शुक्रवार, 31 जुलाई 2009

? इनका जवाब किसी के पास भी नही है

? सन 1814, सितंबर के महिने में, फ्रांस के एजिन शहर के आसमान पर एक बादल का टुकड़ा उमड़ता है। अचानक एक जोर की आवाज के साथ उसमें से कंकड़- पत्थरों के साथ बारिश होने लगती है।ऐसा ही कुछ सन 2000 में इथोपिया मे भी हुआ था जब आसमान से मछलियों की बरसात हुई थी।

? वर्ष 1821, प्रख्यात भूगर्भशास्त्री डेविड वर्च्यु ने अपने काम के सिलसिले में एक चट्टान की खुदाई की। उसी दौरान करीब 20-25 फुट की गहराई पर उन्होंने एक भूरे रंग के छिपकली नुमा जानवर को दबे पाया। वह मरा हुआ दिख रहा था। पर रोशनी और हवा के मिलते ही वह हिला और भाग गया।

? सन
1908, 30 जून, साईबेरिया के एक प्रांत तुंगुस्का के हाड़ी टापू पर आसमान से आग का एक गोला गिरता है जो तकरीबन आधे टापू पर बिखर जाता है। इसका विस्फोट इतना जोरदार होता है कि टापू के सारे पेड़-पौधों का नमोनिशान मिट जाता है।

? सन 1977, अमेरिका और ब्रिटेन में एक साथ हजारों लोगों ने एक अजीब सी भिनभिनाहट जैसी आवाजें सुनी। इससे हजारों लोग रात को सो नहीं पाये थे।

? जनवरी 1984, रूस का एक विमान अपने गंतव्य की ओर बढ रहा था कि अचानक उसमें एक चमकीली गोल सी वस्तु घुस आयी। अचंभित यात्रियों के सर पर कुछ देर मंडराने के पश्चात यह गायब हो गयी।

? पश्चिमी टेक्सास में हाईवे-90 से कुछ ही दूरी पर आकाश में दिखने वाली रोशनी एक रहस्यमय अजूबा है।

? 80 के दशक में दिल्ली के विश्व्विद्यालय क्षेत्र में एक सीमित जगह को तहस-नहस करने वाला बवंडर अभी तक रहस्य के आवरण में लिपटा हुआ है।

बुधवार, 29 जुलाई 2009

व्हाइट हाउस में घूमते भूत

भूत प्रेतों की विश्वसनियता पर सदा ही खत्म ना होने वाली बहस होती रही है। ऐसा माना जाता है कि पिछड़े देशों में अशिक्षा के कारण लोग ऐसे अंधविश्वासों को मानते रहे हैं। आज यहां उन दो देशों के कुछ "घरों" की बात रख रहा हूं, जो संसार में सबसे ज्यादा उन्नतशील देश समझे जाते हैं।
1, व्हाइट हाउस :- जी हां, वही व्हाइट हाउस जिसमें संसार के सबसे शक्तिशाली और उन्नतशील देश का राष्ट्रपति रहता है। जो देश विज्ञान का सहारा ले आकाश पाताल नापने का दावा करता है उसी के, संसार के सबसे आरामदायक और भव्य, महल में भूतों का ड़ेरा है। इस खूबसूरत भवन मे बहुतेरे राष्ट्राध्यक्ष मरने के पश्चात भी रहने का लोभ नहीं छोड़ पाये हैं।प्रत्यक्षदर्शियों ने वहां पूर्व राष्ट्रपति हैरिसन, एंड़्रयू जैक्सन, अब्राहम लिंकन और रूजवेल्ट की आत्माओं को घूमते देखा है।
2, व्हेले हाउस :- अमेरिका के ही सैन डिएगो में स्थित यह घर बहुत ही डरावना है। 1857 में बने इस घर के अभिशप्त होने का कारण इसका कब्रिस्तान पर बना होना माना जाता है। यहां लोग दिन में भी जाने से कतराते हैं।
3, टावर आफ लंदन :- इस एतिहासिक इमारत में तो भूतों की टोली रहती है। बहुतेरी बार सर कटे भूतों को अपने सर हाथ में लिये घूमते लोगों ने देखा है। यहां हेनरी षष्टम, सर वाल्टर रैले तथा थामस बेकेट की आत्मायें अक्सर घूमते देखी गयीं हैं।
4, बोरले रेक्टोरी चर्च :- कहते हैं कि इंग्लैंड का यह चर्च भूतों की मनपसंद जगह है। 1863 में बने इस चर्च में बनने के कुछ सालों बाद ही अजीबोगरीब घटनायें होनी शुरु हो गयीं थी। भय और आशंका के मारे इसे 1939 में जला कर नष्ट कर देने के बावजूद भी यहां रहस्यमयी घटनायें खत्म नहीं हुई हैं।
5, रेहम हाल :- यह भवन अपनी "ब्राउन लेडी" के भूत के कारण खासा मशहूर है। इंग्लैंड के नारफोक के इस रेहम हाल पर एक फिल्म भी बन चुकी है।
ये तो कुछ बानगियां हैं, उन लोगों के लिये जो अपने को पिछड़े और अंधविश्वासी देश में रहनेवाला मान कर सदा गोरी चमड़ी वालों को अपने से श्रेष्ठ और उनके देशों को अपना मार्गदर्शक माने रहते हैं। अनहोनी की आशंका, मौत का भय, अनिष्ट का डर दुनिया में सब जगह लोगों को घेरे रहता है। कहीं एक रत्ती कम कहीं एक तोला ज्यादा।

सोमवार, 27 जुलाई 2009

कुल्लू के बिजलेश्वर महादेव, एक अनोखा शिव मन्दिर.

बिजलेश्वर महादेव , जिनके दर्शन करते ही आँखें नम हो जाती हैं, मन भावविभोर हो जाता है। जिव्हा एक ही वाक्य उच्चारण करती है - त्वं शरणम ।

हमारा देश विचित्रताओं से भरा पड़ा है। तरह-तरह के धार्मिक स्थान, तरह-तरह के लोग, तरह-तरह के मौसम। यदि अपनी सारी जिंदगी भी कोई इसे समझने, घूमने में लगा दे तो भी शायद पूरे भारत को देख समझ ना पाये। यहां ऐसे स्थानों की भरमार है कि उस जगह की खासियत देख इंसान दांतों तले उंगली दबा ले।
ऐसा ही एक अद्भुत स्थल है, हिमाचल में बिजलेश्वर महादेव। जिसे बिजली महादेव या मक्खन महादेव के नाम से भी जाना जाता है। हिमाचल के कुल्लू शहर से 18कीमी दूर, 7874 फिट की ऊंचाई पर मथान नामक स्थान में स्थित है, शिवजी का यह प्राचीन मंदिर। इसे शिवजी का सर्वोत्तम तप स्थल माना जाता है। पुराणों के अनुसार जालन्धर दैत्य का वध शिवजी ने इसी स्थान पर किया था। इसे कुलांत पीठ के नाम से भी जाना जाता है।
यहां स्थापित शिवलिंग पर या मंदिर के ध्वज दंड़ पर हर दो-तीन साल में वज्रपात होता है। शिवलिंग पर वज्रपात होने के उपरांत यहां के पुजारीजी बिखरे टुकड़ों को एकत्र कर उन्हें मक्खन के लेप से जोड़ फिर शिव लिंग का आकार देते हैं। इस काम के लिये मक्खन को आस-पास नीचे बसे गांव वाले उपलब्ध करवाते हैं। कहते हैं कि पृथ्वी पर आसन्न संकट को दूर करने तथा जीवों की रक्षा के लिये सृष्टी रूपी लिंग पर यानि अपने उपर कष्ट का प्रारूप झेलते हैं भोले भंडारी। यदि बिजली गिरने से ध्वज दंड़ को क्षति पहुंचती है तो फिर पूरी शास्त्रोक्त विधि से नया ध्वज दंड़ स्थापित किया जाता है।
मंदिर तक पहुंचने के लिए कुल्लु से बस या टैक्सी उपलब्ध हैं। व्यास नदी पार कर 15किमी का सडक मार्ग चंसारी गांव तक जाता है। उसके बाद करीब तीन किलोमीटर की श्रमसाध्य, खडी चढ़ाई है जो अच्छे-अच्छों का दमखम नाप लेती है। उस समय तो हाथ में पानी की बोतल भी एक भार सा महसूस होती है।
मथान के एक तरफ़ व्यास नदी की घाटी है, जिस पर कुल्लु-मनाली इत्यादि शहर हैं तथा दूसरी ओर पार्वती नदी की घाटी है जिस पर मणीकर्ण नामक प्रसिद्ध तीर्थ स्थल है। उंचाई पर पहुंचने में थकान और कठिनाई जरूर होती है पर जैसे ही यात्री चोटी पर स्थित वुग्याल मे पहुंचता है उसे एक दिव्य लोक के दर्शन होते हैं। एक अलौकिक शांति, शुभ्र नीला आकाश, दूर दोनों तरफ़ बहती नदियां, गिरते झरने, आकाश छूती पर्वत श्रृंखलाएं किसी और ही लोक का आभास कराती हैं। जहां आंखें नम हो जाती हैं, हाथ जुड जाते हैं, मन भावविभोर हो जाता है तथा जिव्हा एक ही वाक्य का उच्चारण करती है - त्वं शरणं।
कण-कण मे प्राचीनता दर्शाता मंदिर पूर्ण रूप से लकडी का बना हुआ है। चार सीढियां चढ़, दरवाजे से एक बडे कमरे मे प्रवेश मिलता है जिसके बाद गर्भ गृह है जहां मक्खन मे लिपटे शिवलिंग के दर्शन होते हैं। जिसका व्यास करीब ४ फ़िट तथा उंचाई २.५ फ़िट के लगभग है। ऊपर बिज़ली-पानी का इंतजाम है। आपात स्थिति मे रहने के लिये कमरे भी बने हुए हैं। परन्तु बहुत ज्यादा ठंड हो जाने के कारण रात मे यहां कोई नहीं रुकता है। सावन के महिने मे यहां हर साल मेला लगता है। दूर-दूर से ग्रामवासी अपने गावों से अपने देवताओं को लेकर शिवजी के दरबार मे हाजिरी लगाने आते हैं। वे भोले-भाले ग्रामवासी ज्यादातर अपना सामान अपने कंधों पर लाद कर ही यहां पहुंचते हैं। उनकी अटूट श्रद्धा तथा अटल विश्वास का प्रतीक है यह मंदिर जो सैकडों सालों से इन ग्रामिणों को कठिनतम परिस्थितियों मे भी उल्लासमय जीवन जीने को प्रोत्सहित करता है। कभी भी कुल्लु-मनाली जाना हो तो शिवजी के इस रूप के दर्शन जरूर करें।
कुछ सालों पहले तक चंसारी गांव के बाद मंदिर तक कोई दुकान नहीं होती थी। पर अब जैसे-जैसे इस जगह का नाम लोग जानने लगे हैं तो पर्यटकों की आवा-जाही भी बढ गयी है। उसी के फलस्वरूप अब रास्ते में दसियों दुकानें उग आयीं हैं। धार्मिक यात्रा के दौरान चायनीज और इटैलियन व्यंजनों की दुकानें कुछ अजीब सा भाव मन में उत्पन्न कर देती हैं।

