बुधवार, 29 दिसंबर 2021

यात्रा अंडमान की

कुटिल अंग्रेजों ने वीर सावरकर जी को जानबूझ कर ऐसी कोठरी में रखा था जिसके सामने फांसी और दंडस्थल थे ! जिससे सजायाफ्ता कैदियों को क्रूरता से दंड पाते देख वे टूट जाएं, पर उनकी यह मंशा कभी पूरी नहीं हुई ! आज तो इस जगह को राष्ट्रीय स्मारक घोषित कर दिया गया है। बिजली-पानी की सुविधा, उच्च कोटि के रखरखाव, साफ़-सफाई, लॉन और फूलों की क्यारियों से सुसज्जित होने के कारण जेल दर्शनीय हो गई है ! पर पुराने चित्रों और वर्णनों में इसकी जो तस्वीर उभरती है वो ह्रदय-विदारक है...........! 

#हिन्दी_ब्लागिंग 

देश के विभिन्न हिस्सों की यात्रा के बनिस्पत, सुदूर स्थित, अंडमान जाना कुछ अलग मायने रखता है ! वर्षों से वहाँ जाने का सपना पलने के बावजूद विभिन्न कारणों से वह साकार नहीं हो पा रहा था ! पर पिछले दिनों महामारी से कुछ हद तक उबरने के पश्चात अपनी #RSCB (Retired and Senior Citizen Brotherhood) संस्था द्वारा उपलब्ध अवसर को, काफी इट्स-बट्स, शंका-कुशंका, हाँ-ना, फेर-बदल, कुछ-कुछ विपरीत हालात-परिस्थितियों के बावजूद, बेजा ना जाने देने का निर्णय ले ही लिया ! इसमें दो साल पहले की केरल यात्रा के साथी श्री और श्रीमती बेदी जी तथा सुश्री कैलाश जी का साथ भी मिल गया। यात्रा 11 दिसम्बर से 16 दिसंबर तक की थी।

अंतरिक्ष में बाल रवि की अंगड़ाई 

बादलों का अद्भुत रेगिस्तान 

पहला दिन -

जेनिथ हॉस्पिटालिटी ट्रैवल एजेंसी द्वारा संचालित इस पर्यटन के लिए गो-एयर की सुबह छह बजे की फ्लाइट निश्चित की गई थी ! जिसके लिए रात के तीन बजे एयर पोर्ट पर सभी 28 सदस्यों को इकट्ठा होना था ! यह उड़ान बैंगलुरु होते हुए पोर्टब्लेयर जाती है जिसमें तकरीबन सात घंटे लग जाते हैं ! करीब सवा एक बजे पोर्टब्लेयर पहुंचने पर कोरोना की वजह से गहन जांच के कारण निकलते-निकलते तीन बज गए ! दिल्ली के ठंड के विपरीत यहां का तापमान 30*c को छू रहा था ! काफी गर्मी थी ! एयर पोर्ट से होटल नजदीक ही था फिर भी जब सेलुलर जेल देखने के लिए निकले, तब घड़ी चार का आंकड़ा पार कर ही गई थी। अच्छी बात यह थी कि यहां कहीं भी आने-जाने में 10-15 मिनट से ज्यादा समय नहीं लगता।




परिसर 

संग्रहालय 

सेलुलर जेल यानी कालापानी ! इसमें पानी के रंग का नहीं बल्कि काल का भाव समाहित है ! काल, यानी मृत्यु या मौत ! कालापानी शब्द का अर्थ मृत्यु जल या मृत्यु के स्थान से है, जहाँ से कोई वापस नहीं आ पाता है ! अंग्रेजों ने अपने विरोधियों, देशभक्त क्रांतिकारियों और दुर्दांत अपराधियों के लिए इस जगह जेल का निर्माण किया था ! किसी को कालेपानी की सजा का मतलब ही था कि उसको अपने बचे हुए जीवन में कठोर और अमानवीय यातनाएँ सहन करते हुए यहीं प्राण त्याग देने हैं ! यहां की सजा नरक तथा मौत की सजा से भी बदतर थी ! कई तो इस सजा को पाने पर यहां आने के पहले ही इसके खौफ से आत्महत्या कर लेते थे ! 






