इस बारे में दो राय जरूर होंगी। बहुत से लोग असहमत भी होंगे, क्योंकि हजारों ऐसे उदाहरण हैं जब एक अकेली महिला ने अपने पूरे परिवार की जिम्मेदारी उठा उसे उज्जवल भविष्य दिया हो। पर मेरा हाल का ही एक अनुभव कहता है कि घर-परिवार में एक उम्रदराज पुरुष के होने से कुछ तो फर्क पड़ता ही है।
मेरा एक परिचित परिवार है। सक्सेनाजी का। सक्सेनाजी, उनकी पत्नी, दो लड़कियां जया और विजया तथा एक लड़का जय, जो मेरा जिगरी दोस्त है, बिल्कुल भाइयों जैसा। सक्सेनाजी ने नौकरी में रहते हुए ही सारी जिम्मेदारियां पूरी कर ली थीं। घर बन गया था। बड़ी लड़की का अच्छे परिवार में विवाह हो गया था और वह कनाडा जा बसी थी। छोटे जय की भी शादी हो गयी थी, प्रभू की कृपा से बिल्कुल सहज स्वभाव की घरेलू लड़की मिली थी जिसने सदा सास को माँ और ननद को बहन ही माना। जय भी अच्छे भविष्य की चाहत में सपत्निक विदेश चला गया। रही विजया जिसने कुछ पढने की ललक, कुछ परिस्थितियों, कुछ मनोदशा और शायद कुछ कुंठा की वजह से जो एक बार शादी से मना किया तो फिर उसे कोई मना नहीं पाया। पर अपनी मेहनत, लगन और काबिलियत के चलते वह सरकारी मुहकमें में आला अफसर के पद तक जा पहुंची।
सक्सेनाजी का घर में काफी दबदबा था। खुले दिलो-दिमाग के होने के बावजूद उन्हें अपनी संस्कृति, सभ्यता तथा संस्कारों से बहुत लगाव था। बेहद अनुशासन प्रिय भी थे। पर इधर बिमार रहने लग गये थे। पहले तो विजया किसी तरह घर, दफ्तर, अस्पताल में तारतम्य बनाए रखती थी पर बिमारी ज्यादा बढने पर जय ने बहन की कठिनाइयों को समझते हुए अपनी पत्नी और दोनों बच्चियों को भारत भेज दिया, खुद की और पत्नी की भावनओं, सुख-सुविधा की बली दे कर। जिससे विजया को कुछ राहत मिल जाए। इससे घर में थोड़ी रौनक लौट आई। बच्चियां सब को साथ बांधने का जरिया बन गयीं। घर भर की प्यारी। पर विजया को उनसे कुछ ज्यादा ही लगाव था। जान छिड़कती थी उन दोनों पर। उनके मुंह से शब्द निकलते बाद में थे उनकी मांग पहले पूरी हो जाती थी। विजया की जिंदगी की धुरी बन कर रह गयीं थी दोनों।
पर सब सदा एक जैसा नहीं रहता, चाहे बाकि कुछ थम भी जाए पर समय अपनी मंथर पर निश्चित गति से सदा चलायमान रहता है। लम्बी बिमारी और काफी कष्ट सहने के बाद सक्सेनाजी का स्वर्गवास हो गया। बच्चियां भी बड़ी हो कालेज जाने लग गयीं। यहीं से आधुनिक सभ्यता ने टीवी और मोबाइल का रूप ले उनकी मासूमियत छीननी शुरु कर दी। कुछ अधिक आजादी लेने में अब कोई बाधा भी नहीं थी। दादी तो पहले भी कुछ नहीं कहती थी। अब तो मां और बुआ भी पुराने ख्यालातों की लगने लगीं। वही बुआ जो अपनी हथेली में दोनों को किसी नन्हें शावक सा संरक्षण देती रहती थी, अब उसी की बातें रास नहीं आने लगीं। बात-बात में तेज आवाज में विरोध करना, हर बात को काटने की कोशिश करना, हर हिदायत को हवा में उड़ाने को तत्पर रहना, आदतों में शुमार हो गया था। मां-बुआ के समझाने का असर ज्यादा देर टिकता नहीं था। आने-जाने, मिलने-जुलने वालों, दोस्त-रिश्तेदारों को इस बदलाव के साथ-साथ अपनी उपेक्षा साफ नजर आने लगी थी। सामने तो कोई कुछ नहीं कहता था पर पीठ पीछे बातें उठने लग गयीं थीं। लोगों का आना-जाना कम होने लगा था।