रविवार, 26 जुलाई 2009

तीस किलो वजनी "सुदर्शन चक्र" को चलाने के लिये दोनों हाथों की जरुरत पड़ती होगी।

सुदर्शन चक्र श्री कृष्ण जी का एक अभिन्न अंग है। पर इसका निर्माण और संचालन सदा एक गोपनीय विषय रहा है । इसी के बारे में प्रस्तुत है प्रख्यात तांत्रिक तथा विद्वान आचार्य प्रकाशानंद जी  की एक विवेचना :-

हमारे पुराणों में जिन आयुधों का उल्लेख मिलता है उनमें चक्र भी एक है। विभिन्न देवताओं के पास अपने-अपने चक्र हुआ करते थे। जैसे शंकरजी के चक्र का नाम "भवरेंदु", विष्णुजी के चक्र का नाम "कांता चक्र" और देवी का चक्र "मृत्यु मंजरी" के नाम से जाना जाता था।
"सुदर्शन चक्र" का नाम श्रीकृष्णजी के नाम के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। अति आवश्यक होने पर ही इसका प्रयोग किया जाता रहा है। यह खुद जितना रहस्यमय है उतना ही इसका निर्माण और संचालन। यह गोपनीयता शायद इसलिये बरती गयी होगी कि इस अमोघ अस्त्र की जानकारी देवताओं को छोड़ दूसरों को ना लग जाये।

मान्यता है कि इसका निर्माण भगवान शंकरजी ने कर इसे विष्णुजी को सौंप दिया था। जरुरत पड़ने पर विष्णुजी ने इसे देवी को प्रदान कर दिया। इस आयुध की खासियत थी कि इसे तेजी से हाथ से घुमाने पर यह हवा के प्रवाह से मिल कर प्रचंड़ वेग से अग्नि प्रज्जवलित कर दुश्मन को भस्म कर देता था। यह अत्यंत सुंदर, तीव्र गामी, तुरंत संचालित होने वाला एक भयानक अस्त्र था। भगवान श्री कृष्ण के पास यह देवी की कृपा से आया। यह चांदी की शलाकाओं से निर्मित था। इसकी उपरी और निचली सतहों पर लौह शूल लगे हुए थे। इसके साथ ही इसमें अत्यंत विषैले किस्म के विष, जिसे द्विमुखी पैनी छुरियों मे रखा जाता था, का भी उपयोग किया गया था। इसके नाम से ही विपक्ष में मौत का भय छा जाता था।

यह कल्पना मात्र ही हो सकती है कि चक्रों को अंगुली के इशारे से चलाया जाता था। क्योंकि आज के वजनों से तुलना करें तो इनका वजन 30 से 35 की. से कम नहीं हो सकता था। हो सकता है कि यह धारणा चक्रधारी को अत्यंत बलशाली निरुपित करने के लिये बनायी गयी हो। पर चक्र को चलाने के लिये अत्यधिक बल की जरुरत होती थी। इनके वजन को साधने और गति देने के लिये दोनों हाथों की जरूरत पड़ती थी। इसे धारण करने वाले को महारथी या चक्रधारी कहा जाता था।

शनिवार, 25 जुलाई 2009

धन का संरक्षक होने के बावजूद कुबेर की पूजा कहीं नहीं होती

कुबेर को धन का संरक्षक माना जाता है। पूराने मंदिरों में उनकी मुर्तियां दरवाजे पर स्थापित मिलती हैं। परंतु उन मुर्तियों में उन्हें कुरूप, मोटा और बेड़ौल ही दिखाया गया है। दिग्पाल के रूप में या यक्ष के रूप में उनका विवरण मिलता है। पर उन्हें कभी दूसरी श्रेणी के देवता से ज्यादा सम्मान नहीं दिया गया। नाहीं कहीं उनकी पूजा का विधान है। उनके पिता ऋषि विश्रवा थे, जो लंकापति रावण के भी जनक थे। हो सकता है कि रावण के कुल गोत्र का होने से उनकी उपेक्षा होती गयी हो।
धन के संरक्षक होने के बावजूद उन्हें कभी भी लक्ष्मीजी के समकक्ष नहीं माना गया। क्योंकि लक्ष्मीजी के साथ परोपकारी भावना जुड़ी हुई है। कल्याणी होने की वजह से वे सदा गतिशील रहती हैं। वे धन को एक जगह ठहरने नहीं देतीं। पर कुबेर के साथ ठीक उल्टा है। इनके बारे में धारणा है कि इनका धन स्थिर रहता है। इनमें संचय की प्रवृति रहती है (शायद इसीलिये अपने रिजर्व बैंक आफ इंड़िया के बाहर इनकी प्रतिमा स्थापित की गयी है)। उनसे परोपकार की भावना की अपेक्षा नही की जाती।
वैसे भी कुबेर के बारे में जितनी कथायें मिलती हैं उनमें इन्हें पूर्व जन्म में चोर, लुटेरा यहां तक की राक्षस भी निरुपित किया गया है। यह भी एक कारण हो सकता है कि इनकी मुर्तियों में वह सौम्यता और सुंदरता नहीं नजर आती जो देवताओं की प्रतिमाओं में नज़र आती है।
इनकी कल्पना धन का घड़ा लिये हुए की गयी है तथा निवास सुनसान जगहों में वट वृक्ष पर बताया गया है। लगता है कि इनको जो भी सम्मान मिला है वह इनके धन के कारण ही मिला है श्रद्धा के कारण नहीं। क्योंकी वह धन भी सद्प्रयासों द्वारा नहीं जुटाया गया था। इसीलिये इनकी कहीं पूजा नहीं होती।

बुधवार, 22 जुलाई 2009

नक्सलबाड़ी, जहाँ से उठे आन्दोलन ने देश को हिला दिया, वहीं के लोग अब इस बारे में अंजान हैं.

पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले के एक दुर्गम क्षेत्र में बसा है, सशस्त्र क्रांति का उद्घोष करने वाला कस्बा "नक्सलबाड़ी"। यहीं से 1967 में जमिंदारों और उनके अत्याचारों के विरुद्ध एक आंदोलन शुरु हुआ था, जो आगे चल कर नक्सलबाड़ी आंदोलन के नाम से जाना जाने लगा। इसी से संबंध रखने वाले लोगों को नक्सलाइट का नाम मिला। इस आंदोलन के प्रमुख नेता थे, चारु मजुमदार, कनु सान्याल और जंगल संथाल। इन्होंने किसानों और मजदूरों को संगठित कर हथियार बंद दस्तों का रूप दिया। फिर शुरु हुआ जमिंदारी ज्यादतियों के विरुद्ध खूनी संघर्ष। किसानों ने जमीने हथियानी शुरु कर दीं। गलत तरीकों से बनाये गये रिकार्ड़ जला दिये गये। अन्यायी जमिंदारों को मौत के घाट उतार दिया गया। पहले तो सरकार ने इसे गंभीरता से नहीं लिया। पर एक दिन अचानक जब पेईचिंग रेडिओ ने इस आंदोलन का समर्थन कर दिया तो सरकार नींद से जागी। पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। नक्सलबाड़ी से नक्सलाईट शब्द का इजाद हो चुका था। कम्युनिस्ट देशों के नेता यहां के युवकों के आदर्श बन चुके थे। यहां का बच्चा-बच्चा लेनिन, स्टालिन और माओत्सेतुंग जैसे नेताओं को जानने लग गया था। इस बात का सबूत हैं नक्सलबाड़ी से लगे गांव 'बंगोईजोत' के खाली मैदान में लगी, लेनिन, स्टालिन, माओ और चारु मजुमदार की मुर्तियां। इसके आगे का इतिहास सभी जानते हैं।
आज नक्सलबाड़ी के ज्यादातर लोगों को इस इतिहास से कुछ लेना-देना नहीं है। देश के अन्य भागों में फैल चुके इस तथाकथित आंदोलन का नक्सलबाड़ी से अब कोई संबंध नहीं रह गया है। यहां का मुख्य धंधा अब तस्करी हो चला है। जो पड़ोसी देश नेपाल से निर्बाध रूप से चल रहा है। सरकार द्वारा उपेक्षित इस क्षेत्र में बेकारी, बेरोजगारी से त्रस्त युवकों के लिये तस्करी ही रोजी-रोटी कमाने का एक जरिया रह गया है। एक आकलन के अनुसार रोज करीब एक करोड़ रुपये का सामान अवैध रूप से यहां पहुंचता है।
सरकार चाहे कितना भी विकास का दावा कर ले पर आज भी इस क्षेत्र के बहुतेरे गांवों में ना सड़क पहुंच पायी है नहीं बिजली। दिन भर में इसके तीन ईंची ऊंचे स्टेशन पर सिर्फ एक रेल गाड़ी आती है। जो यात्रियों को कम तस्करी का सामान ज्यादा ढोती है। ऐसी परिस्थितियों में कोई करे भी तो क्या ? तो यहां जिसे जैसा सूझ रहा है वैसे ही अपनी जिंदगी की गाड़ी को खींचने में लगा हुआ है। पेट की आग के सामने कोई आदर्श या उपदेश नहीं टिक पाता।

सोमवार, 20 जुलाई 2009

हँसी आए तो बताईयेगा ( - :

आज तुलसीदासजी जिंदा होते तो अद्भुत होते।
हां भाई सही कह रहे हो, चार सौ साल का बुढ्ढा व्यक्ति अद्भुत ही होता।
******************************************
बेटे दूध नहीं पीएगा तो अफसर नहीं बन पाएगा। चल दूध पी ले।
पर मम्मी मैने तो आज तक किसी गाय या भैंस के बच्चे को अफसर बनते नहीं देखा।
वे तो रोज अपनी मां का दूध पीते हैं।

रविवार, 19 जुलाई 2009

एक था हैदराबाद का निजाम

निजाम, बेपनाह दौलत का मालिक, इंग्लैंड से भी बड़े भूभाग का एकछत्र बादशाह, करोंडों रुपये सालाना की आमदनी पाने वाला संसार के धनाढ्य लोगों में से एक व्यक्ति। पर मानसिकता भिखारियों से भी बदतर। परले दर्जे का कंजूस। बेशुमार संम्पत्ती का स्वामी मैले तथा पैबंद लगे कपड़े पहने रहता था। उसकी टोपी पर मैल की परतें चढी रहती थीं। पैसा उसकी जान था। रोज नमाज के बाद वह अपनी कमर में लटकती चाबी से अपने खजाने को खोल उसमें रखे हीरे, जवाहरात तथा अशर्फियों के ढेर को देख अपने दिन की शुरुआत करता था। जब की उसकी बेगमें और औलादें सीलन भरे कमरों में नौकरों से भी बदतर अपनी जिंदगी के दिन काटने पर मजबूर थे। बड़े से बड़े रसूख वाले मेहमान को भी एक बिस्कुट और एक छोटे प्याले में चाय के अलावा उसने कभी भी किसी को कुछ पेश नहीं किया। पर उसे यदि कोई सिगरेट आफर करता था तो वह बेहिचक चार-पांच उठा लेता था। वैसे खुद हैदराबाद की सस्ती चारमीनार सिगरेट पीता था और उसके भी बचे टोटों से तंबाखू निकाल पाईप में इस्तेमाल करता था। उसकी कंजूसी की बात करें तो पूरी पोथी भर जाए। फिर भी एक दो बानगियां देखें :-

एक बार निजाम ने अपने मित्र दतिया नरेश से दतिया का मशहूर देसी घी खाने की इच्छा जताई। उन्होंने तुरंत दर्जनों टीन घी हैदराबाद भिजवा दिया। परंतु खत्म हो जाने के ड़र से निजाम ने ना घी खुद खाया ना किसी और को खाने दिया। दो एक वर्ष बीतने पर घी सड़ने लगा और उसकी दुर्गंध फैलनी शुरु हो गयी। जब गंध असह्य हो गयी तो निजाम ने अपने कोतवाल वेंकटराम रेड्डी को बुला घी को मंदिरों में बेच आने को कहा। रेड्डी एक बुद्धिमान और चतुर अधिकारी था। वह सड़े घी को मंदिरों में पहुंचाने का अंजाम जानता था। उसने सारा घी फिंकवा दिया और अपनी जेब से निजाम को पैसे दे दिये। निजाम भी मुफ्त के पैसे पा खुश हो गया।

चाटूकारों और अवसरवादीयों से घिरे निजाम का शासन रेड्डी जैसे अधिकारियों की बदौलत ही चल रहा था। एक बार बगीचे से आमों की आवक हुई। कुछ आम खराब होने की कगार पर थे। निजाम के उन्हें बेच देने के कहने पर रेड्डी ने कहा कि यह कोई नहीं लेगा। इस पर कुछ चापलूस दरबारियों ने उसकी बात काट कर कहा कि हुजूर इनकी तो कोई भी अच्छी कीमत दे देगा। निजाम ने रेड्डी को कहा कि जब ये बोल रहे हैं तो तुम कोशिश क्यों नहीं करते। दूसरे दिन रेड्डी ने वह सारे आम उन्हीं दरबारियों के घर भेज कर पैसे वसूल कर निजाम को थमा दिये। निजाम बोला मैं कहता था ना कि इनकी कीमत मिल जायेगी।

एक बार तो निजाम ने हद ही कर दी। लखनाऊ के मशहूर इत्र के व्यापारी असगर अली ने अपनी दुकान के उद्घाटन के लिये निजाम को न्योता दिया था। समारोह में सोने के ताले को चांदी की चाबी से खोलने के लिये जब चांदी की तश्तरी में चाबी पेश की गयी तो जनाब ने ताला खोल तश्तरी समेत ताला और चाबी भी अपनी जेब के हवाले कर ली। लोगों ने सोचा कि गलती से ऐसा हो गया होगा। इसके बाद दुनिया के बेहतरीन इत्रों को निजाम ने देखा, परखा और वहां सजे लाखों रुपये के इत्र को अपने निवास पर भिजवाने का हुक्म दे दिया। असगर अली बाग-बाग हो गया। एक ही झटके में उसका सारा माल बिक गया था। लोगों ने बधाईयों की झडी लगा दी। पर उस माल का पैसा बार-बार मांगने और कंपनी सेक्रेटरी से लेकर वायसराय तक को शिकायत करने के बावजूद असगर अली को कभी नहीं मिल पाया। इधर निजाम ने उस इत्र को छोटी-छोटी शीशियों में भरवा कर अपने दरबारियों, मुसाहिबों तथा कर्मचारियों को बेच करोंडों कमा लिये।

शनिवार, 18 जुलाई 2009

कभी ऐसे लोगों से पाला पडा है ? ( - :