दस सालों में बनी इस सात विंग्स और तीन मंजिला इमारत के लिए ईंटें बर्मा से तथा बाकी लोहे इत्यादि का सामान इंग्लॅण्ड से लाया गया था। इस जेल में कुल 698 कोठरियां बनी थीं और प्रत्येक कोठरी 15×8 फीट की थी। इन कोठरियों में तीन मीटर की ऊंचाई पर रोशनदान बनाए गए थे ताकि कोई भी कैदी दूसरे कैदी से बात न कर सके। कोठरी में ताला कुछ इस ढंग से लगाया जाता था कि कितनी भी कोशिश कर ली जाए अंदर से उस तक हाथ नहीं पहुँच सकता था ! कहते हैं कि कोठरी में ताला लगा चाबियां अंदर ही फेंक दी जाती थीं पर उनको अंदर से ताले तक पहुँचाना नामुमकिन होता था। इसके अलावा हर पक्ष या खंड के सामने दूसरे खंड का पिछवाड़ा बनाया गया था जिससे कोई भी कैदी न एक दूसरे को देख सके ना हीं इशारों में बात कर सके ! नृशंसता की हद यह थी कि द्वीप के चारों ओर सैंकड़ों मीलों तक पानी होने और भागने की जरा सी भी गुंजायश न होने के बावजूद कैदियों को हथकड़ी-बेड़ी से जकड कर रखा जाता था ! पशुओं से भी ज्यादा बुरा बर्ताव और खाने के नाम पर रेत और कंकड़ मिला भोजन ! रोजमर्रा के कार्यों का लक्ष्य ऐसा जो पूरा हो ही ना पाए और इसी बहाने फिर कैदियों को अमानुषिक दंड देने का स्वनिर्मित विधान ! न्याय-अन्याय की कोई परिभाषा नहीं ! ना कोई पूछने वाला ना कोई देखने वाला ! कितनों को ही मार कर समुद्र में फेंक दिया जाता था, जिसका कोई हिसाब नहीं !

जेल की छत 

छत से दिखता सागर 


प्रयुक्त होने वाले ताला-चाबी 

एक साथ तीन जनों को फांसी दी जा सकती थी 

इसी लिवर को खींच फांसी दी जाती थी  

फर्श की तख्तियां
 

फांसी गृह के नीचे 8 x 8 का कमरा 
कुटिल अंग्रेजों ने वीर सावरकर जी को जानबूझ कर ऐसी कोठरी में रखा था जिसके सामने फांसी और दंड स्थल थे ! जिससे सजायाफ्ता कैदियों को क्रूरता से दंड पाते देख वे टूट जाएं, पर उनकी यह मंशा कभी पूरी नहीं हुई ! आज तो इस जगह को राष्ट्रीय स्मारक घोषित कर दिया गया है। बिजली-पानी की सुविधा, उच्च कोटि के रखरखाव, साफ़-सफाई, लॉन और फूलों की क्यारियों से सुसज्जित होने के कारण जेल दर्शनीय हो गई है ! पर पुराने चित्रों और वर्णनों में इसकी जो तस्वीर उभरती है वो ह्रदय-विदारक है !

जेल की कोठरियां 

इसी गलियारे के अंत में सावरकर जी की कोठरी है 



अंग्रेजी हुकूमत के दौरान ढाए गए अत्याचारों का सिलसिलेवार विवरण जब यहां आयोजित  ''लाइट और साउंड शो'' में सामने आता है, तो उपस्थित दर्शकों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं और आँखें नम हो जाती हैं ! खेद होता है कुछ पूर्वाग्रहों से ग्रसित लोगों की अक्ल और विचारों को देख-सुन कर, जिन्हें ना यहां के इतिहास की और ना ही यहां की परिस्थितियों की कोई जानकारी है पर सिर्फ अपना मतलब सिद्ध करने हेतु किसी व्यक्ति विशेष को लक्ष्य कर अमर्यादित टिप्पणियां करने से बाज नहीं आते !

