ये तो सिर्फ एक बानगी है कि कैसे, ऐसे कुछ ज्ञानियों ने दूध का दही और दही का रायता बना दिया होगा ! क्यूँ-कब-कैसे धीरे-धीरे कुछ का कुछ हो जाता है, क्या से क्या हो जाता है, महसूस ही नहीं हो पाता ! कब असल एक किनारे हो नए को जगह दे देता है, एहसास ही नहीं होता ! और एक बार चलन में आने के बाद वही असली लगने लगता है ! पुराने को कोई याद भी नहीं करता ! अंग्रेंजों ने अपनी सहूलियत के लिए, कुटिलता से कब, क्यूँ और कैसे भारत को इंडिया बना दिया, हम भारतवासियों को भी यह कहां पता चल पाया..............!!
#हिन्दी_ब्लागिंग
अपने देश में हजारों ऐसे स्थानों या जगहों के नाम सुनने-जानने को मिल जाएंगे जिनका उस स्थान से दूर-दूर का रिश्ता नहीं होता। ना हीं उस नाम के अर्थ से उसका कोई संबंध होता है। फिर ऐसा क्यों ! एक संभावना यह लगती है कि ऐसा जाने-अंजाने, जुबान पर ना चढ़ने वाले कलिष्ट शब्दों के सहजीकरण और बोलने की सहूलियतानुसार हो गया होगा। ऐसी जगहों पर शोध किया जाए तो एक ग्रंथ ही बन जाए। पिछली पोस्ट में दो-तीन अजीबोगरीब शब्दों वाले मुहावरों की बात उठी थी ! उसी बहाव में कुछ ऐसी जगहों के नाम याद आ गए जिनसे मेरा संबंध रह चुका है ! ऐसे ही मेरे दो प्रत्यक्ष-प्रमाणित उदाहरण पेश हैं -
सबसे पहले तो एक आपबीती ! जिसके याद आते ही आज भी हंसी आ जाती है ! बंगाल के साउथ चौबीस परगना जिले के बज बज इलाके में कैलेडोनियन (Caledonian) नाम की जूट मील थी (आज भी है) । तब मैं नार्थ चौबीस परगना में स्थित कमरहट्टी जूट मील में कार्यरत था। एक बार मैंने अपने क्लर्क को वहां के लिए एक ऑफिशियल पत्र का मजमून बता उसका ड्राफ्ट बनाने को कहा। जब वह लेटर टाइप कर लाया तो उसमें कैलेडोनियन की जगह कालीदुनिया लिखा हुआ था ! मैंने विस्मित हो पूछा, तो वह बोला कि यह नाम कभी सुना नहीं था और आपका उच्चारण समझ नहीं पाया, तो मैंने सोचा यह कालीदुनिया होगा सो......! उस दिन तो ना गुस्सा होते बना ना हीं हँसते, पर आज उस लम्हे को याद कर मुस्कराहट जरूर आ जाती है।
बज बज वही जगह है, जिसके फेरी घाट पर, 19 फरवरी 1897 में शिकागो की अपनी इतिहासिक यात्रा के बाद स्वामी विवेकानंद ने भारत भूमि पर पग धरे थे ! यहीं पर कोमागाटामारु जहाज आ किनारे लगा था
ये तो सिर्फ एक बानगी है कि कैसे ऐसे कुछ ज्ञानियों ने दूध का दही और दही का रायता बना दिया होगा ! क्यूँ-कब-कैसे धीरे-धीरे कुछ का कुछ हो जाता है, क्या से क्या हो जाता है, महसूस ही नहीं हो पाता ! कब असल एक किनारे हो नए को जगह दे देता है, एहसास ही नहीं होता ! और एक बार चलन में आने के बाद वही असली लगने लगता है पुराने को कोई याद भी नहीं करता ! अंग्रेंजों ने अपनी सहूलियत के लिए कुटिलता से कब, क्यूँ और कैसे भारत को इंडिया बना दिया, हम भारतवासियों को भी कहां पता चल पाया !!!
14 टिप्पणियां:
सादर नमस्कार ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (16-2-21) को "माता का करता हूँ वन्दन"(चर्चा अंक-3979) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
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कामिनी सिन्हा
कामिनी जी
मान देने हेतु अनेकानेक धन्यवाद
बहुत सुन्दर और जानकारीपरक।
शास्त्री जी
हार्दिक आभार! स्नेह बना रहे
ये तो सिर्फ एक बानगी है कि कैसे ऐसे कुछ ज्ञानियों ने दूध का दही और दही का रायता बना दिया होगा ! क्यूँ-कब-कैसे धीरे-धीरे कुछ का कुछ हो जाता है, क्या से क्या हो जाता है, महसूस ही नहीं हो पाता ! कब असल एक किनारे हो नए को जगह दे देता है, एहसास ही नहीं होता ! और एक बार चलन में आने के बाद वही असली लगने लगता है पुराने को कोई याद भी नहीं करता ! अंग्रेंजों ने अपनी सहूलियत के लिए कुटिलता से कब, क्यूँ और कैसे भारत को इंडिया बना दिया, हम भारतवासियों को भी कहां पता चल पाया !!!
वाकई।
सधु जी
अनेकानेक धन्यवाद
कुछ ऐसे तथ्यों को आप उठाते हैं, जिससे ज्यादातर लोग अपरिचित होते हैं..इन नायाब जानकारियों से रूबरू कराने के गगन जी आपका शुक्रिया..
जिज्ञासा जी
हौसलाअफजाई के लिए हार्दिक आभार
जी बिल्कुल सही कहा जैसे चट्टोपाध्याय से चैटर्जी, बंधोपाध्याय से बैनर्जी ।
बढ़िया लेख ।
संगीता जी
बिल्कुल! पर गांगुली गंगोपाध्याय हो गए 😀
सही लिखा है आपने ... हम वैसे भी बहुत कुछ सहज ही मान जाने वाले लोग हैं ...
खुद ही साजिश का हिस्सा बन जाते हैं अक्सर ...
नासवा जी
बिल्कुल
नई नई जानकारियों का खजाना है ये ब्लॉग, सच ही कहा आपने कई बातों से अंजान है हम सभी, बड़ी सहजता के साथ स्वीकार लेना कुछ भी हमारे स्वभाव मे है,सुनकर रह जाते है, सच जानने की कोशिश नही करते है, बहुत ही बढ़िया लेख, नमन आपको
ज्योति जी
अनेकानेक धन्यवाद
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