सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

ऐसी मनस्थिति कब तक बनी रहेगी

शुक्रवार २५ फरवरी, दिल्ली से मुम्बई जाने वाली इंडिगो कम्पनी की उड़ान में एक तमाशा हो गया। उड़ान पहले से ही कोहरे की वजह से अपने निश्चित समय से एक घंटा लेट हो चुकी थी। नौ बजे के करीब जब उड़ने को तैयार हुई तभी उसके दरवाजे फिर खोल दिए गए। क्योंकि एक अधेड़ पुरुष को जहाज की चालाक एक महिला होने क कारण घबडाहट हो गयी थी।
पूरा ब्योरा इस तरह है कि जैसे ही प्लेन में औपचारिक घोषणा के साथ पायलट का नाम बताया गया वैसे ही एक अधेड़ पुरुष ने बडबडाते हुए अपने पड़ोसी को कहना शुरू कर दिया "मरना है क्या ? घर तो संभलता नहीं, प्लेन क्या संभलेगा ?
फिर उसने एयर होस्टेज को बुलाया और प्लेन की महिला पायलट होने पर आपत्ती जताई। बहस-बाजी करीब चालीस minat tak chalatee rahii जिससे दुसरे यात्रियों में अंसतोष फैलने लगा।
प्लेन तभी उड़ पाया जब उस मुसाफिर को प्लेन से उतार उसका असबाब उसके हवाले कर दिया गया।
* हिंदी के अस्त्र-शस्त्र धोखा दे रहे हैं

गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011

व्यक्ति पूजा घातक भी हो सकती है '२'

13 मे 1931 को इंड़ियाना मे एक बच्चे का जन्म हुआ। नाम था उसका जेम्स वारेन 'जिम' जोंस। उस समय किसे पता था कि '13' तारीख को जन्मने वाला यह बच्चा बड़ा हो कर दुनिया के सबसे बड़े नरसंहार का प्रणेता बनेगा। बड़े हो कर 1950 में वह कैलिफोर्निया में जाकर जिंदगी की जद्दोजहद में शामिल हुआ पर उसकी पहचान बनी जब उसने 1978 के मध्य में "प्युपिल-टेंपल" नामकी संस्था बनाई और उसका मुख्यालय सैन-फ्रैंसिस्को में स्थापित किया। और खुद उसका संस्थापक और लीड़र बना। वहां उसके हजारों अनुयायी बन गये। पता नहीं क्या खूबी थी उसके व्यक्तित्व में, क्या सम्मोहन था उसकी वाणी में कि कोई भी उसके कहने पर कुछ भी करने को तत्पर रहता था।

समय बीतता गया जोंस की ख्याति, दीन-दुखियों के मसीहा, दर्दमंदों के हमदर्द, अश्वेतों के रहबर और समाजवादी धारा के नायक के रूप में चारों ओर फैल गयी। लोग उसके विचार सुनने के लिए पागल हुए रहते थे। व्यक्ति पूजा का वह एक अद्वितीय उदाहरण बन गया था। उसने लोगों पर तरह-तरह के प्रयोग करने शुरु कर दिए थे।

नवम्बर 1978, उन दिनों वह अपने अनुयायीयों के मन से मौत का ड़र मिटाने का प्रयोग कर रहा था। इसके लिए वह उन्हें मीठा शरबत जहर के नाम पर पिलवाता रहा जिससे लोगों के मन से मौत का खौफ निकल जाए ।
17 नवम्बर की शाम को प्रवचन के बाद उसने सबको दूसरे दिन सुबह-सुबह मंदिर के प्रांगण में इकट्ठा होने का आदेश दिया। 18 नवम्बर की भोर बेला में सैंकड़ों स्त्री-पुरुष अपने बच्चों समेत अपने गुरु की वाणी सुनने घने जंगल में स्थित मंदिर के प्रांगण में आ जमा हुए। कुछ ही देर बाद जोंस वहां नमूदार हुआ और बगैर किसी भूमिका के उसने अपना फरमान सुना दिया "आज तुम सब को अपने दिलों से मौत का खौफ सदा के लिए मिटाने के वास्ते मरना होगा। यह मौत सम्मानजनक होगी। जितना मैं तुम्हें चाहता हूं यदि तुम भी मुझे उतना ही चाहते हो तो तुम्हें मेरा आदेश मानना पड़ेगा।"

भीड़ में ड़र की लहर दौड़ गयी। भय, आतंक, ड़र का साया साफ पसरा दिख रहा था। अधिकांश अपने गुरु का यह आदेश मामने को राजी नहीं थे। पूरा परिसर निस्तब्ध था। माओं ने अपने बच्चे कस कर अपनी छाती से चिपका लिए थे। तभी कहीं से किसी ने रोते हुए पूछा "पर हमारा कसूर क्या है? हमें क्यूं मरना है?"
कोई उत्तर नहीं दिया गया पर जोंस की मौत की तरह ठंडी आवाज गूंजी "शरबत ला कर पहले बच्चों को दिया जाए"।
मांएं चित्कार कर उठीं और अपने बच्चों को अपने में छिपाने की निष्फल कोशिश करने लगीं। इसे देख फिर आवाज आई "भलाई इसी में है कि खुद ही विष पी लो नहीं तो गोली के शिकार बना दिए जाओगे।"बात ना मानते देख पहरेदारों को इशारा हुआ और उन्होंने मांओं से जबरन बच्चों को छीन कर उनके मुंह में विष उड़ेल दिया। बाकियों के लिए भी कोई विकल्प नहीं था। कुछ ही देर में पूरा परिसर सैंकड़ों लाशों से पट गया। यहां तक कि पालतु पशु-पक्षियों को भी नहीं छोड़ा गया। अंत में रेवरेंड़ जोंस ने खुद को भी गोली मार ली।