साउंड और लाइट शो 


करीब सात बजे शो खत्म होने पर दो दिनों की थकान से निढाल तन और शहीदों की कुर्बानियों की गाथा से भारी मन को लेकर होटल पहुंचे ! किसी तरह भोजन निपटा सभी सदस्य साढ़े आठ, नौ बजे तक गहरी निद्रा की गोद में बेसुध हो चुके थे ! दूसरे दिन रॉस आइलैंड तथा नॉर्थ बे टापू तक जाने के लिए तरो-ताजा होने हेतु !

रविवार, 26 दिसंबर 2021

यदि सावन के अंधे को हरा-हरा ही दिखता है तो पतझड़ के अंधे को.........

कुछ लोग अपनी काबिलियत दिखाने के लिए बात-बात पर विदेशों के उदाहरण दे कर अपने को विद्वान साबित करने की कोशिश में लगे रहते हैं ! वैसे विडंबना ही है कि हमारे देश में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो अभी भी सदा विदेशियत से चौंधियाए रहते हैं ! देश और देशवासियों को कमतर आंकना उनके संस्कारों में शामिल हो चुका होता है ! वे भूल जाते हैं कि उनका अस्तित्व यहीं की मिट्टी-पानी-खाद से ही बना है ! पर ऐसे वसन-विहीन लोगों के पास आस्तीन ही कहाँ है, जो उसमें झाँक कर देख सकें..........!    

#हिन्दी_ब्लागिंग 

गलत बोलने-करने वाला यह अच्छी तरह जानता है कि यदि उनके कदाचरण का विरोध सौ जने करेंगे तो उसके पक्ष में भी दस लोग आ खड़े होंगे ! उन्हीं दस लोगों की शह पर वह अपनी करनी से बाज नहीं आता ! पत्र-पत्रिकाओं में ''ये उनके निजी विचार हैं'', लिख औपचारिक खानापूर्ति कर देने से समाज में फैलाई जाने वाली कडुवाहट कम नहीं हो जाती ! इसीलिए ऐसे लोगों और उनकी बातों को बिलकुल नजरंदाज करने की बजाए बीच-बीच में गलत बातों का विरोध होना बहुत जरुरी है ! यह विडंबना है कि हमारे देश में कुछ भी बकने की आजादी तो है, पर अपना फर्ज-नैतिकता निभाने की कोई विवशता नहीं है !

पंजाबी में एक कहावत है ''मुड़-मुड़ खोती बौड़ हेठां'' ! इन जैसे ''सज्जनों'' का भी यही हाल है ! कुछ भी हो जाए, कितना भी अच्छा हो जाए, पर इनका रेकॉर्ड अपनी पुरानी धुन पर ही किर्र-किर्र करता रहता है ! अपने विचारों से असहमत हर व्यक्ति इनको अपना विरोधी और मूर्ख लगता है पर साथ ही अपनी बुद्धि और अपने शब्द वेदमंत्र सरीखे महसूस होते हैं
अपना दही (काम-गुण-आचरण-व्यवहार) सभी को मीठा लगता है, पर उसकी गुणवत्ता का आंकलन दूसरों के द्वारा ही होता है ! यदि दूसरे उसे नकार देते हैं तो इस पर अपनी नाकामी और असफलता से कुंठित हो दूसरे सफल, कामयाब, सम्मानित लोगों को कमतर आंकना उस की आदत बन जाती है ! ऐसे लोग अपनी काबिलियत दिखाने के लिए बात-बात पर विदेशों के उदाहरण दे कर अपने को विद्वान साबित करने की कोशिश में लगे रहते हैं ! भले ही उसका औचित्य ना हो ! वैसे विडंबना ही है कि हमारे देश में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो अभी भी सदा विदेशियत से चौंधियाए रहते हैं ! देश और देशवासियों को कमतर मानना उनके संस्कारों में शामिल हो चुका होता है ! वे भूल जाते हैं कि उनका अस्तित्व यहीं की मिटटी-पानी-खाद से बना है ! पर ऐसे वसन-विहीन लोगों के पास आस्तीन ही कहाँ है, जो उसमें झाँक कर देखें !    

