उन दिनों तो अपने ताऊ जी भी कलकत्ते में ही थे। उन्हें भी तो याद होगा वह नजारा, क्यों बड़े भाई?
बात बहुत पुरानी है। पर दिमाग के कोल्ड स्टोर में होने की वजह से आज भी ताजा और बामजा है। करीब 35 साल पहले फिल्म “शोले” ने रीलीज हो कर कैसे बाक्स आफिस मे आग लगाई थी, यह तो उस समय उसकी तपिश का मजा लेने वालों को आज भी याद होगा। उस समय उसका जादू सर चढ कर बोलता था। लोग पगलाये रहते थे उसको देखने के लिये। एक बार, बार-बार। सिनेमा घरों के सामने इतनी लंम्बी लाईने लगती थीं कि अंतिम छोर पर खड़े लोगों को तीन-तीन, चार-चार घंटे लग जाते थे खिड़की तक पहुंचने में, फिर भी टिकट मिल ही जाएगी इसका विश्वास नहीं होता था। लोग किसी खास शो के लिये लाईन नहीं लगाते थे वे तो जिस दिन का भी हो, जिस किसी शो का भी हो, बस मिल जाए इसलिये खड़े होते थे। आप सोच रहे होंगे कि क्या लोगों के पास काम-धाम नहीं था, तो यह बतला दूं कि यह उस महानगर की बात है जहां क्रिकेट के किसी भी फार्मेट के मैच के लिए लोग रात में ही लाईन मे आ खड़े होते थे। देर से आने वालों के लिये जगह भी बिकती थी। यहां तक कि टेस्ट मैच के पहले दिन भी 60-70 हजार की भीड़ जुट जाना मामुली बात थी। जी हां आज के कोलकाता और तब के कलकत्ता की बात कर रहा हूं।
बात हो रही थी “शोले” की। यह शायद पहली फिल्म थी जिसके संवादों तक की कैसटें भी बनाई गयी थीं और उनकी बिक्री भी बेहिसाब हुए थी। इतनी कैसटें बिकी थीं कि आधी से ज्यादा आबादी गब्बर सिंह बन गयी थी। हर गली मोहल्ले में ,”तेरा क्या होगा कालीया”, “कितने आदमी थे”, “अब गोली खा” जैसे संवादों का लोग पारायण करने लग गये थे। अपने ताऊजी भी तो शायद उन दिनों कलकत्ते मे ही थे , उन्हें तो याद ही होगा उस समय का माहौल, क्यों बड़े भाई सच कह रहा हूं ना?
कलकत्ता अजब शहर है। वहां आईन (कानून) और लाईन का बड़ा महत्व है। वहां का हर वाशिंदा दूसरे से आईन मुताबिक चलने की अपेक्षा करता है और लाईन तो वहां के रोजमर्रा के कामों का एक हिस्सा हैं। दुर्गा पूजा के दिनों में जूते के साथ चप्पल मुफ्त, 500 बंदे खड़े हैं लाईन में, आसाम की चाय का नया ब्रांड आया है 378 भद्रपुरुष घर जाने के पहले लाईन में लगे हैं, मोहनबागान का ईस्टबंगाल से फुटबाल का मैच है 7000 की भीड़ लाईन में लगी है, किसी भी मशहूर हीरो की नयी रीलीज है घंटों लोग लाईन लगाये हैं। आलू सस्ता लाईन लगी है, बरसात आनेवाली है छाता लेने के लिये लाईन में खड़े रहो, भले ही पानी बरस कर भिगो जाय। टिकट लेना है तो लाईन, राशन लेना है तो लाईन, चढना है तो लाईन ,उतरना है तो लाईन। यहां तो मर कर भी लाईन से पीछा नहीं छूटता, विश्वास ना हो तो नीमतल्ला घाट का नजारा देख लें।