इस दिन के पहले जो दुखियों का मसीहा, दर्दमंदों का हमदर्द, समाजवादी धारा का नायक और अश्वेतों का रहबर समझा जाता था। उस दिन के बाद से उसकी एक ही पहचान बची थी भगवान से शैतान।

गायना का यह सामूहिक नरसंहार दुनिया का सबसे बड़ा 'Murder Mass Suicide" माना जाता है।

इन अभागे लोगों के साथ वहीं से गुजर रहे पांच लोग भी अपनी उत्सुकता के कारण मारे गये थे। जबकि उनका इस पंथ से कोई लेना-देना नहीं था।

मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

व्यक्ति पूजा बहुत घातक होती है

किसी भी व्यक्ति के प्रति समाज के किसी भी वर्ग का अंधनुकरण या समर्पण घातक होता है। इतिहास में ऐसे अनगिनत उदाहरण मौजूद हैं जब धर्म गुरुओं या राज नेताओं ने खुद अपने को पुजवा कर अपनी शक्ति बढा उसका दुरपयोग किया है। भेड़ों की तरह अपने अनुयायियों को अपनी वाणी से सम्मोहित कर उसे काल्पनिक संसार का सपना दिखा, अपनी बात मनवाने को अपना अनुकरण करने को बाध्य कर दिया है। फिर वह अनुयायी इंसान नहीं रह जाता एक वस्तु बन जाता है जिसका उपयोग कर्ता सिर्फ अपने हित को साधने में करने लगता है। अपने पीछे खड़ी भीड़ की ताकत दिखा वह कर्ता लोगों पर, समाज पर और तो और देश पर भी हावी होने का दुस्साहस करने लगता है।

कभी लोग किसी को पूज कर भगवान बना देते हैं कभी कोई खुद को पुजवा कर भगवान बन बैठता है। स्थितियां दोनों ही भयावह होती हैं। पर हम भी क्या करें हमें घुट्टी में घोंट-घोंट कर पिलाया गया है कि अपना जीवन सार्थक करने के लिए किसी की शरण में जाओ। वही तुम्हें सही राह दिखाएगा। सुखी हो तो मोक्ष मिलेगा दुखी हो तो त्राण। अब असुरक्षा की भावना, भावी का ड़र, रोज की कशमकश से छुटकारा पाने को बेताब किसी न किसी की शरण में जा पहुंचता है। वह शरण धार्मिक भी हो सकती है और राजनीतिक भी। वहां के भंवर में जा फंसने के बाद उसका अस्तित्व धीरे-धीरे लोप कर दिया जता है, कर्ता की सम्मोहिनी सत्ता उस पर काबिज हो जाती है। कभी-कभी वहां से उकता कर निकलने की कोशिश भी करता है तो उस मकड़ी के जाले से उसकी मुक्ति नहीं हो पाती। उसके दिमाग पर ऐसा असर डाल दिया जाता है कि अपने गुरु पर कितने आरोप भी सिद्ध हो जाएं अनुयायी विश्वास नहीं करता। अभी हाल ही के दिनों में "चैनलाई स्वयंभू भगवानों" पर कितने ही आरोप प्रमाणित हुए पर भक्तों की आंखें कहां खुलीं।

अभी भी दुनिया में हताश-निराश लोगों की भगवान में आस्था है। वह उसकी शरण में जाता भी है परंतु तुरंत राहत ना मिल पाने की वजह से वह इन कलयुगी भगवानों के चक्कर में फंस जाता है जिन्होंने बड़े ही सुनियोजित तरीके से अपना जाल फैलवा रखा होता है। यह व्यक्ति पूजा धार्मिक लबादा ओढे रहती है। जिसकी आड़ में तमाम अधार्मिक कर्म प्रशय पाते हैं।

व्यक्ति पूजा के दुसरे केंद्र राजनीतिक खेमे में चरण वंदना से खेल शुरु करवाया जाता है। चरण स्पर्श, चाटुकारिता, स्तुति-गान कुछ ऐसी सीढियां हैं जिन पर अपने कुछ खास चहेतों को चढवा कर किसी दुर्लभ जगह काबिज करवा अन्य नये-पुराने पिछ्लगुओं पर अपनी धाक जमा अपने आप को जनता का भाग्य विधाता रोपित करने में कामयाबी हासिल कर लेते हैं । फिर शुरु होती है बाकियों में भी कुछ हासिल करने के लिए उस व्यक्ति विशेष की चापलूसी, जो कभी चप्पल उठा पीछे दौड़ने के रूप में सामने आती है तो कभी जूतों पर का कीचड़ साफ करके, या फिर अपने आका को खुश करने के लिए किसी की बेज्जती कर के। इन रीढ विहीनों का एक ही मकसद होता है कि वह व्यक्ति विशेष किसी भी तरह अपनी नजरें इनायत इन पर कर दे।