एक ब्राह्मण और उसका बेटा एक भोज में आमंत्रित थे। पंगत लगी खाना शुरु हुआ। कुछ खाने के बाद बेटे ने पानी पी लिया। बाप ने उसकी यह हरकत देख ली। घर पहुंचते ही उसने एक तमाचा बेटे के गाल पर जड़ दिया। हतप्रभ बेटे ने मारने का कारण पूछा तो बाप ने कहा, बेवकूफ खाते-खाते पानी क्यूं पिया, उसके बदले आठ-दस पूड़ियां और नहीं खा सकता था? यह सुन बेटा बोला, क्या बापू बेकार में मार दिया, मैं तो खाने की तह जमा रहा था। यह सुनते ही बाप ने एक और तमाचा मार दिया। बेटा बोला, अब क्या हुआ? बाप चिल्लाया, अरे गधे यह बात मुझे नहीं बता सकता था।
कुछ दिनों बाद ही राखी का त्योहार था। उसी बाप ने बेटे को बहन के घर भेज दिया। कन्या भी इन्हीं के खानदान से थी। उसने खाली थाली सामने रखी, खाली अंगुठे से माथा छू कर तिलक लगाने की रस्म पूरी की। खाली थाली से आरती उतारी और वैसे ही बिना राखी या धागे के लड़के की कलाई के चारों ओर हाथ घुमा राखी बांधने का स्वांग कर दिया। अब लड़के को शगुन देना था, उसने दोनों हाथ फैलाये और बोला, ले तेरे लिये तरबूज लाया था, रख ले। घर लौटने पर बाप ने पूछा कि बहन को क्या देकर आया? लड़के ने कहा, तरबूज देकर आया हूं। बाप ने पूछा कितना बड़ा था, लड़के ने हाथ फैला कर दिखाया ही था कि बाप गरजा, बेवकूफ, इतना हाथ फैलाने की क्या जरूरत थी, थोड़ा कम हाथ नहीं फैला सकता था। ******************************************
पता नहीं क्यूं पिछले कुछ दिनों से ज्यादातर दुसरे ब्लाग नहीं खुल पा रहे हैं। आज बड़ी देर बाद ताऊजी का ब्लाग खुल पाया है।

शुक्रवार, 17 जुलाई 2009

रहिमन जिह्वा बावरी, कहिगै सरग पाताल. आपु तो कही भीतर रही जूती सहत कपाल.

वर्षों से गुणीजन सीख देते आये हैं कि जुबान पर काबू रखना चाहिये। यह चाहे तो तूफान खड़ा कर दे या शांति का समुद्र लहरा दे। रहीमजी ने तो बाकायदा चेतावनी दी है - "रहिमन जिह्वा बावरी, कहिगै सरग पाताल। आपु तो कहि भीतर रही, जूती सहत कपाल।"
कौन नहीं जानता कि द्रोपदी के एक वाक्य ने महाभारत जैसे युद्ध की नींव ड़ाल दी थी। वहीं, इतिहास के अनुसार, पोरस और सिकंदर में सुलह-सफाई हो गयी थी।
पर शायद वह जमाना ही अलग था। आज के समय में वाणी का उपयोग अपने आप को प्रमोट करने के लिये किया जाने लगा है। कुछ दिनों पहले वरुण गांधी की पहचान मेनका गांधी के पुत्र के रूप में ही होती थी, पर एक वाक्यांश ने उनका नाम देश के कोने-कोने में पहुंचवा दिया। उसी तर्ज पर एक और वाक्य बम फटा और रीता बहुगुणा हर चैनल और अखबार की सुर्खियों में छा गयीं। वैसे राजनीति के पंक में लिथड़े पड़े महत्वाकांक्षी लोगों के लिये तुरंत अग्रिम पंक्ति में आने का यह रास्ता आज के कतिपय दिग्गज कहलाने वाले नेताओं नेत्रियों ने ही खोला और सुझाया था। इसका फायदा तो यह है कि आप एक झटके में खबरों में छा जाओ। कुछ हाय-तौबा मचती है पर वह टिकाऊ नहीं होती। धीरे-धीरे छाछ अलग हो जाती है और मक्खन ही मक्खन बचा रह जाता है। यह सोचने की बात है कि इस तरह की अमर्यादित टिप्पणियों का हश्र मालुम होने के बावजूद लोग क्यों जोखिम मोल लेते हैं। समझ में तो यही आता है कि यह सब सोची समझी राजनीति के तहत ही खेला गया खेल होता है। इस खेल में ना कोई किसी का स्थाई दोस्त होता है नही दुश्मन। इसका साक्ष्य तो सारे देश ने पिछले दिनों देखा ही था। इस नये वक्य बम से जो हड़कंप मचा है वह भी जल्द शांत हो जायेगा। उसके फायदे और नुक्सान का आकलन भी जल्दि ही सामने आ जायेगा।

गुरुवार, 16 जुलाई 2009

कंजूस, कैसे-कैसे ( - :

एक शहर में धनपति नाम का आदमी रहता था। एक पैसा खर्च करने में उसकी जान निकलती थी। उसको कभी कुछ खरीदते किसी ने नहीं देखा था। लोगों को आश्चर्य था कि वह अपना जीवन-यापन कैसे करता है। लेकिन धनपति को अपने पर बड़ा घमंड़ था। वह अपने आप को दुनिया का सबसे बड़ा कंजूस समझता था। पर एक दिन उसे पता चला कि एक दूसरे शहर में एक लक्ष्मीधर नाम का महा कंजूस रहता है। उसकी ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई है। यह सुन धनपति के मन में जिज्ञासा हुई कि चल कर उसे देखना चाहिये और नहीं तो कुछ कंजूसी के टिप ही मिल जायेंगे। सो एक दिन शुभ मुहूर्त देख वह पैदल उससे मिलने चल पड़ा। उसके यहां पहुंचने पर थके-हारे धनपति का लक्ष्मीधर ने आगे बढ कर स्वागत किया। कुछ देर आराम करने के बाद लक्ष्मीधर बोला, आप सबेरे से चले हो, भूख भी लग आयी होगी, चलिये बाजार से कुछ खा कर आते हैं। धनपति ने मन में सोचा कि यह कैसा कंजूस है, जो मुझे बाहर खाना खिलाने ले जा रहा है। मन ही मन वह खुश भी हुआ कि मुझसे बड़ा धन रक्षक और कोई नहीं है।
दोनो जन बाजार के लिये निकले, लक्ष्मीधर उसे हलवाई की दुकान पर ले गया और उसने हलवाई से पूछा, क्यूं भाई मालपुए ताजे हैं ? हलवाई ने जवाब दिया, अरे सरकार मालपुए तो मक्खन की तरह मुलायम हैं। लक्ष्मीधर ने धनपति की तरफ देख कर कहा कि जब यह मालपुए की तुलना मक्खन के साथ कर रहा है तो क्यों ना हम मक्खन ही खायें। धनपति को क्या एतराज हो सकता था। अब लक्ष्मीपति उसे बेकरी वाले के पास ले गया। वहां उसने पूछा कि क्यूं भाई मक्खन कैसा है? बेकरी वाला बोला महाशय मक्खन तो एकदम ताजा और तेल की तरह साफ है। लक्ष्मीधर फिर धनपति की तरफ मुखातिब हो बोला, आप इतनी दूर से आये हैं तो आप की खातिर मैं उत्तम चीज से ही करना चाहता हूं। इसके अनुसार तेल मक्खन से बेहतर है, चलिये उसे ही चख कर देखते हैं। ऐसा कह वह थके-हारे भूखे-प्यासे धनपति को तेली के कोल्हू पर ले गया और तेली से पूछने लगा कि हां भाई तुम्हारा तेल कैसा है? तेली ने तुरंत जवाब दिया कि क्या पूछते हो बाबूजी मेरा तेल तो एकदम पानी की तरह पारदर्शी और साफ है। इतना सुनना था कि लक्ष्मीधर मुड़ कर धनपति से बोला, नाहक ही आपको भी कष्ट दिया, अरे पानी तो हमारे पड़ोसी के यहां भी मिल जायेगा। चलिये घर चलते हैं। धनपति को अपना जवाब मिल गया था।
यह तो कहानी है पर अपने ही देश में हैदराबाद के निजाम भी हुए हैं। जिनकी आदतों के सामने ऐसे बहुत से धनपति और लक्षमीधर पानी भरा करते थे। कोशिश करता हूं कि जल्द ही निजाम साहब आपके सामने हों।

मंगलवार, 14 जुलाई 2009

गुरू, गुरू ही होता है.

