शुक्रवार, 6 नवंबर 2009

क्या बाप या अभिभावक अक्लमंद नहीं हो सकते ?

आप कहेंगे कि बार-बार विज्ञापनों का रोना ले बैठता हूं। पर इन्हें आप की अदालत में लाना जरूरी लगता है। सरकारी विज्ञापन तो वैसे ही माशा-अल्लाह होते हैं। "जागो ग्राहक जागो" में एक नया नमूना आया है।
एक बाप अपने कम्प्यूटर पर विदेश से एक बड़ी रकम अपने नाम दर्ज देख खुशी से उछल पड़ता है तो उसका बेटा उसे समझाता है कि यह धोखा-धड़ी है, अपने बैंक इत्यादि के नम्बर किसी को ना दें। कोई मुफ्त में किसी को एक पैसा नहीं देता।
विज्ञापन में या उसे पेश करने वाले की नियत में कोई खराबी नहीं है। पर एक जिम्मेदार, अनुभवी, उम्रदराज इंसान को बेवकूफी करते ना दिखा उसे नयी पीढी, जो कम तजुर्बेकार है, को भी समझाते दिखाया जा सकता था। बाप की जगह बेटे और बेटे की जगह बाप को दे कर अनुभव की गरिमा और बुजुर्गियत की लाज दोनो बचाई जा सकती थीं। वैसे भी रिटायर्ड़ अभिभावक से ज्यादा पैसे की जरूरत युवा को होती है। जिसके सामने सारी जिंदगी पड़ी है। आज नयी पीढी में अधिकांश युवा ऐसे मिल जायेंगे जो कम समय में, रातों-रात अमीर बन जाने के लिये गलत हालातों में फंस जाते हैं। ऐसे में क्या समय के थपेड़ों से अनुभव प्राप्त कर जिंदगी की ठोस हकीकत को समझने वाले बुजुर्गों की नसीहतें युवा पीढी का मार्गदर्शन नहीं कर पातीं ?

7 टिप्‍पणियां:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

हम उन कुल किताबों को क़ाबिले ज़ब्ती समझते हैं
जिन्हें पढ़कर बच्चे बाप को खब्ती समझते हैं॥-:)
अकबर इलाहाबादी

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

पूरी तरह सहमत हूं।

Himanshu Pandey ने कहा…

विज्ञापन देखकर कुछ अटपटा तो लगता ही है ।

Gyan Darpan ने कहा…

सही कहा आपने !

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बात सौ पैसे सही है!

वाणी गीत ने कहा…

विचार करने योग्य है ...कुछ अलग से ब्लॉग पर अलग सी प्रविष्टि ...!!

Anil Pusadkar ने कहा…

सहमत हूं आपसे।

विशिष्ट पोस्ट

रणछोड़भाई रबारी, One Man Army at the Desert Front

सैम  मानेक शॉ अपने अंतिम दिनों में भी अपने इस ''पागी'' को भूल नहीं पाए थे। 2008 में जब वे तमिलनाडु के वेलिंगटन अस्पताल में भ...