इस श्रेणी का इंसान यदि तथाकथित लेखक या स्तंभकार होगा तो वह जब तक किसी बाहरी फिल्म, पुस्तक, लेखक या फिर उनके रीति-रिवाजों का महिमामंडन नहीं कर देगा उसका स्तंभ कृतार्थ नहीं होता ! यदि शो बिजनेस में होगा तो अपने फूहड़ शो में देशी-विदेशी, अमीर-गरीब की तुलना कर अपनी भड़ास निकालता रहेगा ! गलती से वह नेता हो गया तो उसके लिए तो देश की आम जनता भेड़-बकरी से ज्यादा अहमियत नहीं रखेगी ! ऐसे लोगों को अपने यहां की हर सफल शख्शियत, परंपरा, रीति-रिवाज, मान्यता से प्रत्यूर्जता रहती है ! हर विदेशी चीज का महिमामंडन उनका शगल होता है ! अच्छाई किसी की भी हो उसे अपनाने में कोई बुराई नहीं है ! पर उसके सामने अपने इतिहास को नकार देना, अपने लोगों को कमतर आंकना, अपनी उपलब्धियों को भुला देना किसी भी मायने में क्षम्य नहीं हो सकता !  

एक आत्मश्लाघि अखबार के पूर्वाग्रह से ग्रस्त अपनी असफलताओं से कुंठित स्तंभकार द्वारा क्रिसमस के अवसर पर लिखे गए लेख में यीशु को दिए गए कष्टों को विस्तार से याद किया गया है ! अच्छी बात है ! संसार को राह दिखाने वालों को कभी भूलना भी नहीं चाहिए ! पर अपने महापुरुषों, महानायकों, शहीदों को समयानुसार क्यों नहीं उतने ही विस्तार से याद किया जाता, जिन्हें जिंदा रूई में लपेट कर जला दिया गया ! खौलते तेल में डाल कर मार डाला गया ! आरे से चिरवा दिया गया ! अपनी बात ना मानने पर उनकी बोटी-बोटी काट डाली गई ! मासूमों को जिंदा दीवारों में चिनवा दिया गया ! असमय हजारों-हजार इंसानों को असमय मौत के मुंह में धकेल दिया गया ! जिनके कारण, जिनकी बदौलत हम आज हम कुछ भी "बकने" को आजाद हैं ! क्या उनके प्रति हमारा-इनका कोई फर्ज नहीं है  ? 

इसी उपरोक्त तथाकथित बुद्धिजीवी द्वारा विदेशों में क्रिसमस के दूसरे दिन मनाए जाने वाले ''बॉक्स डे'' का जिक्र कर विदेश में डाकिए और अखबार बांटने वालों को उपहार देने को महिमामंडित करते हुए अपने लोगों पर सवाल दागा गया है कि क्या हमारे यहां ऐसा होता है ! इन महाशय के यहां शायद किसी को कभी कुछ भी देने की प्रथा ना हो, इसीलिए शायद इन्हें इस बात का ज्ञान भी नहीं है कि बाहर के देशों में यदि किसी को उपहार देने के लिए सिर्फ एक दिन निर्धारित है तो हमारे यहाँ साल भर मनाए जाने वाले अनगिनत त्योहारों पर सदा से ''सब को'' मेरा मतलब है ''सब को'' उपहार बांटने का चलन है ! घर में हाथ बंटाने वाले सहायकों को तो घर का ही सदस्य माना जाता है ! उनके अलावा खासकर होली, दशहरे और दीपावली पर तो आस-पास के सफाई, टेलीफोन, डाकिए, दूकान से घर तक सौदा पहुँचाने वाले कर्मचारी, चौकीदार यहां तक की रोज कपड़ों को प्रेस करने वाले भी स्नेहभाजन बनते हैं ! यदि इन महाशय ने ऐसा कभी कुछ ना किया हो, किसी खास मौके पर भी किसी को कुछ ना दिया हो तो उन्हें नेक सलाह है कि वे किसी को कुछ दे कर देखें, अच्छा ही लगेगा !    