"गुरू ने अपनी सात फिट की म्यान से तीन फिट की तलवार निकाल शिष्य की गरदन पर रख दी "
पूराने समय में शिष्य आश्रमों में रह कर शिक्षा ग्रहण किया करते थे। गुरू भी अपनी समस्त विद्यायें अपने होनहार विद्यार्थियों को सौंप उन्हें जीवन पथ पर अग्रसर होने का पथप्रदर्शित कर संतोष का अनुभव करते थे। समय के साथ-साथ गुरू शिष्य के रिश्ते भी बदलते गये। कुछ 'होनहार' अपने को गुरू से भी ज्यादा अक्लमंद समझने लग गये। ऐसे ही एक शिष्य की यह कहानी है।
एक मठ में एक बहुत ही योग्य गुरूजी पूरे तन-मन से अपने शिष्यों को अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा दिया करते थे। उनके यहां से शिक्षा प्राप्त युवकों को अनेक राज्यों में अच्छे पद प्राप्त हो जाते थे। उन्हीं के यहां सोमदत्त नाम का युवक शिक्षा ग्रहण किया करता था। वह काफी होनहार तथा मेधावी युवक था। गुरूजी भी उस पर विशेष ध्यान दिया करते थे। अपने लगाव के चलते उन्होंने उसे सर्वगुण संम्पन्न बना दिया। अब वह किसी भी तरह अपने गुरू से कम नहीं था। धीरे-धीरे उसमें घमंड ने स्थान बना लिया। उसे लगने लगा कि उम्र की ढलान पर खड़े गुरू से वह कहीं ज्यादा श्रेष्ठ है। लोग नाहक ही गुरू को सम्मान देते हैं। इसी द्वेष के मारे उसने अपने गुरू को द्वंद युद्ध की चुन्नौती दे दी। गुरूजी ने इस चुन्नौती को स्वीकार कर एक महीने बाद का दिन निश्चित कर दिया।
सोमदत्त ने अपने गुरू को ललकार तो दिया था पर उसके मन के किसी कोने में यह डर था कि शायद गुरू ने उसे सारे दांव ना सिखाये हों, इसीलिये वह छिप कर एक दिन अपने गुरू को अभ्यास करते देखने आया। उसने पाया कि उसके गुरू सात फुट की तलवार से अभ्यास कर रहे हैं। यह देख उसने भी वापस आ सात फुट की तलवार से अभ्यास करना शुरू कर दिया। निश्चित दिन अपार जन समुह के बीच दोनो योद्धा अपने अस्त्रों के साथ मैदान में उतरे। दोनों के हाथों में सात-सात फुट की म्यानें थीं। डंके पर चोट पड़ते ही सोमदत्त ने अपनी सात फुटी तलवार निकालने की कोशिश की, पर तब तक गुरूजी ने अपनी सात फुट की म्यान से तीन फुट की तलवार निकाल सोमदत्त की गरदन पर टिका दी। गुरूजी की जयजयकार होने लगी। सोमदत्त शर्मिंदगी से जैसे भूमी में गड़ा जा रहा था।

रविवार, 12 जुलाई 2009

न भूलने वाला जायका अमृतसर का.

एक चैनल पर विनोद दुआ जी को घूम-घूम कर लोगों को देश भर के जायके दिलवाते देख कर मुझे भी अपनी अमृतसर यात्रा की याद आ गयी। सारी दुनिया में, पवित्र नगर, अमृतसर स्वर्ण मंदिर के लिये मशहूर है। है ही ऐसी जगह जहां आकर मन को एक अद्भुत शक्ति मिलती है। लगता है कि कोई जरूर है जो सदा हमारे पर अपनी दया दृष्टि बनाये रख रहा है। यहां का "कडाह प्रसाद" जो शुद्ध देशी घी में मंदिर परिसर में ही बनाया जाता है अपने अद्भुत स्वाद के कारण एक अनोखी तृप्ति प्रदान करता है। शायद इसी के प्रभाव से अमृतसर की भोज्य सामग्री अपने आप में अनूठी है। मेरे इस प्रवास पर मेरे मौसेरे भाई (भाई कम दोस्त ज्यादा) जीवन जी का बड़ा सहयोग रहा था। चुन-चुन कर उन्होंने जो स्वाद चखाए, वह किसी नवांगतुक के लिये थोड़े समय में खोज पाना मुश्किल होता है। क्योंकि बाहर से आने वाले के लिये तो सभी दुकाने अमृतसर की ही होती हैं। उनमें से सिरमौर के यहां ले जाने के लिये किसी जानकार का होना जरूरी होता है। मैं उनका सदा शुक्रगुजार रहुंगा।
आप एक बार आकर यहां के ढाबों का स्वाद जीभ को ले लेने भर दें, मजाल है कभी वह इस स्वाद को भूल पाये। बात चाहे पीढियों से चले आ रहे 'केसर के ढाबे' की हो चाहे 'भ्राबां के ढाबे' की, इनके भरवां पराठे, दाल और मोटी मलाई वाला दही कितना भी खालें पेट भर जाता है पर मन नहीं। सारा खेल धीमी आंच और शुद्ध घी का होता है। यह इनकी ईमानदारी की ही बरकत है कि मंहगाई के इस जमाने में जबकि यह ग्राहक से कुछ भी वसूल सकते हैं, ये सिर्फ जायज कीमतों पर ही लोगों का पेट भरने का व्रत ले अपना काम करते जाते हैं।
अमृतसर की बात हो और यहां के कुलचों का जिक्र ना हो यह कैसे हो सकता है। यहां के कुलचे जब देशी घी में नहा कर निकलते हैं तो उनका रूप-रंग तथा उनमें भरे गये अनारदाने और किसमिस का स्वाद बड़े-बड़े उपवासियों को अपना उपवास तोड़ने पर मजबूर कर देते हैं। इन कुलचों का अभिन्न अंग होते हैं मसालेदार चने। जिनको बनाने का तरीका जानने के लिये देश के बड़े-बड़े पंचतारा होटलों के शेफ भी लालायित रहते हैं।
पूरे खाने की बात हो या चाट पकौड़ी की अमृतसर किसी बात में पीछे नहीं है। यहां के 'बृजवासी चाट भंडार' पर कभी चखी, आलू की टिक्की का जायका आज भी यह लिखते-लिखते मुंह में पानी ला दे रहा है। सादी आलू की टिक्की हो या सोयाबीन की पिठ्ठी से भरी दही, सोंठ और हरी चटनी के साथ या पनीर वाली, मिलती बहुत से शहरों में हैं पर इनके जैसा स्वाद अन्यत्र दुर्लभ है। एक बात और जब कभी भी आप यहां आयें तो पनीर की भुजिया खाना तथा पेड़ा ड़लवा कर लस्सी पीना ना भूलें। इसके अलावा आप यहां का स्वाद अपने साथ बांध कर भी ले जा सकते हैं। यहां की आलूबुखारा भरी बड़ियां या अनारदाने वाले पापड़, ये घर पर भी आपको अपनी यात्रा का स्वाद दिलवाते रहेंगे।
ऐसा नहीं है कि यहां सिर्फ शाकाहारी भोजन ही मिलता है। सुना है यहां का मांसाहार लोगों को लखनवी या हैदराबादी स्वाद भूलने पर मजबूर कर देता है। ऐसे रेस्त्रांओं पर जुटी भीड़ इस बात का साक्षी थी। पर मुझ जैसों के लिये वह स्वाद लेना मुश्किल था। सो उसका जायका तो आपको खुद ही लेना पड़ेगा जाकर।
तो कब जा रहे हैं अमृतसर बताईयेगा।

शनिवार, 11 जुलाई 2009

पान खाना स्वास्थ्यकर है. / संता ने भी पान खाया (-:

पान या तांबुल का प्रयोग भारत में कब से हो रहा है नहीं पता, पर प्राचीन काल से ही इसका उल्लेख सामने आता रहा है। इसने वह स्थान प्राप्त किया हुआ है कि पूजा अर्चना में इसे भगवान को भी अर्पित किया जाता है। अपने गुणों की खातिर इसे हमारी दिनचर्या में भी जगह मिली हुई है। आयुर्वेद में भी इसका उपयोग लाभकारी बताया गया है।
पर जैसी हमारी आदत है स्वाद के लिये हम अच्छी चीजों पर अपने 'प्रयोग' कर उन्हें कुछ हद तक बिगाड़ कर रख देते हैं। अब पान को ही लें, तो पता नहीं इसमें जर्दा, किमाम, सुगंधी और न जाने क्या-क्या मिला इसे भी नशीला बना कर ग्रहण किया जाता है जो स्वास्थ्य के लिये हानीकारक होता ही है, धीरे-धीरे इसका व्यसन लग जाता है, जो मुंह और गले के बहुत सारे रोगों को जन्म देने का जरिया बन जाता है। बहुतेरे लोग इसे मिठाई की तरह गुलकंद, नारियल का चूरा और ना जाने क्या-क्या डलवा कर खाते हैं (अब क्या छिपाना, मैंने खुद ऐसा बहुत बार खाया है, मीठे स्वाद के लिये) जिससे इसका फायदा लगभग खत्म हो जाता है।
पान का पूरा लाभ लेने के लिये उसमें जरा सी मात्रा में चूना, कत्था, जायफल, लौंग, ईलायची तथा पक्की सुपारी ड़ाल उपयोग करना चाहिये। कच्ची सुपारी का सेवन हानीकरक माना जाता है।
पान के सेवन से मुंह का स्वाद ठीक रहता है, जीभ साफ रहती है, गले के रोगों में भी फायदा होता है तथा चूने के रूप में शरीर को कैल्शियम की प्राप्ति हो जाती है। इसका उपयोग खाना खाने के बाद ही फायदेमंद रहता है। पर कुछ परिस्थितियों में इसे खाना मना है। जैसे थकान में, रक्तपित्त में, बहुत कमजोर व्यक्ति को, आंखें आने पर, शरीर में सूजन होने पर या गरम प्रकृति के लोगों के लिये इसका सेवन उचित नहीं होता।
*****************************************
संता ने शहर आ पहली बार लोगों को एक 'खोखे' से हरा सा पत्ता ले खाते हुए देखा तो उत्सुकतावश वह भी वहां जा पहुंचा, पूछने पर उसे पता चला कि इस चीज को पान कहते हैं और यह खाने के काम आता है। उसने भी कहा खिलाओ भाई। पनवाड़ी ने एक दिया उसे निगल संता बोला और दो, इस तरह पन्द्रह- बीस पान खा संता ने पैसे दिये और चला गया। दूसरे दिन पनवाड़ी को फिर संता दिखाई पड़ा उसने फिर मुर्गा फांसने के लिये आवाज लगाई, बाबूजी, पान खाते जाओ। संता ने चलते-चलते जवाब दिया, नहीं भाईया आज खाना खा के निकले हैं।