इसी लाईनदार शहर मेंएक दिन “वेलिंगटन” की तरफ जाते हुए मुझे, उस व्यस्ततम सड़क के किनारे से लगी एक लाईन का सिरा नजर आया। वहां ऐसा कुछ नहीं था जो लाईन लगानी पड़े सो मैने पूछा कि किस बात की लाईन है तो पता चला कि “ज्योति”सिनेमा में लगी शोले के टिकट के लिये बंदे खड़े हैं। मैं चकित ज्योति हाल तो वहां से कम से कम एक नहीं तो पौन की मी तो दूर था ही। चकित सा मैं आगे बढ कर हाल के पास पहुंचा तो वहां तो कुंभ का मेला लगा हुआ था। गेट के सामने से गुजरने की जगह ही नहीं थी। मेरे देखते-देखते कैइयों के एक्स्ट्रा टिकट जेब से बाहर आते-आते ही चिंदियों मे बदल गये। टिकट दिखते ही लोग उस हाथ पर गिद्धों की तरह लपकते और टिकट “था” हो जाता। मैं किनारे खड़ा तमाशा देख ही रहा था कि एक लड़का मेरे पास आ धीरे से मेरे कान में बंगला में फुसफुसाया, “भाई पिक्चर देखोगे? मैंने कहा नहीं मैं देख चुका हूं। पर वह फिर बोला, दोबारा देख लो। मेरे पास समय था, मैंने कहा , चलो, ठीक है, टिकट दो, वह महौल से इतना ड़रा हुआ था कि टिकट निकालने में डर रहा था और टिकट के पैसे भी जाया नहीं होने देना चाहता था, बोला टिकट नहीं निकालूंगा, आप मेरे साथ भीतर चलो। उस दिन पिक्चर देख पता चला कि शोले 35मी मी के साथ साथ 75मी मी में भी बनाई गयी थी तथा इसके दो अंत थे।
यह सारी भूमिका मैने इस लिये बयान की है क्योंकि यह दुनिया की पहली फिल्म थी जिसे देखने के लिये इंसान तो इंसान जानवर भी आतुर थे।
मजाक थोड़े ही कर रहा हूँ, अगले अंक में बताऊँगा कि दो कुत्तों ने भी शोले देखी थी।
इस ब्लॉग में एक छोटी सी कोशिश की गई है कि अपने संस्मरणों के साथ-साथ समाज में चली आ रही मान्यताओं, कथा-कहानियों को, बगैर किसी पूर्वाग्रह के, एक अलग नजरिए से देखने, समझने और सामने लाने की ! इसके साथ ही यह कोशिश भी रहेगी कि कुछ अलग सी, रोचक, अविदित सी जानकारी मिलते ही उसे साझा कर ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जा सके ! अब इसमें इसको सफलता मिले, ना मिले, प्रयास तो सदा जारी रहेगा !
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5 टिप्पणियां:
शोले को लेकर अच्छी पोस्ट लिखी है.कुत्तों ने शोले कैसे देखी होगी ये उत्सुकता जाग उठी है। आपके पोस्ट का इंतजार है।
शोले एतिहासिक फ़िल्म थी,
अगर आज भी शोले टाकीजों में
लग जाती है तो दर्शकों की कमी नही है।
मैने बहुत कम फ़िल्में देखी है।
लेकिन शोले तो कई बार देखी है।
अच्छी पोस्ट-आभार
अरे हमारे शहर मै तो कुते जंगल मै भाग गये थे, धर्मेदर का ऎलान सुन कर, ओर आप कह रहे है कि दो कुत्तो ने भी फ़िल्म देखी, जरुर यह कुते बदमाश होगे जो अपने खुन का बदला लेने पहुचे होंगे:)
बहुत सुंदर लेख मजे दार
कलकत्ता अजब शहर है। वहां आईन (कानून) और लाईन का बड़ा महत्व है।
इन पंक्तियों ने दिल जीत लिया। पर एक बात है सर .. लाइन में लग गये तो कभी-न-कभी बारी तो आयेगी। वरना आज हालात ऐसे हैं कि आम आदमई की तो बारी ही नहीं आती और जानकी वल्लभ शास्त्री जी की पंक्तियां चरितार्थ हो जाती हैं
ऊपर ऊपर पी जाते हैं जो पीने वाले हैं
कहते ऐसे ही जीते हैं जो जीने वाले हैं।
मस्त पोस्ट रही!!
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