकड़ने की सुविधा के लिए इनका आकार करीब-करीब हथेली के बराबर रखा जाता है। आज बड़े-बड़े होटलों, रईसों, शौकीनों द्वारा काम में लाई जाने वाली ताश बेशकीमती होती है।
  
मोटे-भारी कागज, गत्ते, या पतले प्लास्टिक से विशेष रूप से बने इसके हिस्सों को कार्ड या पत्ता कहा जाता है। एक गड्डी में इनकी संख्या बावन की होती है, जिसे पैक या डेक कहा जाता है। हर डेक के पीछे की ओर हरेक पत्ता एक ही रंग और डिजाइन का होता है। दूसरी तरफ उन्हें चार भागों, हुकुम, पान, ईंट और चिड़ी (Spade, Heart, Diamond and Club) में बांटा गया होता है। उनका इस्तेमाल खेल में एक सेट के रूप में किया जाता है। हर सेट में तेरह-तेरह पत्ते होते हैं। जिन पर एक से दस तक अंक और उस हिस्से के निशान बने होते हैं और ग्यारह-बारह-तेरह नंबरों की जगह गुलाम-बेगम-बादशाह की तस्वीरें बनी होती हैं। इन पत्तों से दुनिया भर में अनगिनत तरह के खेलों के साथ अन्य तरह का यथा जादूगरों द्वारा हाथ की सफाई, भविष्यवाणी, बोर्ड गेम, ताश के घर बनाने जैसे मनोरंजन के साथ-साथ जुआ भी बुरी तरह शामिल है।

इस बावन पत्तों के खेल में, जैसा कि माना जाता है, आज के समय में सबसे ज्यादा लोकप्रिय खेल ब्रिज, रमी और फ्लैश के हैं।रही पत्तों की बात तो इसके इक्के से लेकर बादशाह तक को तो सभी जानते हैं पर यह कम ही लोगों को पता होगा कि दहले के बाद की तीन तस्वीरें अपने आप में कुछ अलग जानकारी भी रखती हैं। इन पर योरोपीय संस्कृति का प्रभाव अभी भी है। ध्यान से देखें तो ये चारों अपने-आप में बिल्कुल जुदा, अलग और विभिन्न विशेषताएं लिए नजर आएंगे।
    
"हुकुम
बादशाह :- यह क़ानून का पालक, सख्त मिजाज, काले रंग को पसंद करने वाला और तलवार से न्याय करने वाला राजा है, जो इसकी तनी हुई तलवार बताती है। इसकी मूंछें इसके स्वभाव को प्रगट करती हैं। इसे इज़राईल के राजा, किंग डेविड को ध्यान में रख बनाया जाता है। 

बेगम :- अपने राजा के कृत्यों से यह दुखी रहती है, जो इसके चेहरे और काले कपड़ों से साफ झलकता है। इसके साथ जलती हुई शमा होती है जो बताती है कि यह रानी भी उसी की तरह घुल-घुल कर मिट जाएगी। इसके साथ एक फूल जरूर है पर वह भी मुर्झाया हुआ और पीछे की तरफ जो इसके दुख को ही प्रगट करता है।

गुलाम :- हुकुम का गुलाम। जैसा मालिक वैसा गुलाम। अपने मालिक के हुक्म का ताबेदार काले कपड़े और हाथ में हंटर धारण करने वाला। सख्त चेहरे वाला, किसी के बहकावे में ना आने वाला और सारे काम अक्ल से नहीं हंटर से करने वाला होता है। इसे कोई फुसला नहीं सकता।  

"पान"
बादशाह :- पान यानि दिल यानि कोमल ह्रदय का स्वामी। इसीलिये यह मूंछे भी नहीं रखता। यह मानवता का पूजारी, अहिंसक, धार्मिक और शांतिप्रिय स्वभाव का होता है। ऐसा होने पर भी बहुत सतर्क और कुशल नेतृत्व प्रदान करने वाला है। यह तलवार से नहीं बुद्धि से काम करता है। इसीलिये इसकी तलवार पीछे की ओर रहती है। इसे एलेक्जेंडर की खासियत दी जाने की कोशिश की जाती है। यह फ्रैंक्स के राजा शारलेमेन का प्रतिरूप माना जाता है। 

बेगम :- यह बहुत सुंदर, संतोषी स्वभाव, विद्वान पर कोमल ह्रदय तथा शांत स्वभाव वाली रानी है। इसके चेहरे से इसकी गंभीरता साफ झलकती है। हाथ का फूल भी इस बात की गवाही देता है। कोमल स्वभाव के बावजूद यह विदुषि है।

गुलाम :- पान का गुलाम भी अपने मालिकों की तरह शांत और नम्र स्वभाव वाला होता है। सादा जीवन बिताने वाला और प्रकृति प्रेमी है जो इसके हाथ में पकड़ी गयी पत्ती से स्पष्ट है। अनुशासन बनाए रखने के लिये छोटी-छोटी मूंछें रखता है।


"चिडी"
बादशाह :- यह तीन पत्तियों वाला, समझदार और अपने अधिकारों की रक्षा करने वाला राजा है। यह अपने को राजा नहीं सेवक मानता है। रौबदार मूंछों वाले इस राजा का भेद कोई नहीं जान पाता है। इसमें राजा अगस्तस या सीजर की खूबियों का ध्यान रखा जाता है। 

बेगम :- यह एक चतुर, चालाक तथा तीव्र बुद्धिवाली रानी है। तड़क-भड़क से दूर फूलों की शौकीन यह समस्याओं को साम, दाम, दंड़, भेद किसी भी तरह सुलझाने में विश्वास रखती है।

गुलाम :- चिड़ी का गुलाम यह सबसे चर्चित गुलाम है। गंवारों सा दिखने वाला, पगड़ी में पत्ती लटकाए सदा अपने बादशाह की चापलूसी करने में लगा रहता है। साधारण से कपड़े और गोलमटोल मूंछों को धारण करने वाला एक घटिया इंसान है।


"ईंट"
बादशाह :- यह राजा के साथ-साथ हीरों का व्यापारी भी है। हर समय धन कमाने की फिराक में रहता है। जिसके लिये कुछ भी कर सकता है। हाथ जोड़ कर ईमानदारी का दिखावा करता है, पर मन से साफ नहीं है। इसे हिंसा पसंद नहीं है पर एशो-आराम से रहना पसंद करता है।

बेगम :- यह भी अपने राजा की तरह धन-दौलत से प्रेम करने वाली, किसी के बहकावे में ना आनेवाली, कीमती कपड़े और गहनों से लगाव रखने वाली सदा पैसा कमाने की धुन में रहने वाली बेगम है।

गुलाम :- रोनी सूरतवाला तथा बिना मूछों वाला यह गुलाम सदा इसी गम में घुलता रहता है कि कहीं राजा से कोई और पुरस्कार या दान ना ले जाए। अमीर राजा का गुलाम है सो इसके कपड़े भी कीमती होते हैं। यह अपना काम बड़ी चतुराई से करता है।


भले ही ताश को मनोरंजन के लिए बनाया गया हो पर धीरे-धीरे इस पर जुआ हावी होता चला गया और इसकी बदनामी का मुख्य कारण तो बना ही इस खेल को इतना बदनाम कर गया कि समाज में इसे और इसको खेलने वालों को हिकारत की नजर से देखा जाने लगा। यह तो भला हो ब्रिज जैसे खेल का जिसे अंतराष्ट्रीय स्पर्द्धाओं में सम्मिलित होने के गौरव के साथ उसे खेलने वालों को भी सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। 

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