यह व्यक्ति पूजा शायद मनुष्य की उत्पत्ति के साथ ही उसके दिमाग में रोपित हो गयी है। इसके लिए किसी देश, धर्म या पंथ की सीमा नहीं है। वह व्यक्ति सिकंदर भी हो सकता है, बाबर भी, हिटलर भी, माओ भी गद्दाफी भी या हमारे "चैनलाई स्वयंभू भगवान" भी।

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* कल ऐसे ही एक गुरु की हिमाकत जिसने करीब हजार अनुयायिओं को एक ही समय में मौत का आलिंगन करने पर मजबूर कर दिया था।

शनिवार, 19 फ़रवरी 2011

मयखाने भी क्या-क्या गुल खिलाते हैं

एक बड़ी कंपनी की बस से चार-पांच युवक उतर कर एक बार में पीने को घुसे। उन्होंने जम कर पी। फिर वहीं एक लड़की से छेड़खानी शुरु कर दी। वहां बैठे एकमात्र बुजुर्ग ग्राहक ने हस्तक्षेप किया तो उसकी पिटाई की और उसे बाहर धकेल दिया।लड़की ने आकर बुजुर्ग को उठाया और पूछा ज्यादा चोट तो नहीं आई, कमबख्तों ने बहुत मारा है।कोई बात नहीं बुजुर्ग ने मुस्कुराते हुए कहा जब उन्हें अपनी जेबें खाली मिलेंगी तो नानी याद आ जाएगी। कंपनी की बस देखते ही मुझे उनके मालदार होने का विश्वास हो गया था क्योंकि वह कंपनी आज की तारीख में ही वेतन बांटती है। लड़की मुस्करायी और बोली, ईश्वर को धन्यवाद है कि आपकी पिटाई और मेरी एक्टिंग बेकार नहीं गयी।

(बहुत पहले आई एक फिल्म "शान" में जानी वाकर और बिंदिया गोस्वामी के रोल भी इसी ब्राजील की लघु कथा से लिए गये थे शायद।)

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बार से नशे में धुत झुमते-झामते बाहर निकलते हुए श्रीमानजी ने द्वारपाल से पूछा 'आज तक तुम्हें ज्यादा से ज्यादा टिप कितनी मिली है'?
'सौ रुपये सर' उसने जवाब दिया।
'बस! ये लो दो सौ रुपये, वैसे किसने तुम्हें सौ रुपये दिए थे?'
'कल आपने ही सर'

शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

"स्वयंप्रभा" रामायण का एक उपेक्षित पात्र

थके-हारे, निश्चित समय में सीता माता को ना खोज पाने के भय से व्याकुल, वानर समूह को उचित मार्गदर्शन दे, लंका का पता बताने वाली सिद्ध तपस्विनी "स्वयंप्रभा" को वाल्मीकि रामायण के बाद कोई विशेष महत्व नहीं मिल पाया। हो सकता है, श्री राम से इस पात्र का सीधा संबंध ना होना इस बात का कारण हो।

शबरी की तरह ही स्वयंप्रभा भी श्री राम की प्रतीक्षा, एकांत और प्रशांत वातावरण में संयत जीवन जीते हुए कर रही थी। परन्तु ये शबरी से ज्यादा सुलझी और पहुंची हुई तपस्विनी थीं। इनका उल्लेख किष्किंधा कांड के अंत में तब आता है, जब हनुमान, अंगद, जामवंत आदि सीताजी की खोज में निकलते हैं। काफी भटकने के बाद भी सीताजी का कोई सुराग नहीं मिल पाता है। सुग्रीव द्वारा दिया गया समय भी स्माप्ति पर आ जाता है। थके-हारे दल की भूख प्यास के कारण बुरी हालत होती है। सारे जने एक जगह निढ़ाल हो बैठ जाते हैं। तभी हनुमानजी को एक अंधेरी गुफा में से भीगे पंखों वाले पक्षी बाहर आते दिखते हैं। जिससे हनुमानजी समझ जाते हैं कि गुफा के अंदर कोई जलाशय है। गुफा बिल्कुल अंधेरी और बहुत ही डरावनी थी। सारे जने एक दूसरे का हाथ पकड़ कर अंदर प्रविष्ट होते हैं। वहां हाथ को हाथ नहीं सूझता था। बहुत दूर चलने पर अचानक प्रकाश दिखाई पड़ता है। वे सब अपने आप को एक बहुत रमणीय, बिल्कुल स्वर्ग जैसी जगह में पाते हैं। पूरा समूह आश्चर्य चकित सा खड़ा रह जाता है। चारों ओर फैली हरियाली, फलों से लदे वृक्ष, ठंडे पानी के सोते, हल्की ब्यार सब की थकान दूर कर देती है। इतने में सामने से प्रकाश में लिपटी, एक धीर-गंभीर साध्वी, आती दिखाई पड़ती है। जो वल्कल, जटा आदि धारण करने के बावजूद आध्यात्मिक आभा से आप्लावित लगती है। हनुमानजी आगे बढ़ कर प्रणाम कर अपने आने का अभिप्राय बतलाते हैं, और उस रहस्य-लोक के बारे में जानने की अपनी जिज्ञासा भी नहीं छिपा पाते हैं। साध्वी, जो की स्वयंप्रभा हैं, करुणा से मंजुल स्वर में सबका स्वागत करती हैं तथा वहां उपलब्ध सामग्री से अपनी भूख-प्यास शांत करने को कहती हैं। उसके बाद शांत चित्त से बैठा कर वह सारी बात बताती हैं।
यह सारा उपवन देवताओं के अभियंता मय ने बनाया था। इसके पूर्ण होने पर मय ने इसे देवराज इंद्र को समर्पित कर दिया। उनके कहने पर, इसके बदले कुछ लेने के लिए जब मय ने अपनी प्रेयसी हेमा से विवाह की बात कही तो देवराज क्रुद्ध हो गये, क्योंकि हेमा एक देवकन्या थी और मय एक दानव। इंद्र ने मय को निष्कासित कर दिया, पर उपवन की देख-भाल का भार हेमा को सौंप दिया। हेमा के बाद इसकी जिम्मेदारी स्वयंप्रभा पर आ गयी।

