मंगलवार, 8 दिसंबर 2015

सनातन हैं, विश्वास और विश्वासघात

आम आदमी सब समझता है, जानता है, गुनता भी है पर पता नहीं क्यों मौका आने पर फिर झांसे में आ, विश्वास कर धोखा खा जाता है। जब तक होश संभालता है, तब तक तो काम हो चुका होता है और वह रह जाता है अपनी भूल की कीमत चुकाने को.......        

इंसान ने एक-दूसरे पर विश्वास, भरोसा या यकीन करना शायद अपने आभिर्भाव के साथ ही अपना लिया होगा। जिसकी शुरुआत उसके जीवन में शैशवावस्ता से ही हो जाती रही है। इसका उल्लेख हजारों साल से होता भी चला आ रहा है। फिर चाहे वह पौराणिक काल हो, प्राचीन काल हो, ऐतिहासिक काल हो या फिर वर्तमान काल लोग एक दूसरे की बातों को सहज भाव से लेते रहे, उन्हें गुनते रहे एक दूसरे पर भरोसा करते रहे, विश्वास करते रहे, क्योंकि इसके बिना जिंदगी सुगम नहीं रह पाती। उसका आधार ही आपसी प्रेम और विश्वास है।  पर जैसे हर काल में हर तरह के लोग होते रहे हैं, अच्छे भी बुरे भी, चंट भी चालाक भी तो ऐसे ही कुछ लोगों ने दूसरों के भोलेपन का लाभ ले इस पारस्परिक समझ का हर काल में गलत फ़ायदा भी उठाया। जिसका उल्लेख, किस्से-कहानियों से लेकर साक्षात भी, हमें मिलता रहा है। फिर भी यह भावना कभी ख़त्म नहीं हुई। 

अनादिकाल से ऐसा होता आया है कि अपने स्वार्थ के लिए किसी ने दूसरे का भरोसा तोड़ उसके साथ विश्वासघात कर अपने दुष्कर्म को अंजाम ना दिया हो। फिर चाहे वह रावण हो जिसने सीता का भरोसा याचक बन तोड़ा या फिर इंद्र का छल हो, या फिर महाभारत की बात हो। आधुनिक इतिहास तो इससे भरा पड़ा है। चाहे देश हो या विदेश अधिकांश राजे-रजवाड़ों, बादशाहों-बेगमों, मठों-धर्माधिकारियों, आम जनों को विश्वासघात से दो-चार होना ही पड़ता रहा है। इतने सारे उदाहरणों, सबूतों के बावजूद इंसान के मन से यह भावना कभी ख़त्म नहीं हुई यह तो अच्छी बात है पर साथ ही विश्वासघातिये भी तो बने रहे। हालांकि उनकी संख्या नगण्य सी होती थी। पर वर्तमान समय में तो लगता है कि सब कुछ उलट-पुलट हो कर रह गया है। बुराई पर अच्छाई की जीत, भले का बोलबाला, दोषी को उसके कर्मों का फल, यह सब अब गुजरे जमाने की बातें लगती हैं। झूठ-मक्कारी-विश्वासघात का बोलबाला हो रहा है। देश-भक्ति, ईमान, धर्म, इंसानियत, परोपकार सब को पीछे छोड़ किसी भी कीमत पर अपने फायदे को हासिल किया जा रहा है। राजनीती तो इसका अखाड़ा बन कर रह गयी है। जनता से उलटे-सीधे, सच्चे-झूठे वादे कर सत्ता प्राप्त कर अपना उल्लू सीधा करने का जैसे चलन ही चल पड़ा है। आम आदमी सब समझता है, जानता है, गुनता भी है पर पता नहीं क्यों मौका आने पर फिर झांसे में आ, विश्वास कर धोखा खा जाता है। जब तक होश संभालता है, तब तक तो काम हो चुका होता है और वह रह जाता है अपनी भूल की कीमत चुकाने को।    विश्वास और विश्वासघात      

ऐसा भी नहीं है कि सब बुरा ही बुरा है पर जो भी अच्छाई बची है लगता है वह तटस्त है, बिखरी हुई है, दिग्भर्मित है, उसमें एकजुटता नहीं है या फिर हिम्मत नहीं जुटा पाती बुराई पर पुरजोर हमला करने की। ऐसा जब तक रहेगा तब तक अधिकांश लोग कुढ़ने के सिवाय और कुछ कर भी नहीं सकेंगे !!    

2 टिप्‍पणियां:

कविता रावत ने कहा…

जहाँ विश्वास होता है वहीँ विश्वासघात छुपा रहता है

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

वही तो, अच्छाई के साथ बुराई जुडी ही रहती है !

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