बुधवार, 6 जुलाई 2011

शर्म, हया, मर्यादा, सामाजिक सरोकार को रखने के लिए तो अब "ताक" पर भी जगह नहीं बची है।

देखा या महसूस तो आप सब ने भी किया ही होगा। विषय-वस्तु ही ऐसी है कि ध्यान जाने-अनजाने जरूर चला ही जाता है कि जितने भी दृश् माध्यम हैं उनमें जैसे होड़ लगी हुई है मानव देहों को उनके प्राकृतिक रूप में पेश करने की। जबसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को स्वतंत्रता मिली है तब से मानसिक अभिव्यक्ति की जगह दैहिक अभिव्यक्ति का चलन कुछ ज्यादा ही जोर पकड़ता जा रहा है। कहीं गलती से किसी ने इसे अश्लील करार दे दिया तो उसे ही अश्लीलता की परिभाषाएं समझाई जाने लगती हैं। उसे ही बताया जाने लगेगा कि देखने वाले की आंखों और दिमाग में ही फितूर होता है जो कला को ऐसी दृष्टि से देखता है। अभी एक जिद्दी चित्रकार को लोग भूले नहीं होंगे, जिसकी कला को कुछेक चीजें छोड़ प्रकृति में और कुछ नजर ही नहीं आता था।

ऐसे समय में फिल्मों की तो क्या ही बात करें जहां भट्टों जैसों की बिरादरी ने पहले से ही भट्ठा बैठा कर रखा हुआ था। अब तो अपने आप को बुद्धिजीवी और आम फिल्म निर्माता से दो सीढी ऊपर समझने वाले निर्माता-निर्देशकों को भी विवादास्पद कहानियों या घटनाओं को फिल्माने के अलावा कुछ और नहीं सूझता। जब कि इनकी ऐसी “कलाकृतियां” दो दिनों में औंधे मुंह गिरती रहती हैं। ऐसा नहीं है कि इस सब का विरोध नहीं होता हो पर कुछ लोग इतने मगरूर होते हैं कि वे अपने सामने किसी को कुछ समझते ही नहीं। यहां तक कि उन्हें भी नहीं जिन्होंने उनके लिए आसमान के सितारे तक जमीन पर ला दिए हों। ऐसे महानुभाव मुट्ठी भर चापलूसों को पूरा भारत समझ ऐसा आभास देते हैं जैसे उनकी कृति ना भूतो ना भविष्यते हो। इनके स्वभाव में इतना गरूर आ जाता है कि यह कहने से भी नहीं चूकते कि जिसको देखना है वह देखे जिसे पसंद नहीं हो वह ना देखे। हम तो ऐसी ही बनाएंगे। ऐसे लोगों की किस्मत से यदि एक बार कीचड़ में कमल खिल जाए तो ये कीचड़ को ही सदा के लिए अपनी कर्म भूमि बना लेते हैं और फिर उसी गंदगी का हिस्सा बन वैसी ही गंदगी फैलाना शुरु कर देते हैं। ऐसा करते हुए ना तो परिवारों का ख्याल आता है ना ही समाज का, देश की बात तो छोड़ ही दें।

ऐसे लोगों की कुछ लचर सदाबहार दलीलें होती हैं, जैसे भाई हम तो वही बनाते हैं जिसे जनता देखना पसंद करती है। या हम लीक से हट कर फिल्म बनाते हैं जिसमें समाज की सच्चाई को पेश किया जाता है या हम वही दिखाते सुनाते हैं जैसा रोज व्यवहार होता है या जैसी भाषा रोज काम में लाई जाती है। सबसे ज्यादा छूट लेने के लिए जो दलील दी जाती है वह है कहानी की मांग। इसके अंतरगत आप कुछ भी दिखा सुना सकते हैं ऐसा इन तथाकथित कलाकारों का कहना है। ख़ास कर उन युवतियों का जो इस "शो- बिजनेस" की चकाचौंध से पूरी और बुरी तरह प्रभावित होती हैं। पर्दे पर दिखने, रातों-रात अमीर और चर्चित होने के लिए वे अच्छे-बुरे में फर्क ही नहीं करना चाहतीं। उनके अनुसार यदि वे निर्देशक का कहा ना माने तो कहानी की आत्मा (जो कहीं होती ही नहीं) का नर्कवास होने का खतरा पैदा हो जाता है।

आजकल फिल्मोँ की देखादेखी अदूरदर्शन भी उसी राह चलवा दिया गया है। फिल्मों के लिए तो, चाहे कहने के लिए ही, एक कमजोर सी बाधा सेंसर के रूप में है तो सही और फिर उसे देखने के लिए कुछ जतन भी करने पड़ते हैं, पर टीवी तो पूरी तरह से उच्श्रृंखल है। ना कोई ड़र ना भय नाही कोई सामाजिक सरोकार और सबसे बड़ा खतरा कि उसकी सीधी पैठ घर के अंदरुनी कमरे तक है। उसके उल्टे-सीधे विज्ञापन, बिना सिर पैर के सीरीयल यहां तक कि उसकी खबरों ने भी एक अदृश्य हौवे "टी आर पी" क चक्कर में कोई कसर नहीं छोड़ी है बंटाधार करने में।