इतना बताने के बाद, उनके वानर समूह के जंगलों में भटकने का कारण पूछने पर हनुमानजी उन्हें सारी राम कथा सुनाने के साथ-साथ समय अवधी की बात भी बताते हैं कि यदि एक माह स्माप्त होने के पहले सीता माता का पता नहीं मिला तो हम सब की मृत्यु निश्चित है। स्वयंप्रभा उन्हें कहती हैं कि घबड़ायें नहीं, आप सब अपने गंतव्य तक पहुंच गये हैं। इतना कह कर वे सबको अपनी आंखें बंद करने को कहती हैं। अगले पल ही सब अपने-आप को सागर तट पर पाते हैं। स्वयंप्रभा सीताजी के लंका में होने की बात बता वापस अपनी गुफा में चली जाती हैं।

आगे की कथा तो जगजाहिर है। यह सारा प्रसंग अपने-आप में रोचक तो है ही, साथ ही साथ कहानी का महत्वपूर्ण मोड़ भी साबित होता है।

"पर पता नहीं, स्वयंप्रभा जैसा इतना महत्वपूर्ण पात्र उपेक्षित क्यूं रह गया।

गुरुवार, 17 फ़रवरी 2011

सामने वाले सौदेबाजों को क्यों नहीं सालता सरकार गिरने का डर ?

जब इतने बड़े देश का मुखिया दीन-हीन बन कर ऐसी भाषा का प्रयोग करे जिसमें पूरी तरह हताशा, निराशा और कमजोरी झलकती हो तो देश की जनता कितनी निराश होगी कोई भी सोच सकता है।

देश का सबसे ताकतवर इंसान यह कहता है कि गठबंधन में समझौते करने पड़ते हैं, पर यह कैसा समझौता है कि आओ हमारी पार्टी की सरकार बनवाओ और इसके बदले में देश को लूट कर खा जाओ। यदि गठबंधन टूटने पर सरकार गिरने का ड़र आपको सालता है तो सामने वाले सौदेबाजों को भी तो मालुम है कि ऐसा होने पर वे कहीं के नहीं रहेंगे। बात तो तब होती जब आप उनके आगे झुकने से बेहतर उन्हें धमकी देते कि मैं किसी भी हालत में नाजायज मांगें स्वीकार नहीं करूंगा चाहे इसके लिए कोई भी कीमत क्यों ना चुकानी पड़े। इस पर यदि बात नहीं बनती तो फिर जनता के सामने सारी हकीकत रख फिर जनादेश के लिए चुनाव करवाना देश पर उतना भारी नहीं पड़ता जितना एक निरंकुश इंसान ने अकेले हड़प लिया। इस पर सारे देश के सामने आपकी छवि और निखर कर सामने आती।

भले ही ईमानदारी से गलती मान कर अपना पक्ष सही ठहराने की आपके द्वारा कोशिश की गयी हो पर यह सब बातें किसी के गले नहीं उतरी है। आपके सामने भ्रष्टाचार का नंगा नाच होता रहा और उसके कारण को जानते हुए भी मूक दर्शक बने रहना और फिर कहना कि मैं मजबूर था। सामने वाले ने आपको समझा दिया कि सब नियमानुसार हो रहा है और आपका आंख मूंद कर बैठ जाना। अरबों की हेरा-फेरी हो रही हो और अर्थशास्त्री होने पर भी भनक ना लगना। कोई कैसे विश्वास कर पाएगा इन बातों पर। फिर अब सारा दोष दूसरों पर मढना। गठबंधन की मजबूरियां गिनाना। अब आप ही बताएं कि यदि आप ही मजबूर और लाचार हैं तो ताकतवर और सक्षम कौन है?

बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

एक युवक ने जब महिला सौन्दर्य प्रतियोगिता जीती.

