आज बहुत से लोग एक दल और उसके अनुयायियों को नेहरू विरोधी बता कटुता फैलाने की कोशिश में हैं ! उनसे भी एक सवाल है कि क्या नेहरू विरोध इन्हीं कुछ वर्षों से आरंभ हुआ है ? पहले क्या उनका विरोध कभी नहीं हुआ ? यदि वे सर्वमान्य नेता थे ! उनका हर कदम देश की भलाई के लिए था ! यदि वे सिर्फ देश और उसके नागरिकों का भला चाहते थे, तो उस समय सुभाष चंद्र बोस, सरदार पटेल, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, अम्बेडकर, जय प्रकाश नारायण जैसे कई-कई नेता उनसे अलग विचार क्यों रखते थे ! क्या ये लोग देश का भला नहीं चाहते थे ..............!!
#हिन्दी_ब्लागिंग
आज पक्ष-विपक्ष दोनों अपने-अपने हिसाब से देश के पहले प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू का नाम ले रहे हैं। एक उन्हें सर्वगुण संपन्न नेता के रूप में पेश कर रहा है तो दूसरा देश की कई-कई विफलताओं का जिम्मेदार उन्हें मान रहा है। इस विवाद में ना पड़ते हुए, करीब दस साल पुरानी यह पोस्ट एक अलग सी सच्चाई सामने ला कर रख रही है !
नेहरू जी को शांति दूत के रूप में खूब प्रचारित किया गया है, पर नोबेल पुरस्कार फाउंडेशन ने भारत के इस पहले प्रधान मंत्री के नाम पर ज्यादा विचार नहीं किया ! हालांकि चयन की सारी कार्यवाही गोपनीय होती है। लेकिन जब इस समिति ने 1901 से 1956 तक का पूरा ब्योरा सार्वजनिक किया तब सामने आया कि इस फाउंडेशन ने भारत के पहले प्रधान मंत्री के नाम को कभी गंभीरता से नहीं लिया। वह भी एक-दो बार नहीं, पूरे ग्यारह बार उनके नाम को खारिज किया गया।
नेहरू जी की अगुवाई में कई बड़े संयंत्र लगे, जिन्हें वे मंदिर की संज्ञा देते थे ! पंचवर्षीय योजनाएं लागू हुईं ! लोकतत्र मजबूत हुआ ! सामाजिक सुधार के लिए भी कमोबेश काम हुआ ! पर वे भी तो इंसान थे ! भूल-चूक उनसे भी हुई होगी ! जिसे मान लेने में कोई बुराई तो नहीं ही है।
सबसे पहले 1950 में नेहरू जी के नाम से दो प्रस्ताव नोबेल शांति पुरूस्कार के लिए भेजे गए थे। उन्हें अपनी गुटनिरपेक्ष विदेश नीति और अंहिंसा के सिद्धांतों के कारण नामांकित किया गया था। पर उस समय यह सम्मान फिलिस्तीन में मध्यस्थता करने के उपलक्ष्य में रॉल्फ बुंचे को दिया गया था।
1951 में नेहरूजी को तीन नामांकन हासिल हुए ! पर उस बार फ्रांसीसी ट्रेड यूनियन नेता लियोन जोहाक्स को चुन लिया गया।
1953 में उनके लिए बेल्जियम के सांसदों सहित तीन प्रस्ताव भेजे गए थे ! पर पुरूस्कार गया द्वितीय विश्वयुद्ध में अमेरिकी सेनाओं का नेतृत्व करनेवाले जॉर्ज सी. मार्शल की झोली में।
1954 में नेहरू जी को फिर दो नामांकन प्राप्त हुए, पर इस बार गजबे हो गया, जब पुरूस्कार का हकदार किसी इंसान को नहीं बल्कि संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त कार्यालय को बना दिया गया।
अंतिम बार 1955 में फिर एक बार उनके नाम को प्रस्तावित कर भेजा गया ! पर तब यह पुरूस्कार किसी को ना देकर, इसकी सारी राशि पुरस्कार संबंधी विशेष कोष में जमा कर दी गयी थी।
आश्चर्य की बात है कि हम जिन्हें दुनिया भर में शांति की अलख जगाने वाला, पंचशील का सिद्धांत लाने वाला, भविष्यदृष्टा, देश का निर्माता और ना जाने क्या-क्या मानते आए हैं, उसे इस विश्व प्रसिद्ध फांउडेशन ने मान्यता ना दे सिरे से ही नकार दिया ! दो-तीन बार नहीं पूरे ग्यारह बार अनदेखी कर दी गई ! सवाल तो कई उठते हैं ! क्या यह आभामंडल जबरन रचा गया था ! देशवासियों की नज़र में विश्व के अग्रणी नेता के रूप में स्थापित करने के लिए मिथक गढ़े गए थे ! सर्वमान्य नेता के रूप में प्रतिष्ठित किया गया था !
आज बहुत से लोग एक दल और उसके अनुयायियों को नेहरू विरोधी बता कटुता फैलाने की कोशिश में हैं ! उनसे भी एक सवाल है कि क्या नेहरू विरोध इन्हीं कुछ वर्षों से आरंभ हुआ है ? पहले क्या उनका विरोध कभी नहीं हुआ ? यदि वे सर्वमान्य नेता थे ! उनका हर कदम देश की भलाई के लिए था ! यदि वे सिर्फ देश और उसके नागरिकों का भला चाहते थे तो उस समय सुभाष चंद्र बोस, सरदार पटेल, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, अम्बेडकर, जय प्रकाश नारायण जैसे कई-कई नेता उनसे अलग विचार क्यों रखते थे ! क्या ये लोग देश का भला नहीं चाहते थे ?
यह सच है कि नेहरू जी की अगुवाई में कई बड़े संयंत्र लगे, जिन्हें वे मंदिर की संज्ञा देते थे ! पंचवर्षीय योजनाएं लागू हुईं ! लोकतत्र मजबूत हुआ ! सामाजिक सुधार के लिए भी कमोबेश काम हुआ ! पर वे भी तो इंसान थे ! भूल-चूक उनसे भी हुई होगी ! जिसे मान लेने में कोई बुराई तो नहीं ही है।
वैसे बताते चलें कि बापू गांधी का नाम भी पांच बार नोबेल के लिए प्रस्तावित किया गया था पर.......