शुक्रवार, 10 जुलाई 2009

श्रीराम की बहन "शांता" इतनी उपेक्षित क्यूं ?

हिमाचल के कुल्लू जिले से करीब पचास की. मी. के फासले पर बंजार नामक इलाके में  ऋष्यश्रृंग ऋषि का मंदिर है जिसमें देवी शांता की मूर्ति भी स्थापित है। कर्नाटक में भी श्रृंगेरी नगर इन्हीं के नाम पर बसा हुआ है।


श्रीराम जिनका नाम बच्चा-बच्चा जानता है। उनके भाईयों के साथ-साथ उनकी पत्नियों के बारे में सारी जानकारी उपलब्ध है। उनके परिवार की बात छोड़िये उनके संगी साथियों, यहां तक की उनके दुश्मनों के परिवार वालों के नाम तक लोगों की जुबान पर हैं। उन्हीं श्रीराम की एक सगी बहन भी थी। यह बात शायद बहुत से लोगों की जानकारी में नहीं है।

भागवत के अनुसार राजा दशरथ और कौशल्या की एक पुत्री भी थी। जिसे उन्होंने अपने मित्र रोमपाद को गोद दे दिया था। उग्र स्वभाव के रोमपाद अंग देश के राजा थे। एक बार उनके द्वारा राज्य के ब्राह्मणों का अपमान कर दिये जाने के कारण सारे ब्राह्मण कुपित हो राज्य छोड़ कर अन्यत्र चले गये। इस कारण राज्य में अकाल पड़ गया। राजा को अपनी भूल मालुम पड़ी उन्होंने द्विजगणों से माफी मांगी और दुर्भिक्ष निवारण का उपाय पूछा। उन्हें बताया गया कि यदि ऋषि ऋष्यश्रृंग अंगदेश आ जायें तो वर्षा हो सकती है। राजा रोमपाद के अथक प्रयास से ऋषि ऋष्यश्रृंग अंगदेश आए। उनके आते ही आकाश में मेघ छा गये और भरपूर वर्षा होने लगी। इस पर खुश हो राजा रोमपाद ने अपनी गोद ली हुई कन्या का विवाह ऋषि के साथ कर दिया। बेचारी राजकन्या की नियति में वनवास था वह पति के साथ वन में रहने चली गयी।

शांता का उल्लेख अपने यहां तो जगह-जगह मिलता ही है, लाओस और मलेशिया की कथाओं में भी उसका विवरण मिलता है। पर आश्चर्य इस बात का है कि रामायण या अन्य राम कथाओं में उसका उल्लेख क्यूं नहीं है? क्यूं नहीं असमान उम्र तथा जाति में ब्याह दी गयी कन्या का अपने समाज तथा देश के लिये चुपचाप किये गये त्याग का कहीं उल्लेख किया गया? क्या सिर्फ गोद दे दिये जाने की वजह से ?

हिमाचल के कुल्लू जिले से करीब पचास की. मी. के फासले पर बंजार नामक इलाके में  ऋष्यश्रृंग ऋषि का मंदिर है जिसमें देवी शांता की मूर्ति भी स्थापित है। कर्नाटक में भी श्रृंगेरी नगर इन्हींके नाम पर बसा हुआ है। इनके वंशज सेंगर राजपूत कहलाते हैं जो अकेली ऋषिवंशी राजपूत कौम है। 

गुरुवार, 9 जुलाई 2009

यह 'घाट' तकदीर बदलने की क्षमता रखता है.

आज कल नदियों के घाटों की महत्ता ना के बराबर रह गयी है। दिन त्यौहार छोड़ लोग वहां जाने से कतराने लगे हैं। ऐसे समय में भी एक घाट ऐसा है जो अपनी शरण में आने वाले को दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की बख्शता है। वह घाट है राजनीति का। यहां बहने वाला जल रूपी 'कनक' अपने आश्रित की पीढियां तारने की क्षमता रखता है वह भी इसी जन्म में। बस एक बार यहां आना ही बहुत है।
यहां किसी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं है। कोई कैसा भी अनपढ गंवार हो, चोर-डकैत हो, किसी भी समुदाय का हो यहां कोई फर्क नहीं किया जाता। एक बार यहां डुबकी लगाते ही वह आम आदमी से ऊपर उठ जाता है। उसे अपनी महत्ता समझ आ जाती है। गीता का अर्थ वह सही मायनों में पा लेता है कि ना कोई भाई है ना बहन, ना मां है ना बाप, ना सगा है ना सम्बन्धी। सब माया है।
जिंदगी भर धर्म की ऐसी की तैसी करने वाला भी धर्म निरपेक्षता का परचम लहराने लगता है। पचासों लोगों को यमपुरी का रास्ता दिखाने वाला भी मानवाधिकारों का पोषक बन जाता है। कभी दो जून की रोटी का जुगाड़ ना कर सकने वाला भी यहां ड़ुबकी लगा इंसान का भोजन तो क्या दुनिया भर के सारे अखाद्य पदार्थों को हजम करने की क्षमता हासिल कर लेता है। इस घाट की यह विषेशता है कि यहां पूर्ण मनोयोग से अपने तन मन को ड़ुबो देने वाला अपने से बुजुर्गों को भी अपनी चरण वंदना करने के लिये मजबूर कर सकता है। यहां आने वाले किशोर व किशोरियां बाबा और अम्मा का संबोधन पा अपने अग्रजों के कान कतरने की क्षमता पा जाते हैं। इसके अलावा इस घाट की सबसे बड़ी विषेशता यह है कि यहां डूब कर पानी पीने वाला चाहे कितना बड़ा भ्रष्टाचारी हो, उसकी आत्मा पवित्र और निर्मल हो जाती है। उसे संसार का कोई दुख, कष्ट, विद्वेष नहीं व्यापता। उसे अलौकिक शक्तियां उपलब्ध हो जाती हैं। यदि द्वेष वश किसी बुद्धिहीन दुनियादार के कारण उसे कारागार के अंदर जाना भी पड़े तो इस घाट की महत्ता से वहां भी उसे पंचतारा सुविधायें उपलब्ध हो जाती हैं। यही नहीं वहां से निकलते ही उसका 'ओरा' यानि आभा मंडल और भी ज्योतिर्मय हो उठता है। एक कहावत है कि जिसने चंबल नदी का पानी पी लिया वह बागी हो जाता है। पता नहीं इस बात में कितनी सच्चाई है पर यह बात तो सोलह आना, राई-रत्ती सच है कि जिसने इस राजनीति के घाट पर डुबकी लगा ली उसके लिये इस संसार में कुछ भी अलभ्य नहीं रह जाता है। हां यह अलग बात है कि पहले तो यहां आना और फिर ड़ुबकी लगाना सबके वश की बात नहीं है। उसके लिये भी एक खास तरह के जिगरे की जरुरत होती है। शुक्र है भगवान का जो ऐसा जिगरा सब को नहीं देता।

बुधवार, 8 जुलाई 2009

उनकी मौत का जन्म हवन कुंड से हुआ था.