साल - 1932, स्थान - जरमनी का कार्ल स्वार्ड शहर, मौका - महिलाओं की सौंदर्य प्रतियोगिता का। उन दिनों प्रतियोगियों को बिना किसी पूर्व जांच के सीधे स्टेज पर पहुंच जाना होता था।

समयानुसार ताम-झाम के साथ प्रतियोगिता शुरु हुई। युवतियां स्टेज की एक तरफ से आतीं चहलकदमी के बाद दूसरी तरफ उतर जाती। जज अपनी-अपनी जगह पर बैठे हर प्रतियोगी को विभिन्न पहलुओं से आंकने और मुल्यांकन करने में लगे थे। युवती के मंच पर पदार्पण करते ही बड़ी रोचक शैली में उसका परिचय उपस्थित लोगों तक पहुंचाया जा रहा था।

करीब चालीस युवतियों की 'बिल्ली चाल' खत्म होने पर निर्णायक मंडल ने अपनी-अपनी अंक तालिका को मिलाया और कुछ देर मे सूई पटक सन्नाटे को तोड़ते हुए विजेता के नाम की घोषणा कर दी। तालियों की गड़गड़ाहट के बीच बेहद खूबसूरत, सुनहरे बालों वाली उस दिन की विजेता 'स्पोटेश कार्ल मारिशका' मंच पर नमूदार हुई। वह हर दृष्टि और हरेक की राय में उस दिन के खिताब की हकदार थी। उसने मंच पर आते ही दर्शकों और निर्णायक मंडल का अभिवादन किया। उसे ताज पहनाने के बाद दो शब्द कहने का आग्रह किया गया जिसे उसने सहर्ष स्वीकार कर माइक अपने हाथों में लिया और बोली "इस सम्मान को पा मैं बहुत गौर्वांन्वित हूं। किसी के लिए भी इस सम्मान को पाना गर्व का विषय हो सकता है"।
कुछ देर रुक कर वह फिर बोली "फिर भी एक सच्चाई आप सब को बताना मेरा फर्ज है। सच्चाई यह है कि मं लड़की ना हो कर लड़का हूँ " ।
इतना कह कर उसने अपने नकली बाल और स्त्रियोचित पोषाक उतार दी। अब लोगों के सामने एक सुंदर युवक खड़ा था। भौंचक्के दर्शक और आयोजक जब तक कुछ समझ पाते तब तक वह मंच से कूद कर नौ-दो-ग्यारह हो चुका था।

वैसे एक बार और भी एक पुरुष ने महिलाओं के लिए आयोजित सौंदर्य प्रतियोगिता को जीता है पर वह इस समानता के युग में आधिकारिक रूप से उस प्रतियोगिता में शामिल हुआ था।

तो महिलाओं का इस बारे में क्या विचार है ? :-)

सोमवार, 14 फ़रवरी 2011

घटनाएं, जिन्होंने विश्व प्रसिद्ध उपन्यासों को जन्म दिया

कथाकारों को अपनी रचनाओं के लिए अक्सर प्रेरणा समाज से ही मिलती है। आसपास का परिवेश, लोग, घटनाएं कहीं ना कहीं लेखक के लेखन में सहायक होती रही हैं। जैसे :-

एलेग्जेंड़र मिल्कर्क स्काटलैंड़ का रहने वाला एक नाविक था। अपने जीवनकाल में उसने ढेरों समुद्री यात्राएं कीं थीं। एक बार ऐसी ही एक यात्रा में उसका पोत दुर्घटनाग्रस्त हो सागर में डूब गया। किसी तरह बड़ी मुश्किल से उसने एक सुनसान द्वीप पर पहुंच कर अपनी जान बचाई। पर वहां से निकलने का कोई उपाय नहीं होने के कारण उसे वहां करीब साढे चार साल तक फंसा रहना पड़ा था। बाद में जब वह किसी तरह इंग्लैंड़ पहुंचा तो उसकी इस आपबीती को प्रसिद्ध लेखक ड़ेनियल ड़ेफियो ने सुना और इसी के आधार पर विश्व प्रसिद्ध उपन्यास "राबिनसन क्रूसो" का जन्म हुआ।
प्रसिद्ध लेखक लुई स्टेवेंसन ने अपने लोकप्रिय उपन्यास " स्ट्रेंज केस आफ डा. जेकल एंड मि. हाइड़" एक सच्ची घटना को आधार बना लिखा था। हुआ यूं कि एक बार एक गिरोह पुलिस के हत्थे चढा जिसके सदस्य नकाब पहन कर चोरियां किया करते थे। उनमें का एक सदस्य था, विलियम ब्रोड़ी, जो कि एक सभ्रांत नागरिक था। समाज में उसकी बहुत इज्जत थी। उसी के दोहरे व्यक्तित्व को आधार बना यह कथा रची गयी।

ऐसा ही एक और उपन्यास है "मादाम बोवारी"। जिसकी प्रेरणा स्रोत थी, डेल्फिन डेलामार नाम की उच्च घराने की एक बेहद खूबसूरत लड़की। महत्वाकंक्षा उसमें कूट-कूट कर भरी हुई थी। उसका एक ही उद्देश्य था, जीवन का भरपूर उपभोग करना। उसकी शादी एक डाक्टर से हुई थी, जो शहर से दूर गावों में रह कर जरूरतमंदों की सेवा करना चाहता था। डेलामार दिलफेंक युवती थी। उसके बहुतेरे पुरुष मित्र थे। फिर भी उसकी जिंदगी में सकून नहीं था। धीरे-धीरे वह कुंठा में डूबी रहने लगी और अंत में उसने आत्महत्या कर ली।
मशहूर लेखक गुस्ताओ फिलाबेर ने उसी की जिंदगी को आधार बना अपने उपन्यास की रचना कर डाली।

रविवार, 13 फ़रवरी 2011

यह "त्रिशंकु" कौन था ?