पंजाबी में एक कहावत है ''मुड़-मुड़ खोती बौड़ हेठां'' ! इन जैसे ''सज्जनों'' का भी यही हाल है ! कुछ भी हो जाए, कितना भी अच्छा हो जाए, पर इनका रेकॉर्ड अपनी पुरानी धुन पर ही किर्र-किर्र करता रहता है ! अपने विचारों से असहमत हर व्यक्ति इनको अपना विरोधी और मूर्ख लगता है पर साथ ही अपनी बुद्धि और अपने शब्द वेदमंत्र सरीखे महसूस होते हैं ! 

शुक्रवार, 24 दिसंबर 2021

कहीं बहुत देर ना हो जाए

अभी कुछ दिनों से मीडिया पर एक क्लिप दिख रही है जिसमें एक व्यक्ति एक डेढ़-दो साल के बच्चे को गोद में उठाए अलग-अलग शराब की किस्मों का नाम लेता है और वह बच्चा नाम लिए गए लेबल को सामने रखी बीसियों बोतलों में खोज उसकी तरफ इशारा कर सही-सही पहचान बताता जाता है ! इस दौरान उसकी सफलता पर ''गुड ब्वाय'', ''बाव'', "ओये वाह", ''य्ये", ''क्या बात है, क्या बात है" के नारे गुंजायमान होते हैं ! साथ की महिला, जो उसकी ''मॉम" होगी, क्योंकि माँएं शायद अपने मासूम की ऐसी कुशाग्रता पर कभी खुश नहीं होंगी, अपने बच्चे की क्षमता पर हँसते-हँसते वारी जा रही है..................!!

#हिन्दी_ब्लागिंग 

वर्तमान ! हारी-बिमारी को छोड़ दें, वह तो अल्प कालीन है ! उसके अलावा समय बड़ा कठिन या कहें तो अराजक चल रहा है ! हर जगह असंतोष, दिशा हीनता, अज्ञानता, लिप्सा, अमानवीयता का बोलबाला होता चला जा रहा है ! चली आ रही मान्यताओं, परंपराओं, आस्थाओं को बिना उनकी उपयोगिता समझे-जाने दर किनार किया जा रहा है ! विज्ञों, चिंतकों, विद्वानों को देश के भविष्य की चिंता सताने लगी है ! वर्षों पहले की छेड़-छाड़ के बीजारोपण का असर अब सामने आने लगा है !  

संस्कार ! इसका मतलब हैशरीर, मन और मस्तिष्क की शुद्धि और उनको मजबूत करना ! जिससे मनुष्य  संसार में अपनी भूमिका आदर्श रूप मे निभा सके। हमारे देश-समाज में संस्कार का बहुत महत्व हुआ करता था ! संस्कार सिर्फ धार्मिक कृत्य ही नहीं होते थे ! इनमें वह सब कुछ समाहित होता था जो मनुष्य को मानव बना, उससे सारे संसार के कल्याण की कामना करवाता था ! पीढ़ी दर पीढ़ी ये परिवारों में धरोहर की तरह आगे बढ़ते-बढ़ाए जाते रहते थे ! घर के बड़ों-बुजुर्गों द्वारा बचपन से ही बच्चों को पढ़ाई के अलावा इनसे भी परिचित करवाया जाता रहा था ! जहां कहीं मौज-मस्ती के कारण कुछ लोगों ने गलत आचरण किया, उसका खामियाजा पूरे देश को भुगतना भी पड़ा ! जैसा कि एक प्रदेश के नशे की चपेट में बर्बाद होने का उदाहरण हम सबके सामने है ! हालांकि सभी लोग बुरे नहीं होते पर एक मछली या खटाई की एक बूँद सारे पानी या दुध को नष्ट कर धर देती है !

