हिंदुस्तान में मुगलों का वह प्रारंभिक दौर था। बाबर के बाद हुमायुं ने शासन की बागडोर संभाली तो थी पर शेरशाह से हार कर उसे भागते-छुपते रहना पड़ रहा था। तमाम मुश्किलातों को झेलने, दर-दर की ठोकरें खाने के बाद फिर उस पर एक बार
किस्मत मुस्कुराई और सन 1555 में वह फिर एक बार बादशाह बना पर सिर्फ साल भर के लिए। 1556 में एक दुर्घटना में उसकी मौत हो गयी। उसकी पत्नी हाजी बेगम ने नौ साल बाद 1565 में उसका मकबरा बनवाना शुरु किया। इसका सारा खाका फारस के मशहूर वास्तुकार तथा भवन निर्माता 'मिरक मिर्जा गियात' द्वारा तैयार किया गया था।
उस समय मुगलों के खजाने की माली हालत उतनी सुदृढ नहीं थी सो किफायत को मद्देनजर रख इसका निर्माण लाल बलुआ पत्थरों से करवाया गया जिन्हें आगरा के पास के तंतपुर नामक स्थान से लाया जाता था। वैसे सुंदरता को बनाए रखने के लिए सफेद और काले संगमरमर का भी कुछ मात्रा में प्रयोग किया गया है जो राजस्थान के मकराना से आता था। इसकी बनावट फारसी वास्तुकला से प्रेरित है। यह दुमंजिला चौकोर ४२.5 मीटर ऊंचा मकबरा एक सुंदर बगीचे के बीच ऊंचे चबु
तरे पर बना हुआ है। पूरे बगीचे को पानी की नालियों द्वारा फूलों से सजे चार सुंदर भागों में बांटा गया है। इसके अष्टभुजाकार मध्य कक्ष में स्मारक कब्र है। उसी के नीचे असली कब्र है जहां हिंदुस्तान का शहंशाह वर्षों से सोया हुआ है। इस मकबरे की सबसे बड़ी खासियत इसका दुहरा गुम्बद है। जिसके चारों ओर स्तंभयुक्त छतरियां बनी हुई हैं। यद्यपि सिकंदर लोदी का मकबरा पहला ऐसा था जो किसी बगीचे के बीच बनाया गया हो पर हुमायुं के मकबरे से यह प
रंपरा चलन में आयी जिसका सबसे विशिष्ट उदाहरण ताजमहल है। जो पूर्णतया हुमायुं के मकबरे की तर्ज पर बनाया गया है। जो आज दुनिया भर में मशहूर तथा एक तरह से भारत की पहचान बन गया है। इन दोनों मकबरों में एक और समानता है। दोनों ही प्रेम में समर्पण की अमर निशानियां हैं। जहां हुमायुं के मकबरे को, उसके प्रति पूर्ण रूप प्रति पूर्ण रूप से समर्पित उसकी बेगम ने पैसों की कमी के बावजूद, पूरा करवाया। वहीं अपनी बेगम की याद को अमर करने के लिए शाहजहां ने ताजमहल के रूप में अपने प्रेम को मूर्त रूप दिया।
हुमायुं का मकबरा दिल्ली में निज़ामुद्दीन रेलवे स्टेशन के पास मथुरा रोड़ और लोदी रोड़ के चौराहे के नजदीक स्थित है। इसके अंदर जाने के लिए दो ऊंचे प्रवेश द्वार हैं जो इसकी दक्षिण और पश्चिम दिशा में स्थित हैं। वैसे आजकल पश्चिम वाला द्वार ही काम में लाया जाता है। इसके निर्माण में उस जमाने में पन्द्रह लाख रुपये का खर्च आया था।
अभी तक इस खूबसूरत स्मारक का प्रचार उतना नहीं हो पाया था। इसकी तकदीर भी हुमायुं की तरह ही रही थी।
कुछ उपेक्षित, कुछ अनजानी। यहां तक की अधिकांश दिल्ली निवासी भी इसके दीदार को नहीं आते थे। इसकी किस्मत ने अभी पिछले दिनों तब पलटा खाया जब अमेरिका के राष्ट्पति ओबामा ने अपनी भारत यात्रा पर अपना कुछ समय यहां बिताया (साथ के विडीयो में उनकी झलक देखी जा सकती है ) . उसके बाद रातों-रात इसकी ख्याति देश-विदेश में ऐसी फैली कि अब यहां लोगों का तांता लगा रहता है।
अभी इसकी सारी देख-रेख श्री राकेश झींगन जी के कुशल निर्देशन में है। उन्हीं की मेहनत और अपने काम के प्रति समर्पण का नतीजा है कि इसके सुंदर बगीचों के रख-रखाव के कारण यह स्मारक एकाधिक बार सर्वश्रेष्ठता का पुरस्कार प्राप्त कर चुका है।
18 टिप्पणियां:
जानकारीपूर्ण पोस्ट, आभार।
sunder jaan kari mili aapke blog per
लाजवाब पोस्ट। इन्फ़ोर्मेटिव।
लाजवाब पोस्ट। इन्फ़ोर्मेटिव।
अच्छी जानकारी रही
उम्दा जानकारी
नयी जानकारी नए दृष्टिकोण के साथ .....आपका आभार
जानकारी देती अच्छी पोस्ट
काफी उम्दा जानकारीपूर्ण आलेख.... आभार
बहुत बढ़िया रही यह जानकारी देती हुई पोस्ट!
ताज महल बनने से पहले ' मांडव' जो मध्य प्रदेश में है वहाँ भी एक मकबरा बना हैं जो ताजमहल का हु -ब -हु नकल हैं जो ताजमहल से पहले बना हैं यानि ताजमहल उसकी नकल है .पर आज उसका ख्याल रखने वाला कोई नही हैं ......
दर्शन जी ने सही कहा...
---वास्तव में तो ताजमहल कभी बना ही नहीं ...वह तो जयपुर के राजा जैसिंह का महल व शिव मंदिर-तेजोमहालय- था...पहले से ही बना हुआ .उसी को रीमाडलिंग की गयी .तो सारी तुलना आदि व्यर्थ है...
श्याम गुप्ताजी
दिल्ली के कुतुब इलाके की इमारतों, स्मारकों के साथ भी ऐसी ही बातें सामने आई हैं पर कोई खुल कर नहीं बोलता है। कहते हैं कि कुतुब भी वेधशाला का अंग थी। पर एक बात जो संशय में ड़ालती है, ताज को लेकर, कि यदि यह शिव मंदिर था तो एक अलग धर्म को मानने वाला, वह भी राष्ट्र का बादशाह उसे कब्रगाह क्यों बनाएगा?
बिलकुल नयी और सार्थक ऐतिहासिक जानकारी देनेवाला लेख.......साधुवाद स्वीकारें
अच्छी पोस्ट।
bilkul nayee jaanakaari.
dhanywaad
Sahi mayno me ye taj mahal se bi zyada khoobsurat hai
Aap sab ko haardik dhanywaad.
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