देवराज इंद्र इस गलत परंपरा से बहुत क्रोधित थे सो इसके निवारण हेतु उन्होंने सत्यव्रत को फिर नीचे की ओर ढकेल दिया। अब ऋषी के तपोबल और देव प्रकोप के कारण सत्यव्रत कहीं का ना रहा।

सत्ता और धन आज से नहीं हजारों-हजार साल से मनुष्य के दिमाग को विकृत करते आए हैं। फिर उस असंतुलित दिमाग ने  अपने स्वामी को अहम से भर सनकी बना अजीबोगरीब काम या फैसले  करने पर मजबूर
किया है। ऐसा ही एक चरित्र है   "त्रिशंकु"।    जिसका असली नाम था सत्यव्रत। सूर्यवंशी राजा सत्यव्रत। उस पर प्रभू की असीम कृपा थी। यश चारों ओर फैला हुआ था। सब ठीक-ठाक था पर उसे कुछ अनोखा करने की इच्छा सदा बनी रहती थी। अचानक एक दिन उसके दिमाग में एक कीडा कुलबुलाया और एक सनक ने जन्म लिया कि मुझे सशरीर स्वर्ग जाना है। बस फिर क्या था इस प्रयोजन के लिए उसने विशेष यज्ञ की तैयारी कर अपने कुलगुरु ऋषी वसिष्ठ को यज्ञ का संचालन करने को कहा। पर वसिष्ठ ने इस प्रकृति विरुद्ध कार्य को करने से इंकार कर दिया। राजा पर तो सनक सवार थी उसने ऋषी वसिष्ठ के पुत्रों के पास जा उनसे इस कार्य को संपन्न करवाने को कहा। पर वे भी इस गलत परंपरा को डालने को किसी भी प्रकार राजी नहीं हुए। समझाने पर भी राजा ने उनकी बात नहीं मानी और उन्हें बुरा-भला कहने लगा जिससे ऋषी पुत्रों को क्रोध आ गया और उन्होंने उसे चांडाल बन जाने का श्राप दे डाला। उसी क्षण राजा की कांति मलिन हो गयी और वह श्रीहीन हो गया। पर उसने भी हठ नहीं छोड़ा और उसी अवस्था में वह ऋषी विश्वामित्र के पास गया और सारी बात बता अपना यज्ञ पूरा करने की प्रार्थना करने लगा। उसका हाल देख ऋषी द्रवित हो गये और उन्होंने यज्ञ संचालित करने की स्वीकृति दे दी। यज्ञ में शामिल होने के लिए सारे ब्राह्मणों को आमंत्रंण भेजा गया पर वसिष्ठ पुत्रों ने यह कह कर आने से इंकार कर दिया कि ब्राह्मण कुल के हो कर वे किसी चांडाल के यज्ञ में भाग नहीं ले सकते जब कि वह यज्ञ भी एक ब्राह्मण द्वारा संचालित ना हो कर एक क्षत्रीय द्वारा किया जा रहा हो। उनके इन कटु वचनों से क्रुद्ध हो कर विश्वामित्र ने उन्हें भस्म हो जाने और अगले जन्म में चांडाल योनि में जन्मने का श्राप दे डाला। फिर उन्होंने यज्ञ पूरा किया और अपने तपोबल से राजा सत्यव्रत को सदेह स्वर्ग भिजवा दिया।

उधर देवराज इंद्र इस गलत परंपरा से बहुत क्रोधित थे सो इसके निवारण हेतु उन्होंने सत्यव्रत को फिर नीचे की ओर ढकेल दिया। अब ऋषी के तपोबल और देव प्रकोप के कारण सत्यव्रत कहीं का ना रहा।

कहते हैं आज भी वह धरती और आकाश के बीच त्रिशंकु बन लटका हुआ है।

मंगलवार, 8 फ़रवरी 2011

बाहर वाले भी हमारी बेवकूफी पर हंसते होंगे

स्विस बैंक के एक प्रबन्धक ने भारत की अर्थ व्यवस्था पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि भारत की जनता गरीब हो सकती है पर देश गरीब नहीं है। उसने आगे कहा कि वहां का इतना पैसा स्विस बैंकों में जमा है जिससे :-

# भारत सरकार 30 सालों तक बिना टैक्स का बजट पेश कर सकती है।

# 60 करोड़ नौकरियां वहां उपलब्ध करवा सकती है।

# दिल्ली से देश के हर गांव तक 4 लेन सड़क बनवा सकती है।

# बिजली की अनवरत सप्लाई की जा सकती है।

# वहां के हर नागरिक को साठ साल तक 2000 रुपये दे सकती है।

# ऐसे देश को किसी भी वर्ल्ड बैंक या कर्ज की कोई जरूरत नहीं पड़ सकती।

यह कहना था वर्ल्ड बैंक के एक जिम्मेदार अधिकारी का। जरा गंभीरता से सोचिये कि भ्रष्टता की यह कौन सी सीमा है। ऐसी कौन सी मजबूरी है सरकार पर या वह कौन सी ताकते हैं जिनके सामने किसी की हिम्मत नहीं पड़ रही कुछ करने की और उस धन को वापस लाने की।

शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2011

क्षीण होती जाती है स्पर्श शक्ति भी धूम्रपान से

धूम्रपान की ढेर सारी बुराइयों में एक यह भी है कि इससे शरीर की स्पर्श शक्ति भी क्षीण होती चली जाती है। अमेरिका के वैज्ञानिकों के परीक्षण मे यह बात सामने आई है। उन्होंने युवकों के दो दल बनाए, एक में वे लोग थे जो सिगरेट नहीं पीते थे तथा दूसरे में वे जो इसके आदी थे। फिर एक लोहे की राड़ को हल्का गर्म कर बारी-बारी से दोनों दलों को पकड़ने को कहा गया। जो धूम्रपान नहीं करते थे उन्होंने सलाख की गर्मी को तुरंत महसूस किया। इसके विपरीत धूएं का सेवन करने वालों को किसी भी तरह की गरमाहट का आभास नहीं हुआ।
इसका एक और भी निष्कर्ष निकाला गया कि ज्यादा धूम्रपान करने वालों को ह्रदयाघात का दर्द महसूस नहीं होता जिससे रोग का निदान जल्द ना होने से समय पर इलाज नहीं हो पाता जो जानलेवा भी हो जाता है।
इसका दुष्प्रभाव हाथ की उन ऊंगलियों पर भी अपना प्रकोप ड़ालता है जिनमें सिगरेट ज्यादा देर तक फंसी रहती है। उसकी गर्मी त्वचा की संवेदना को खत्म कर देती है।


# चर्चिल सिगार बहुत पीते थे। एक बार किसी ने उनसे कहा, "इतना धूम्रपान आपको धीरे-धीरे मौत की ओर ले जा रहा है।"
चर्चिल ने तुरंत जवाब दिया "मुझे भी कोई जल्दी नहीं है"

गुरुवार, 3 फ़रवरी 2011

समय रहते चेत जाओ नहीं तो चेतने के लिए भी समय नहीं मिलेगा

प्रकृति का प्रकोप या अनहोनी अचानक ही नहीं घटित हो जाती। बहुत पहले से वह अपने अच्छे-बुरे बदलाव का आभास देने लग जाती है। ऐसे ही एक बदलाव की पदचाप दूर से आती महसूस होने लगी है।

भ्रष्टाचार, तानाशाही, मंहगाई की मार से दूभर होती जिंदगी से देश का नागरिक त्रस्त है। अपने सामने गलत लोगों को गलत तरीके से धनाढ्य होते और उस धनबल से हर क्षेत्र में अपनी मनमानी करते और इधर खुद और अपने परिवार की जिंदगी दिन प्रति दिन दुश्वार होते देख अब एक आक्रोश उसके दिलो-दिमाग में जगह बनाता जा रहा है। यदि इसका कहीं विस्फोट हो गया तो ऐसे भ्रष्ट धनकुबेरों का क्या हश्र होगा तथा उनके संरक्षक किस बिल को ढूंढेंगे अपना अस्तित्व बचाने के लिए इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।

एक पुरानी कहानी है। एक मठ में कुछ संत रहते हुए ध्यान-पूजन किया करते थे। बाकी तो सब ठीक था पर एक चूहा उन सब को बहुत परेशान किए रहता था। जितने संभव उपाय थे वह सब किए जा चुके थे पर वह इतना निड़र और उद्दंड था कि किसी के भी काबू नहीं आता था। दिन प्रति दिन उसका उत्पात बढता ही जा रहा था। एक दिन उसी मठ में एक संत आए। बातों ही बातों में उन्हें उस आतातायी चूहे के बारे में भी पता चला। सारी बातें जानने के बाद उन्होंने कहा कि उस चूहे को स्वर्णबल प्राप्त है। उसका बिल खोदा जाए। जब चूहे का बिल खोदा गया तो वहां स्वर्ण का भंडार मिला। जिसे जनहितार्थ खर्च कर दिया गया। उस दिन के बाद से वह चूहा, चूहा बन कर ही रह गया।

ऐसे ही हमारे तथाकथित जनसेवकों का अकूत धन विदेशों की दिवारों में दफन है। पर उसके बल पर यहां 'ये' तो ये इनके लगे-बधें भी ओछी हरकतें करने से बाज नहीं आते। इन्हें किसी भी तरह का ड़र नहीं व्यापता चाहे वह पुलिस हो या न्यायालय। पर अब इन कुछ मुट्ठी भर अमीर लोगों के गरीब देश के निरीह वाशिंदों का दिलो-दिमाग अब और ना सह पाने के कारण आक्रोशित होने लगा है।

यह भी प्रकृति के उसी बदलाव के आगमन का सूचक है, जो आभास दे रहा है कि समय रहते चेत जाओ नहीं तो चेतने के लिए भी समय नहीं मिलेगा।

बुधवार, 2 फ़रवरी 2011

असाधारणता को सदा अपने हाथ क्यों कटाने पड़ते हैं ?