फिर आहिस्ता से चीनी खा कर बाप से झूठ बोलने वाले जॉनी का नाम घर-घर लिया जाने लगा ! हम्पटी-डम्पटी के दिवार से गिरने का दुःख बच्चों को सालने लगा ! भेड़ के बच्चे से ऊन का हिसाब मांगते-मांगते हम कब अपने खरगोश, चूहे, हाथी, बंदर, कबूतर, चींटी से अलग हो गए, पता ही नहीं चला

बाजार ! बच्चे तो, प्रतिमा बनाई जाने वाली मिट्टी की तरह होते हैं ! उन्हें जैसा ''मोल्ड'' यानी ढाला जाएगा, वे वैसे ही बन जाएंगे ! आज जब एकल परिवारों का चलन तेजी से बढ़ रहा है तो बच्चों को सही रास्ता दिखाने की जिम्मेदारी तो उनके अभिभावकों यानी उनके माता-पिता की ही बनती है ! पर यदि घर वाले अपने कार्यभार के कारण उन्हें सही ढंग से मोल्ड नहीं करेंगे तो बच्चे आसानी से बाहरी ताकतों यानी बाजार का शिकार बन विकृत रूप में ढल जाएंगे और विडंबना यही है कि ज्यादातर ऐसा ही हो रहा है ! शोध और खोज खबर के नतीजे बता रहे हैं कि कुछ समय पहले तक बाजार और उसका व्यापार 90% महिलाओं का आश्रित था ! पर आज बच्चों के सहारे उनकी 50% की आमदनी होने लगी है ! टीवी पर आने वाले विज्ञापन इस बात की पुष्टि कर ही रहे हैं ! बाजार ने अपने मतलब के लिए महिलाओं को प्रदर्शन की "चीज" और फल से होते हुए ऋषि (अ से अनार, ऋ से ऋषि) तक जाने वाले मासूमों को फल से  होते हुए जानवर (A for Apple से Z for Zebra) तक पहुंचा कर उन्हें अपना खिलौना बना डाला है ! यदि परिवार से सही मार्गदर्शन नहीं मिला तो बाजार तो बैठा ही है, उन्हें अमानुष बनाने हेतु ! 

विडंबना ! यदि बच्चों को उचित मार्गदर्शन नहीं मिला और वे बाजार के हत्थे चढ़ गए तो हमारा-समाज का भविष्य और भी भयावह रूप ले लेगा ! पर सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि बच्चों को संस्कार देगा कौन ? टूटते, मैं-तुम-हमारे तक सिमटते हुए परिवारों के ज्यादातर सदस्य पहले ही बाजार के षड्यंत्रों का शिकार हो उसी की बोली बोलने लगे हैं ! अभी कुछ दिनों से मीडिया पर एक क्लिप दिख रही है जिसमें एक व्यक्ति एक डेढ़-दो साल के बच्चे को गोद में उठाए अलग-अलग शराब की किस्मों का नाम लेता है और वह बच्चा नाम लिए गए लेबल को सामने रखी बीसियों बोतलों में खोज उसकी तरफ इशारा कर सही-सही पहचान बताता जाता है ! इस दौरान उसकी सफलता पर ''गुड ब्वाय'', ''बाव'', "ओये वाह", ''य्ये", ''क्या बात है, क्या बात है" के नारे गुंजायमान होते हैं ! साथ की महिला, जो उसकी ''मॉम" होगी, क्योंकि माँएं शायद अपने मासूम की इस कुशग्रता पर कभी खुश नहीं होंगी, अपने बच्चे की क्षमता पर हँसते-हँसते वारी जा रही है ! अब इस पर आगे क्या कहा जाए ! यह तो मात्र एक झलक है, हमारी तथाकथित मॉडर्न पीढ़ी की !  