राजकुमार द्रुपद और द्रोण गुरु भाई थे। शिक्षा समाप्त होने पर दोनों अपने-अपने नगर को चले गये। पर समय के साथ जहां एक तरफ द्रुपद राजा बने वहीं द्रोण का गरीबी ने पीछा नहीं छोड़ा। गरीबी भी कैसी कि परिवार दाने-दाने को मोहताज हो गया। बालक अश्वस्थामा, जो द्रोण को जान से भी प्यारा था, के पोषण के लाले पड़ गये। उसको दूध के लिये रोता देख मांग कर लाये गये आटे को घोल कर उसे पिलाते माँ-बाप का कलेजा मुंह को आ जाता था। ऐसी हालत में द्रोण अपनी पत्नि के कहने पर अपने बचपन के मित्र द्रुपद के पास कुछ झिझकते हुए सहायता की आशा में जा पहुंचे। पर वहां का रवैया ही कुछ और था। द्रुपद बचपन की मित्रता को भुला बैठे थे। बातों ही बातों में उन्होंने अपने गरीब मित्र का मजाक बना ड़ाला। उनकी बातों ने द्रोण का कलेजा चीर कर रख दिया। उन्होंने मन ही मन द्रुपद को सबक सिखाने का प्रण कर ड़ाला।
समय बीतता गया। द्रोण द्रोणाचार्य बन कुरु राजवंश के राजकुमारों के गुरु बन गये। युद्ध विद्या में पारांगत करने के बाद जब गुरु दक्षिणा की बारी आयी तो उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने के लिये द्रुपद का राज्य मांग लिया। पांडवों ने द्रुपद को बंदी बना अपने गुरु के चरणों में ला डाला। फिर भी द्रोणाचार्य ने द्रुपद का आधा राज्य यह कहते हुए वापस कर दिया कि गरीबी अभिशाप होती है सो तुम्हें मैं जीवन यापन के लिये आधा राज्य वापस करता हूं।
संतान विहीन द्रुपद इस अपमान को कभी भूल नहीं पाये। पर पांडव रक्षित द्रोण को हराना भी उनके वश में नहीं था। तब पुत्र प्राप्ति कि इच्छा से उन्होंने कपिल मुनि के द्वारा पुत्रेष्टि यज्ञ करवाया। महाभारत कथा के अनुसार यज्ञ कुंड से दो बच्चों का जन्म हुआ, धृष्टद्युम्न और द्रोपदी का।
समय के साथ द्रोपदी महाभारत युद्ध का कारण बनी वहीं अपने पिता के अपमान का बदला लेने के लिये धृष्टद्युम्न ने जो द्रोणाचार्य के वध का संकल्प लिया था वह भी महासमर में पूरा किया गया।
फर्रूखाबाद जिले के एक गांव कम्पिल में वह प्राचीन हवन कुंड पुराविदों ने खोज निकाला है जिससे गुरु द्रोणाचार्य के काल के रूप में धृष्टद्युम्न ने जन्म लिया था। कभी पांचाल राज्य की राजधानी के रूप में विकसित कम्पिल आज एक नामालुम सा गांव भर रह गया है। पर विशेषज्ञों का अनुमान है कि यहां खुदाई करने पर महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त हो सकती है।

सोमवार, 6 जुलाई 2009

पपीता खाएं, स्वस्थ रहें.

प्रकृति की अनमोल सौगातों में से एक है पपीता। इसके पत्ते, बीज, फल, दूध सभी भागों का उपयोग लाभप्रद होता है। इसके कच्चे फल से निकला सफेद रंग का तरल द्रव्य जिसे "पपेन" के नाम से जाना जाता है, अपने आप में एक बेहतरीन औषध है।
इसके पत्तों को सुखा कर बनाया गया चूर्ण शहद के साथ लेने से पेट की वायु का शमन होता है। दिल की धड़कन काबू में रहती है।
कच्चे पपीते से निकले दूध जैसे द्रव्य को सुखा कर बनाया गया चुर्ण एक श्रेष्ठ पाचक होता है। खाने के साथ एक चौथाई चम्मच पानी के साथ लेने से तुरंत फायदा होता है। अजीर्ण रोग में, त्वचा रोगों में, यकृत के दोष में तथा पेट में कीड़े होने पर यह बहुत फायदेमंद रहता है।
कच्चे पपीते की सब्जी पेट के लिये बहुत मुफीद होती है। बुखार इत्यादि के दौरान इसका सेवन बहुत उपयोगी रहता है। वहीं पका पपीता पथरी, कृमि, अपच, कब्ज से मुक्ति दिलाता है। इसे खाने से मुंह के विकार दूर हो जाते हैं। मां के दुध में वृद्धिकारक होता है। पर यह अच्छी तरह से पका हुआ होना चाहिये।
पपीते का फल तो फल इसके बीज भी बहुत गुणकारी होते हैं। यह एक उत्तम कृमिनाशक है। बीजों को सुखा कर उनका चुर्ण बना कर एक छोटा चम्मच दो सप्ताह लेने से असर दिखाई देने लगता है।
देखा जाय तो बिमार पड़ने से पहले ही यदि अपनी सेहत का ख्याल रखते हुए अपने बुजुर्गों के परिक्षित घरेलु नुस्खों को, जो उनके वर्षों के अनुभवों का निचोड़ होते हैं, हम आजमा लें तो फायदा ही होगा, नुक्सान का सवाल ही नहीं पैदा होता क्योंकि ये सब घर में उपलब्ध खाद्य सामग्री या मसालों से ही बने होते हैं। जरूरत होती है सिर्फ उनके कहे पर विश्वास की।

रविवार, 5 जुलाई 2009

सदियों के अनुभव का निचोड़ है ये कहावतें

"कलशे पानी गर्म हो, चिडी न्हावे जब धूल,
जब चींटी अंडा ले चढ़े , वर्षा होसी भरपूर। "
जब घडे में पानी ठंडा न हो, चिडिया धूल में लोटने लगे, चींटियाँ अपने अण्डों को ले ऊंची जगहों पर जाने लगें तो समझ लेना चाहिए कि पानी बरसने वाला है।

"उल्टे गिरगिट ऊंचे चढ़े, बरखा होई भुई जल बढे।"
यदि गिरगिट पेडों पर उलटा चढ़ता दिखे तो बस पानी बरसा ही समझो।

"आगे रवि पीछे मंगल, जो आषाढ़ बरसे , अनमोल हो धरती, उमगें बाढ़।"
आषाढ़ के माह में यदि पहले मंगलवार और बाद में रविवार पड़े तो अच्छी बारिश होती है।

"टोली मिल की कांवली , आय थलां बैठत, दिन चौथे के पांचवें, जल-थल एक करत।"
चीलें जब जमीन पर आकर बैठें तो चार-पाँच दिनों में पानी अवश्य बरसता है।
***************************
चलते-चलते :- बरसात के मौसम में एक आदमी की कार कीचड़ मे फंस गयी। तभी उधर से संता अपने बैल के साथ निकला। उस आदमी ने संता से गुजारिश की कि उसकी गाड़ी को निकलवाने मे मदद करे। संता तो सदा दूसरों की भलाई ही करता रहता है। वह तुरंत तैयार हो गया। उसने अपने बैल को गाड़ी के आगे बांधा और बोला, चल बेटा भोलू जोर लगा। चल मुन्ना जोर से खींच, चल मोहन शाब्बाश जोर लगा के, हां बेटा मोती पीछे ना रहना खींच ले।संता का मोती नाम लेना था कि बैल ने एक झटके से गाड़ी खींच कर बाहर निकाल दी। गाड़ीवाले ने अचंभित हो पूछा, भाई जब तुम्हारे बैल का नाम मोती है तो तुमने पहले इसका नाम ना ले और तीन नाम क्यों पुकारे। संता मुस्कुराया और आदमी को एक किनारे ले जा धीरे से बोला, जनाब मेरा बैल अंधा है। तीन और नाम लेने से उसे लगता है कि वह अकेला नहीं है उसके साथ और भी बैल हैं सो वह काम में लग जाता है। यदि उसे पता चल जाये कि वह अकेला ही जुता हुआ है तो अड़ जाता है।
गाड़ी वाले भाई का मुंह खुले का खुला रह गया।