अब आप अखबारों को ही उठा लें। ऐसी-ऐसी खबरें, ऐसी-वैसी तस्वीरें कि भले घर-परिवारों को सोचना पड़ रहा है कि इसे लेना बंद ही कर दें तो घर के सदस्य एक दूसरे के सामने शर्मिंदगी से तो बचें। मिसाल के तौर पर आप "टाइम्स आफ इंडिया" का किसी भी दिन का अखबार उठा कर देख लें मेरे बात समझ में आ जाएगी।

इस घोर धन-युग में हर चीज पैसे को मद्देनज़र रख कर, की, चलाई या बनाई जा रही है। शर्म, हया, मर्यादा, सामाजिक सरोकार को रखने के लिए तो अब ‘ताक’ पर भी जगह नहीं बची है।

17 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

शरीर, मन और बुद्धि में गड्डमगड्ड हो रही है।

ब्लॉ.ललित शर्मा ने कहा…

प्रवीण जी से सहमत, सब गड्ड-मड्ड हो रहा है।

ऐसे ही चलेगी अब दुनिया। कुछ नहीं बदलने वाला।

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

आपके विचारों जैसे ही मेरे विचार भी हैं,
रखता हूँ :
(१)
हो जाती जब कोई उलझन
होने लगती जब है अनबन
पड़ जाती रस्ते में अड़चन
आती संबंधों में जकड़न
खोता समाज में जब बचपन
होने लगता युग परिवर्तन
आदर्शों का उत्थान पतन
देखा करते निर्लज्ज नयन
शिक्षित होकर होते निर्धन
हो रही व्यर्थ एजुकेशन
-- ऐसे में जलता है तनमन
व्याकुलता से झन झन झननन।

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

(२)
खुद को पावरफुल कहता मन
मानता नहीं किंचित वर्जन
मैं उल्लंघन बो लता जिसे
मन करे उसी का आलिंगन
कल्पनाशील कितना हैं मन
हर दम करता रहता चिंतन
बाहों में भरके नंग बदन
शय्या पर करता रहे शयन
संबंधों में होती जकड़न
भागा-भागा फिरता है मन
-- तब नहीं मानता कोई बहन
कामुकता में, झन झन झननन।

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

(३)
कर सको आप तो करो श्रवन
सभ्यता सनातन का कृन्दन
चिंता चिंतन सत सोच मनन
मर गया हमारा संवेदन
कर रही विदेशी कल्चर
घर की परम्पराओं का मर्दन
अब नहीं रहे सत भाव
ना माटी ही माथे का चन्दन
देहात शहर बन रहे और
बन रहे शहर नेकिड लन्दन
-- होता मर्यादा-उल्लंघन
पीड़ा होती झन झन झननन।

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

(४)
जब समाचार पत्रों को भी
घर में छिपकर पड़ता यौवन
छपते अवैध संबंधों पर
झूठे सच्चे जब अंतरमन
जब करे दूसरे मज़हब का
कोई हुसैन नंगा सर्जन
गीतों की धुन पर जब बच्ची
करती है कोई फूहड़पन
एडल्ट फिल्म को देख करे
बच्चा जब बहना को चुम्बन
-- हो जाते खुद ही बंद नयन
पीड़ा होती झन झन झननन।

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

(५)
विलुप्त हुआ परिवार विज़न
कमरे-कमरे में टेलिविज़न
जो भी चाहे जैसे कर ले
चौबीस घंटे मन का रंजन
सबकी अपनी हैं एम्बीशन
अनलिमिटेशन, नो-बाउंडएशन
फादर-इन-ला कंसल्टेशन
इंटरफेयर, नो परमीशन
बिजली पानी चूल्हा ईंधन
न्यू कपल सेपरेट कनेक्शन
--पर्सनल लाइफ पर्सनल किचन
पीड़ा होती झन झन झननन।

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

(६)
बच्चे बूढ़े इक्वल फैशन
इक्वल मेंटल लेवल नैशन
बच्चे तो जीते ही बचपन
बूढों में भी बचकानापन
डेली रूटीन सीनियर सिटिजन
वाकिंग, लाफिंग, वाचिंग चिल्ड्रन
वृद्धावस्था पाते पेंशन
फिर भी रहती मन में टेंशन
एँ! ये कैसी एजुकेशन
आंसर देंगे जब हो ऑप्शन
-- है रेपर नोलिज नंबर वन
पीड़ा होती झन झन झननन।