इंसान की एक सनातन इच्छा है कि वह अमर हो जाए। सशरीर ऐसा होना नामुमकिन होने की वजह से वह अपने नाम को ही ज्यादा से ज्यादा समय तक दुनिया में कायम रखने की जुगत करता रहता आया है। सदियों से राजा, महाराजा, बादशाह, नवाब आदि सक्षम लोग अपने दरबार में कलाकारों तथा कारीगरों को स्थान देते आए हैं। जो अपने हुनर से कुछ ऐसा रचते भी रहे हैं जिससे उनके आश्रयदाता का नाम वर्षों तक लोगों की जुबान पर चढा रहा है। पर कुछ ऐसे बदनसीब कारीगर भी हुए हैं जिनके अद्वितीय कार्य को लोग आज भी अचंभित हो कर देखते हैं पर यह नहीं जानते कि ऐसी अद्भुत रचना करने वाले को इनाम के बदले अमानुषिक दंड़ दिया गया था।

दुनिया की सबसे भव्य, अनूठी, सुंदर इमारत "ताजमहल"। बीस हजार कुशल कारीगरों ने बाईस साल तक अपने खून को पसीने की तरह बहा-बहा कर अपने कला प्रेमी बादशाह के सपने को पूरा करने के लिए इसका निर्माण किया था। हजारों लोग हर साल इसे देखने भारत आते हैं और उनके आश्चर्य से खुले मुख से एक ही शब्द निकलता है "वाह"। पर इसके बदले इसे बनाने वालों को क्या मिला ? कोई सोच भी नहीं सकता कि एक सौंदर्य प्रेमी बादशाह का दिल इतना क्रूर भी हो सकता है। जिसके मन की शंका, कि कहीं ये कारीगर कहीं और जा कर इससे भी खूबसूरत इमारत ना बना ड़ालें जिससे मेरे इस प्रेम प्रतीक को लोग भूल ही जाएं। इस विचार रुपी नाग के सर उठाते ही उसने एक अमानवीय निर्णय लिया और कारीगरों के हाथ कटवा ड़ाले, जिससे उसकी प्रेम निशानी सरताज बनी रह सके।

ऐसा पहली बार नहीं हुआ।
दक्षिण में एक संगतराश हुआ था, नाम था उसका 'सतपथी'। जादू था उसके हाथों में। उसकी छैनी-हथौड़ी जैसे हथियार कठोर पाषाण पर ऐसे चलते थे जैसे वह मोम का बना हो। कठोर से कठोर पत्थर भी उसके हाथों में आ ऐसा जिवंत हो उठता था जैसे अभी बोलने लग जाएगा। कभी-कभी तो भ्रम हो जाता था कि सामने प्रतिमा है कि जिंदा इंसान। होते-होते उसकी ख्याति राजा तक भी पहुंची। उसका काम देख राजा ने उसे अपने दरबार मे स्थान दे दिया। सतपथी ने भी वहां रह कर राजा के कहेनुसार ऐसे-ऐसे शिल्प गढे कि लोग उन्हें देख खड़े के खड़े रह जाते थे। इसी कलाकारी के कारण राजा की ख्याति दूर-दूर तक फैल गयी। पर एक बुरी घड़ी में राजा के दिमाग का कीड़ा भी कुलबुलाया कि यदि सतपथी मुझे छोड़ कहीं और जा बसा तो मुझे कौन याद रखेगा? बस ऐसा ख्याल आते ही उस निष्ठुर ने सतपथी के हाथ कटवा ड़ाले।

ऐसा ही भाग्य ले कर जन्मे थे सालों पहले आज के बांग्ला देश के ढाका शहर के वस्त्र निर्माता। जिनकी रुई के रेशों से बनाई 'मलमल' इतनी बारीक, मुलायम और पारदर्शी होती थी जैसे हवा। रूई के रेशों को ये कारीगर पता नहीं किस जादूई स्पर्श से कपड़े का रूप देते थे जिसे देख लगता था जैसे शबनम बिखरी हुई हो। महीन इतना कि एक अंगुठी से सारा का सारा थान निकल जाता था। कहते हैं कि एक बार बादशाह औरंगजेब की पुत्री इसकी चौदह तहें लपेट कर बादशाह के सामने आ गयी तो वह नाराज हो गया। उसे वह करीब-करीब वस्त्रहीन लगी थी। पर यहां भी क्रूर इतिहास अपने को दोहराने से नहीं रोक पाया। भारत में अंग्रेजों का आगमन अपना व्यवसाय फैलाने के लिए हुआ था। आते ही उन्होंने इस मलमल को अपने यहां के बने वस्त्रों से मीलों आगे पाया। अपने हित की खातिर उन्हें इसके अलावा और कुछ नहीं सूझा कि इन रूई के रेशों में जादू जगाने वालों के हाथ काट दिए जाएं।

खूबसूरती, विलक्षणता, असाधारणता सदा खुशनुमा, लाभप्रद या भाग्यशाली ही नहीं होतीं। इनके भी सौ दुश्मन होते हैं जिनकी ईर्ष्या , जलन और अपने हित इन प्रभू की नेमतों का नाश करने में नहीं सकुचाते। इतिहास गवाह है कि ऐसी प्रतिभाओं को प्राचीन काल से लेकर आज तक भारी कीमत चुकानी पड़ती रही है।

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