मेरे कानों में भी ऐसी बातें पड़ती रहती थीं। पर मुझे विश्वास नहीं होता था क्योंकि लोगों की आदत ही ऐसी होती है, बातें बनाने की। मेरा उनसे लगाव कुछ ज्यादा ही था, यह भी कारण था बातों पर विश्वास ना करने का। गोद में खेलते-खेलते बड़ी जो हूईं थीं। जब भी जाना होता तो पीठ से उतारना मुश्किल हो जाता था।
बड़े दिनों बाद इस बार जाना हुआ था। पर जाते ही धक्का लगा। उनका आचरण ऐसा था जैसे पेपर वाला या केबल वाला बिल ले कर आया हो। फिर भी मैंने बुलाने की कोशिश की, विजया ने भी कहा तब बिना टीवी से मुंह घुमाए एक नमस्ते उछाल दी। ऐसा नहीं था कि मैं उसी शहर में रहता हूं या अक्सर जाता रहता हूं। मन और भी खट्टा तब हो गया जब उनकी बिमार मां और थकी-हारी विजया ही मना करने के बावजूद पानी-वानी की व्यवस्था करती रहीं। पर दोनों टीवी छोड़ अपनी जगह से हिलीं तक नहीं। कुछ देर बैठ कर मैं चलने लगा तब भी कोई खास प्रतिक्रिया दिखाई नहीं दी, यह जानते हुए कि दूसरे दिन मैं वापस लौट रहा हूं। पता नहीं फिर कब आना हो पाता है।
सोचता हूं ऐसा क्यों? क्या यह विजया के अति प्यार-दुलार का नतीजा है? क्या सक्सेनाजी या जय का यहां ना होना इस धृष्टता की वजह है? या फिर तथाकथित आधुनिकता सारे रिश्तों को खा जाने पर तुल गयी है?
मेरा एक परिचित परिवार है। सक्सेनाजी का। सक्सेनाजी, उनकी पत्नी, दो लड़कियां जया और विजया तथा एक लड़का जय, जो मेरा जिगरी दोस्त है, बिल्कुल भाइयों जैसा। सक्सेनाजी ने नौकरी में रहते हुए ही सारी जिम्मेदारियां पूरी कर ली थीं। घर बन गया था। बड़ी लड़की का अच्छे परिवार में विवाह हो गया था और वह कनाडा जा बसी थी। छोटे जय की भी शादी हो गयी थी, प्रभू की कृपा से बिल्कुल सहज स्वभाव की घरेलू लड़की मिली थी जिसने सदा सास को माँ और ननद को बहन ही माना। जय भी अच्छे भविष्य की चाहत में सपत्निक विदेश चला गया। रही विजया जिसने कुछ पढने की ललक, कुछ परिस्थितियों, कुछ मनोदशा और शायद कुछ कुंठा की वजह से जो एक बार शादी से मना किया तो फिर उसे कोई मना नहीं पाया। पर अपनी मेहनत, लगन और काबिलियत के चलते वह सरकारी मुहकमें में आला अफसर के पद तक जा पहुंची।
सक्सेनाजी का घर में काफी दबदबा था। खुले दिलो-दिमाग के होने के बावजूद उन्हें अपनी संस्कृति, सभ्यता तथा संस्कारों से बहुत लगाव था। बेहद अनुशासन प्रिय भी थे। पर इधर बिमार रहने लग गये थे। पहले तो विजया किसी तरह घर, दफ्तर, अस्पताल में तारतम्य बनाए रखती थी पर बिमारी ज्यादा बढने पर जय ने बहन की कठिनाइयों को समझते हुए अपनी पत्नी और दोनों बच्चियों को भारत भेज दिया, खुद की और पत्नी की भावनओं, सुख-सुविधा की बली दे कर। जिससे विजया को कुछ राहत मिल जाए। इससे घर में थोड़ी रौनक लौट आई। बच्चियां सब को साथ बांधने का जरिया बन गयीं। घर भर की प्यारी। पर विजया को उनसे कुछ ज्यादा ही लगाव था। जान छिड़कती थी उन दोनों पर। उनके मुंह से शब्द निकलते बाद में थे उनकी मांग पहले पूरी हो जाती थी। विजया की जिंदगी की धुरी बन कर रह गयीं थी दोनों।