शुक्रवार, 3 जुलाई 2009

बरसात गर्मी से राहत के साथ और कुछ भी लाती है

इस बार गर्मी का मौसम कुछ ज्यादा ही लंबा खिंच गया था। आखिरकार इंद्र देवता की इजाजत से बरखा रानी ने धरती पर अपने कदम रखे। मौसम सुहाना होने लगा। पेड़-पौधों ने धुल कर राहत की सांस ली, किसानों की जान में जान आयी। कवियों को नयी कविताएं सुझने लगीं। हम जैसों को भी चाय के साथ पकौड़ियों की तलब लगने लगी। बस यहीं से शुरु हो गयी बेचारे शरीर की परेशानी। इस मौसम में जठराग्नि मंद पड़ जाती है। सब अपने में मस्त थे पर शरीर साफ सुन पा रहा था बरसात के साथ आने वाली बिमारियों की पदचाप। सर्दी, खांसी, फ्लू, डायरिया, डिसेन्टरी, जोड़ों का दर्द और न जाने क्या-क्या।
इसी आवाज को हमें भी सुन स्वस्थ रहते हुए स्वस्थ रहने की प्रकृया शुरु कर देनी चाहिये। क्योंकी बिमार होकर स्वस्थ होने से अच्छा है कि बिमारी से बचने का पहले ही इंतजाम कर लिया जाये।
यहां कुछ हल्की-फुल्की हिदायतें लिख रहा हूं जिनके प्रयोग से भला ही हो सकता है बुराई कुछ भी नहीं है :-
इस मौसम में जठराग्नि मंद पड़ जाती है। रोज एक चम्मच अदरक और शहद की बराबर मात्रा लेने से फायदा रहता है।
खांसी-जुकाम में एक चम्मच हल्दी और शहद गर्म पानी के साथ लेने से राहत मिलती है।
इस मौसम में दूध, दही, फलों के रस, हरी पत्तियों वाली सब्जियों का प्रयोग बिल्कुल कम कर दें।
नीम की पत्तियों को उबाल कर उस पानी को अपने नहाने के पानी में मिला कर नहायें। इसमें झंझट लगता हो तो पानी में डेटाल जैसा कोई एंटीसेप्टिक मिला कर नहायें।
आज कल तो हर घर में पानी के फिल्टर का प्रयोग होता है। पर वह ज्यादातर पीने के पानी को साफ करने के काम में ही लिया जाता है। भंड़ारित किये हुए पानी को वैसे ही प्रयोग में ले आया जाता है। ऐसे पानी में एक फिटकरी के टुकड़े को कुछ देर घुमा कर छोड़ दें। पानी की गंदगी नीचे बैठ जायेगी।
तुलसी की पत्तियां भी जलजनित रोगों से लड़ने में सहायक होती हैं। इसकी 8-10 पत्तियां रोज चबा लेने से बहुत सी बिमारियों से बचा जा सकता है।
खाने के बाद यदि पेट में भारीपन का एहसास हो तो एक चम्मच जीरा पानी के साथ निगल लें। आधे घंटे के अंदर ही राहत मिल जायेगी।
बाहर के खाने खासकर चायनिज खाद्य पदार्थों से इन दिनों दूरी बनाये रखें। ज्यादा देर से कटे फल और सलाद का उपयोग ना करें।

गुरुवार, 2 जुलाई 2009

जगह-जगह लिखे निर्देशों या चेतावनियों पर ध्यान न दें, बिंदास रहें

हमारे देश में जगह-जगह तरह-तरह की सलाहें, चेतावनियां और निर्देश लिखे मिल जाते हैं। चतुर सुजान लोग उनपर ध्यान दिये बगैर अपना काम करते रहते हैं। हम जैसे उन सब से घबड़ा कर अपनी ऐसी की तैसी करवाते रह जाते हैं। समय के साथ कुछ सोचने समझने लायक हुए तो सोचा कि जनता जनार्दन भी हमारे तजुर्बे का फायदा उठा ले।
जब कभी आप कहीं घूमने जायें और किसी होटल में ठहरें तो वहां लिखे नाश्ते या लंच के समय पर बिल्कुल ध्यान ना दें। जैसा कि अक्सर लिखा रहता है कि सबेरे का नाश्ता 7 से 10.30 तक। दोपहर का खाना 11.30 से 3 बजे तक। शाम की चाय 4 से 6.30 तक और रात का खाना 7.30 से 10 बजे तक। आप तो इस समय के चक्कर वक्कर में ना पड़ें, नहीं तो घूमने कब जायेंगे मेरे भाई।
छोटे बड़े शहरों में दिवारों पर आप को यह लिखा मिल जायेगा "यहां ..... मना है"। अब सोचिये सरकार प्रकृति की पुकार के निवारण के लिये प्रयाप्त सुविधायें तो मुहैया करवाती नहीं, ऊपर से ऐसे निर्देश। अब आप निवृत होने के लिये बैचैन हैं, तो क्या करेंगे? सीधी सी बात है भाई उस लिखावट वाली जगह के दस बारह फुट दायें-बायें तो कोई रुकावट नहीं होती ना !! लगे हाथ इसी के साथ एक बिल्कुल सच्ची घटना आप को बताता हूं। कलकत्ते में कालेज के जमाने की बात है। उन दिनों सड़क किनारे निवृत होने पर पुलिस पकड़ कर जुर्माना वगैरह कर देती थी। पर प्रकृति की पुकार को कोई कहां रोक पाता है। सो कालेज का एक लड़का दिवार की तरफ मुंह कर शुरु हो गया। तभी उसके पीछे से एक पुलिस वाला अपना ड़ंडा फटकारते हुए दौड़ा। मामला संगीन था पर लड़के की त्वरित बुद्धी ने उसे बचा ही नहीं लिया पुलिस वाले की भी ऐसी की तैसी करवा दी। हुआ यह कि लड़के ने निवृत होते होते ही अपनी जगह बदल ली। जब पुलिस वाले ने उसे डांटा तो लड़के ने कहा तुम भी तो यहीं कर रहे थे। अभी भी दिवाल पर निशान हैं। बेचारा पुलिस वाला हतप्रभ रह गया उपर से कालेज का इलाका उसने भागने में ही भलाई समझी।
अस्पतालों में लिखा रहता है कि महिलाओं को देखने का समय सुबह 8 से 11 तक। अब यदि कोई शाम को जा कर घूरे तो कोई क्या कर लेगा।
एक डाक्टर ने अपनी क्लिनिक नीचे से हटा पहले माले पर खोल ली और नीचे अपने मरीजों की सुविधा के लिये लिखवा दिया उपर जाने का रास्ता। लो इस पर तो उसके मरीज ही आने बंद हो गये। उन्हें कौन समझाता कि भाई उसने अपने पास आने का रास्ता बताया है ना कि एकदम उपर जाने का!!
यह तो सिर्फ एक बानगी है। ऐसी बहुत सी उल्टी सीधी नसीहतें दी रहती हैं जिन पर ध्यान न ही दें तो बेहतरी है।

बुधवार, 1 जुलाई 2009

समय के साथ बदलती माँ की नेक सलाहें

हर मां अपने बेटे के विवाह योग्य होने पर यही चाहती है कि उसकी भी एक सर्वगुण सम्पन्न बहू आ जाये। इसके लिये वह अपने पुत्र को तरह-तरह की हिदायतें भी देती रहती आयी है। समय के साथ-साथ ये हिदायतें भी बदलती रही हैं। जरा गौर फर्माइए :-
1960 - के दशक में मां की इच्छा होती थी कि लड़के की शादी अपनी जात बिरादरी में ही हो। ताकि अपने तीज त्योहारों का लड़की को भी पता हो।
1970 - में इस बात पर ज्यादा ध्यान दिया जाने लगा कि लड़की अपने ही धर्म को मानने वाली हो। यही वह अपने बेटे से भी कहती रहती थी।
1980 - आते-आते पुरानी बातों को तकरीबन नजरंदाज कर दिया गया। अब माएं बेटों को यह सलाह देने लगीं कि और कुछ ना सही पर लड़की अपनी हैसियत वाले परिवार से होनी चाहिये।
1990 - समय बीतता गया। आगे बढने की होड़ में युवकों का विदेश गमन कोई नयी बात नहीं रह गयी। तब माओं का भी सुर बदला और वे चाहने लगीं कि उनका बेटा अपने देश की कन्या से ही विवाह करे।
2000 - समय के साथ-साथ युवाओं की सोच से माएं चिंताग्रस्त रहने लगी थीं। लड़के अपने कैरियर के लिये अपनी उम्र की परवाह छोड़ने लगे थे। वे पहले अपने भविष्य को सुरक्षित करना चाहते थे। इसलिये विवाह की उम्र निकलती जाती थी। तब माएं यही चाहती और सलाह देती थीं कि समय रहते अपनी उम्र की लड़की से शादी कर ले।
2009 - देखते-देखते वर्तमान भी आ पहुंचा। विचार बदल गये। सोचें बदल गयीं। रहन-सहन के तौर-तरीके बदल गये। जाहिर है मांओं की सोच और सलाहों में भी बदलाव आया होगा। तो मां अब अपने बेटे से यही कहती है कि बेटा शादी कर ले। किसी से भी, "पर वह लड़की होनी चाहिये"।

विशिष्ट पोस्ट

"मोबिकेट" यानी मोबाइल शिष्टाचार

आज मोबाइल शिष्टाचार पर बात करना  करना ठीक ऐसा ही है जैसे किसी कॉलेज के छात्र को पांचवीं क्लास का कोर्स समझाया जा रहा हो ! अधिकाँश लोग इन सब ...