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

(७)
सत्ता पाने को नेतागन
जनता में करते ज़हर वमन
चाहे समाज टूटे-बिखरे
करने को रहते परिवर्तन
जब सत्ता में उत्थान पतन
होता रहता पिस्ता निर्धन
जब देश चुनावों में रहता
कितना व्यर्थ होता है धन
हा! राजनीति में घटियापन
बन रहे 'दलित', फिर से हरिजन
-- गांधी पर जब सुनता अवचन
पीड़ा होती झन झन झननन।

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

(८)
जब होता हो सब कोनो से
विकृत कल्चर का अतिक्रमण
बंदी हो जाए समाज
कुछ भ्रष्ट चिंतकों के बंधन
करने लागे कोई विरोध
जब सरस्वती तेरा वंदन
उदघोष मातरम् वन्दे का
जब बोले नहीं यहाँ रहिमन
हम करें संधि लेकिन दुश्मन
सीमा पर करता हो 'दन-दन'
-- तब क्रोध किया करता क्रंदन
पीड़ा होती झन झन झननन।

प्रतुल वशिष्ठ ने कहा…

(९)
स्कूलों के एन्युल फंक्शन
नैतिकता का कर रहे वमन
टैलेंट नाम पर विक्साते
मो... डलिंग केटवोक फैशन
जब भक्ति नाम पर हो प्रेयर
और देशभक्ति को जन-गन-मन
शिष्टता नाम पर जब टीचर
बनने को कहता हो मॉडर्न
गुरु करे नहीं जब शिष्यों का
जीवन उपयोगी निर्देशन
-- अंतर्मन करता रहे रुदन
पीड़ा होती झन झन झननन ।
(१०)
फायर जैसी फिल्मों में जब
खोखला दिखाते हैं रिलिजन
कर देते भ्रष्ट तरीके से
वर्जित दृश्यों का उदघाटन
जब जन की गुप्त समस्या पर
मोटे चश्मे से हो दर्शन
मिल जाए कथित विद्वानों का
सहयोग समर्थन अपनापन
होती है मन में तभी चुभन
क्यों सही नहीं होता चिंतन
-- आँखों में ध्वंसक उठे जलन
पीड़ा होती झन झन झननन॥

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

प्रतुल जी,
अब क्या कहूं? जो नही कह सका था उसे भी आपने सामने ला दिया। अपने आस-पास जो कुछ भी ऐसा-वैसा होता है उसे देख सुन कर मन को आक्रोशित होने से कहां रोका जा सकता है। सच कहूं तो बच्चों से बचपना छिनते देख उन पर दया तथा उनके जनकों पर तरस और क्रोध आता है जो अपने अधूरे अपूर्ण सपनों, दमित इच्छाओं को बच्चों की मासूमियत की कीमत पर पूरा करने की कोशिश करते हैं और जाने अनजाने बच्चे की विफलता से उसके कोमल मन में कुंठा को स्थान देने का पाप भी।

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

प्रवीण जी, ललित जी,
क्या विरोध में "तूती" जैसी आवाज भी नहीं उठ सकती। कभी-कभी रात में झिंगुर की या घड़ी की टिक-टिक भी तो गहरी नींद तुड़वा देती है।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस उत्कृष्ट प्रवि्ष्टी की चर्चा आज शुक्रवार के चर्चा मंच पर भी की गई है!
यदि किसी रचनाधर्मी की पोस्ट या उसके लिंक की चर्चा कहीं पर की जा रही होती है, तो उस पत्रिका के व्यवस्थापक का यह कर्तव्य होता है कि वो उसको इस बारे में सूचित कर दे। आपको यह सूचना केवल उद्देश्य से दी जा रही है!

रविकर ने कहा…

प्रतुल जी को bhi बधाई ||
अच्छा विषय |
पूर्ण समर्थन ||

वाणी गीत ने कहा…

अपने अधूरे सपनों के लिए बच्चों की बलि चढाते लोग ...
बस कसमसा कर रह जाएँ , कर क्या सकते हैं ...
जागरूक नागरिक की व्यथा !

कविता रावत ने कहा…

शर्म, हया, मर्यादा, सामाजिक सरोकार को रखने के लिए तो अब ‘ताक’ पर भी जगह नहीं बची है।
. .bilkul sahi baat.. yahi sabkuch har garah dekh raha hai..... chintansheel prastuti ke liye aabhar!

विशिष्ट पोस्ट

दीपक, दीपोत्सव का केंद्र

अच्छाई की बुराई पर जीत की जद्दोजहद, अंधेरे और उजाले के सदियों से चले आ रहे महा-समर, निराशा को दूर कर आशा की लौ जलाए रखने की पुरजोर कोशिश ! च...