पर सब सदा एक जैसा नहीं रहता, चाहे बाकि कुछ थम भी जाए पर समय अपनी मंथर पर निश्चित गति से सदा चलायमान रहता है। लम्बी बिमारी और काफी कष्ट सहने के बाद सक्सेनाजी का स्वर्गवास हो गया। बच्चियां भी बड़ी हो कालेज जाने लग गयीं। यहीं से आधुनिक सभ्यता ने टीवी और मोबाइल का रूप ले उनकी मासूमियत छीननी शुरु कर दी। कुछ अधिक आजादी लेने में अब कोई बाधा भी नहीं थी। दादी तो पहले भी कुछ नहीं कहती थी। अब तो मां और बुआ भी पुराने ख्यालातों की लगने लगीं। वही बुआ जो अपनी हथेली में दोनों को किसी नन्हें शावक सा संरक्षण देती रहती थी, अब उसी की बातें रास नहीं आने लगीं। बात-बात में तेज आवाज में विरोध करना, हर बात को काटने की कोशिश करना, हर हिदायत को हवा में उड़ाने को तत्पर रहना, आदतों में शुमार हो गया था। मां-बुआ के समझाने का असर ज्यादा देर टिकता नहीं था। आने-जाने, मिलने-जुलने वालों, दोस्त-रिश्तेदारों को इस बदलाव के साथ-साथ अपनी उपेक्षा साफ नजर आने लगी थी। सामने तो कोई कुछ नहीं कहता था पर पीठ पीछे बातें उठने लग गयीं थीं। लोगों का आना-जाना कम होने लगा था।
मेरे कानों में भी ऐसी बातें पड़ती रहती थीं। पर मुझे विश्वास नहीं होता था क्योंकि लोगों की आदत ही ऐसी होती है, बातें बनाने की। मेरा उनसे लगाव कुछ ज्यादा ही था, यह भी कारण था बातों पर विश्वास ना करने का। गोद में खेलते-खेलते बड़ी जो हूईं थीं। जब भी जाना होता तो पीठ से उतारना मुश्किल हो जाता था।
बड़े दिनों बाद इस बार जाना हुआ था। पर जाते ही धक्का लगा। उनका आचरण ऐसा था जैसे पेपर वाला या केबल वाला बिल ले कर आया हो। फिर भी मैंने बुलाने की कोशिश की, विजया ने भी कहा तब बिना टीवी से मुंह घुमाए एक नमस्ते उछाल दी। ऐसा नहीं था कि मैं उसी शहर में रहता हूं या अक्सर जाता रहता हूं। मन और भी खट्टा तब हो गया जब उनकी बिमार मां और थकी-हारी विजया ही मना करने के बावजूद पानी-वानी की व्यवस्था करती रहीं। पर दोनों टीवी छोड़ अपनी जगह से हिलीं तक नहीं। कुछ देर बैठ कर मैं चलने लगा तब भी कोई खास प्रतिक्रिया दिखाई नहीं दी, यह जानते हुए कि दूसरे दिन मैं वापस लौट रहा हूं। पता नहीं फिर कब आना हो पाता है।
सोचता हूं ऐसा क्यों? क्या यह विजया के अति प्यार-दुलार का नतीजा है? क्या सक्सेनाजी या जय का यहां ना होना इस धृष्टता की वजह है? या फिर तथाकथित आधुनिकता सारे रिश्तों को खा जाने पर तुल गयी है?
7 टिप्पणियां:
"क्या बच्चों को शिष्टाचार सिखाने के लिए घर में किसी पुरुष का होना जरूरी है?"
nahin bilkul nahin ||
सम्पूर्ण व्यक्तित्व तो दोनों से ही बनता है।
संस्कार शिष्टाचार माँ दादी बुआ कोई भी सिखा सकता है बस आप बच्चो के साथ बदलते रहे ये सब उनके दोस्त बन कर करीये हर समय हुक्म चलाने से बच्चे विद्रोही स्वभाव की हो जाती है |
माँ तो संपूर्ण पाठशाला होती है। पर ममत्व कभी-कभी गलतियों की अनदेखी भी कर जाता है। इसीलिए पिता का थोड़े अनुशासन का बना रहना जरूरी होता होगा।
प्रवीणजी से सहमत हूं।
Pravin ji aur aapki baat se bikul sehmat hu,jaha stri sehenshilta sikhati hai to purush anushasan.
sampoorn vyaktitva k vikas k liye,dono ka hona zaruri hai.
Anshumala ji,hukm chalane ki baat nh hai,par kahin bache vidrohi na ho jaye is dar se unhe anushasit hi na kare.ye to aur bhi zyada nuksandeh ho jaega.
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