पराभव ! कुछ सालों पहले तक ज्यादातर घरों में बच्चों को दो-तीन श्लोक रटवाने की प्रथा सी थी ! दादी-नानी द्वारा जाने-अनजाने वीरों, शहीदों, नायकों की कथा-कहानी सुना बच्चों को सद्गुणी बनाने का उपक्रम होता रहता था ! फिर आहिस्ता से चीनी खा कर बाप से झूठ बोलने वाले जॉनी ने घर-घर में प्रवेश कर लिया ! हम्पटी-डम्पटी के दिवार से गिरने का दुःख बच्चों को सालने लगा ! भेड़ के बच्चे से ऊन का हिसाब मांगते-मांगते हम कब अपने मासूम खरगोश, चूहे, हाथी, बंदर, कबूतर, चींटी जैसे साथियों से अलग हो गए, पता ही नहीं चला ! इन सब के साथ ही हमारे संस्कार भी तिरोहित होते चले गए !  

आशा ! पर कहते हैं ना कि कभी भी हताश-निराश नहीं होना चाहिए ! हर चीज का अंत निश्चित है ! जब अच्छा दौर नहीं रहा तो बुरा कैसे रह पाएगा ! घोर अँधेरी रात के बाद ही भोर की लालिमा उभरती है ! हमें बिना निराश हुए उसी का इंतजार करना है। हाँ ! इस अँधेरे के छटने तक अपना हौसला और विश्वास बनाए रखने के लिए हमें अपने स्तर पर हर संभव प्रयास भी करते रहना है !  

रविवार, 5 दिसंबर 2021

कुछ तो है, जो समझ से बाहर है

अचानक देश के दक्षिणी भाग से, दक्षिण अफ्रीका से आया एक आदमी खतरे का वायस बन जाता है ! सवाल यहीं से सर उठाता है कि जब सारी दुनिया खबरदार थी ! सभी जगह कड़ी एहतियात बरती जा रही थी तो वह शख्स भारत कैसे पहुंचा ? क्या जहाज पर चढ़ते समय उसकी चेकिंग नहीं हुई ? यदि उस समय वह ठीक था तो क्या यात्रा के दौरान वह संक्रमित हुआ ? हुआ तो कैसे ? यदि ऐसा हुआ भी तो क्या वह अकेला ही बीमार हुआ ? सच्चाई क्या है, आम जनता को कोई भी बताना नहीं चाहता, अपने-अपने स्वार्थों के तहत .........!      

#हिन्दी_ब्लागिंग 

कुछ तो है..! कुछ ऐसा, जिसका एहसास तो हो रहा है पर साफ-साफ समझ नहीं आ रहा ! महामारी के दो सालों बाद, जब लग रहा था कि दुनिया की दिनचर्या फिर ढर्रे पर आ रही है, सब कुछ, कुछ-कुछ नॉर्मल हो रहा है, तभी फिर एक नई डरावनी खबर संसार पर तारी होने लगती है, एक नए नाम और व्यवहार के साथ ! शुरुआत तो कोरोना की भी ऐसे ही हुई थी ! पर तब दुनिया उससे बिलकुल अनजान थी ! कोई राह नहीं थी ! कोई इलाज नहीं था ! अँधेरे में हाथ-पैर मार कर किसी तरह पार पाया गया था ! पर अब तो देश-दुनिया सभी के सचेत रहते, फिर कैसे खतरा मंडराने लगा !!

मजे की बात यह कि इस ज्यादा खतरनाक और तेज नए अवतार से पीड़ित व्यक्ति दो ही दिन में ठीक हो बैडमिंटन भी खेलने लगता है ! अब जो धुंधली तस्वीर बनती है, उसे कोई भी साफ करने की जहमत नहीं उठाता ! सिर्फ डराने पर जोर दिया जाता है

अचानक देश के दक्षिणी भाग से, दक्षिण अफ्रीका से आया एक आदमी खतरे का वायस बन जाता है ! सवाल यहीं से सर उठाता है कि जब सारी दुनिया खबरदार थी ! सभी जगह कड़ी एहतियात बरती जा रही थी तो वह शख्स भारत कैसे पहुंचा ? क्या जहाज पर चढ़ते समय उसकी चेकिंग नहीं हुई ? यदि उस समय वह ठीक था तो क्या यात्रा के दौरान वह संक्रमित हुआ ? हुआ तो कैसे ? यदि ऐसा हुआ भी तो क्या वह अकेला ही बीमार हुआ ? वैसे ही फिर खबर आती है कि अमेरिका से आए दो कोरोना पॉजिटिव देश के मध्य तक पहुँच गए ! क्या अमेरिका, जो महामारी से सबसे ज्यादा प्रभावित रहा था, वहाँ भी लापरवाही बरती जा रही है ? क्या वहाँ यात्रियों का परिक्षण नहीं किया जाता ? उस पर भारत आने पर क्या उनकी जांच नहीं हुई ? यदि सब ठीक था, तो वे कहां और कैसे संक्रमित हुए ?   


ये तो बाहर से आए लोगों की बात थी ! अपने ही देश में उसी दक्षिणी भाग से फिर एक व्यक्ति संक्रमित पाया जाता है ! वह तो कहीं बाहर भी नहीं गया था ! तो क्या जीवाणु यहां पहले से मौजूद था ? यदि हाँ, तो क्या वह कोरोना की पारी खत्म होने का इन्तजार कर रहा था कि वह हटे तो मैं आऊँ ! या फिर उस अकेले आदमी की प्रतिरोधक क्षमता ही सबसे कमजोर थी ! वैसे इन जीवाणुओं को दक्षिण का डोसा-सांभर ही क्यूँ सुहाता है ! जो वहीं से अपना शिकार चुनते हैं ! मजे की बात यह कि इस ज्यादा खतरनाक और तेज नए अवतार से पीड़ित व्यक्ति दो ही दिन में ठीक हो बैडमिंटन भी खेलने लगता है ! अब जो धुंधली तस्वीर बनती है, उसे कोई भी साफ करने की जहमत नहीं उठाता ! सिर्फ डराने पर जोर दिया जाता है ! सच्चाई क्या है आम जनता को कोई भी बताना नहीं चाहता, अपने-अपने स्वार्थों के तहत !

पिछले दिनों क्रिकेट के मैचों के दौरान खचाखच भरे स्टेडियम में बिना मास्क और दूरी बनाए बैठे लोग ! बेपरवाह नेताओं की बेतरतीब रैलियां ! दूषित वातावरण, अस्वच्छ माहौल में महीनों से रह रहे किसान ! त्योहारों के दौरान बाजार में एक दूसरे के कंधे छीलती हजारों की भीड़ ! इन सबके बावजूद कोरोना के घटते आंकड़े ! फिर अचानक सुस्त पड़े, मुद्दा-विहीन खबरिया चैनल सक्रीय हो उठते हैं, एक नए वैरिएंट ओमिक्रान का डोज पी कर !!       

विशिष्ट पोस्ट

"मोबिकेट" यानी मोबाइल शिष्टाचार

आज मोबाइल शिष्टाचार पर बात करना  करना ठीक ऐसा ही है जैसे किसी कॉलेज के छात्र को पांचवीं क्लास का कोर्स समझाया जा रहा हो ! अधिकाँश लोग इन सब ...