शुक्रवार, 11 दिसंबर 2015

अथ श्वान-पुत्र गाथा

वो तो धरम प्भाजी अच्छे समय पर कुत्ते के खून वाला संवाद बोल-बाल कर निकल गए नहीं तो पता नहीं आज उसके लिए उन्हें किस-किस को क्या-क्या सफाई देनी पड़ती !

दो दिन पहले कुत्तों को पकड़ने वाले सरकारी दस्ते को, तरह-तरह की अौपचारिकताएं पूरी करने, जाने किस-किस से अनुमति लेने के बाद मौहल्ले के कुत्तों के साथ चोर-पुलिस खेल कर खाली हाथ जाना पड़ा । चोर पार्टी का एक भी सदस्य उनके हत्थे नहीं चढ़ा। दस्ते की गाडी, उनके हथियार और गंध पाते ही सारे कुकुरवंशी अपनी सुरक्षा-गाहों में जा छिपे। दस्ते के जाने के बाद आधे से अधिक विजयी खिलाड़ी तो दो मंजिले फ्लैटों की छतों से भी उतरते दिखाई दिए। दाद देनी पड़ेगी इनके अपने सुरक्षा तंत्र, खबर प्रणाली और आपसी ताल-मेल की। मजाल है एक भी श्वान पुत्र को परिवार से बिछुड़ना पड़ा हो। भले ही दिन भर एक दूसरे पर भौंकियाते रहें पर मुसीबत आने पर सबने एकजुट हो अपने को बचाया।    
कहते हैं कि कुत्ता आदमी को काटे तो खबर नहीं बनती। पर उधर 36 गढ़ में तो इनके आतंक के बारे में रोज ही खबरें बनने लग गयीं थीं। छोटे-छोटे मासूम बच्चों पर इनका आक्रमण तकरीबन रोज की बात हो गयी थी। वही हाल इधर दिल्ली का भी है। हर गली-मौहल्ले में बच्चों से ज्यादा तादाद कुकुरों की हो गयी है। बच्चे इनके रहमो-करम पर खेलते हैं जिसके लिए उन्हें बिस्कुट इत्यादि की घूस भी देनी पड़ती है। संख्या की अधिकता को देखते हुए यहां तो इन्होंने अपने लिए घर भी बांट रखे हैं, अपने-अपने हिस्से के घरों के मुख्य द्वार पर सिर्फ
कालिया, भूरेलाल, लंगडु या कानिए को ही देखा जा सकता है। यह माना जाता था कि कुत्ते की भूख कभी भी नहीं मिटती या फिर वह हर चीज पर मुंह मार देता है, पर आजकल के श्वान पुत्र "सोफिस्टिकेटेड" हो गए हैं। खाना दिखते ही मुंह नहीं मारते मुंह फेर कर चल देते हैं, भले ही बाद में सबकी नज़र बचा उस पर 'मुंह' साफ़ करते हों ! आखिर पेट भी तो कोई चीज है। वैसे भी रोज-रोज की वही रोटी-चावल अब इन्हें नहीं लुभाते। हाँ, बिस्कुट, पिज्जा वगैरह इनकी कमजोरी हैं। उन्हें ना नहीं करते।

बात हो रही थी इनकी बढ़ती आबादी की और गलियों में एकछत्र राज की। मजाल है कि कोई मानुष-जात इन पर हाथ उठा दे ऐसी भनक लगते ही सब एक झंडे के नीचे आ आतताई पर पिल पड़ते हैं। इनको भी मालुम है कि इनके नाम से देश में कैसी-कैसी बहसें शुरू हो जाती हैं। इनके लिए भी कानून बन चुके हैं। आदमी से ज्यादा
इन्हें भी ऐसी खबरों की जानकारी रहती है :-)
इनकी औकात हो चुकी है। तो फिर डर कैसा! अब पहले जैसी बातें भी नहीं रह गयीं जब कहा जाता था कि कुत्ते की तरह दुम दबा कर भाग गया। अब तो ये दिवाली पर भी कहीं दुबके नज़र न आ, आतिशबाजी का खुल कर मजा लेते  दिखते हैं।  वो तो धरम प्भाजी अच्छे समय पर कुत्ते के खून वाला संवाद बोल-बाल कर निकल गए नहीं तो पता नहीं आज  उसके लिए उन्हें किस-किस को क्या-क्या सफाई देनी पड़ती। सफाई तो लोगों को देनी पड़ती है जब दफ्तर में देर होने का कारण वे कुकुर-ध्वनि को बताते हैं। कौन विश्वास करेगा कि आधी रात को घर के बाहर पंचम सुर में मुंह उठा कर आलापे जा रहे कुकुर-राग से या फिर दूर के किसी यार से ऊंची आवाज में उनके लगातार वार्तालाप से आपकी नींद पूरी नहीं हो पाने के कारण आप देर से दफ्तर पहुंचे हो। पर और कुछ हो ना हो इंसानों ने अपने जैसी जाति-भेद की बुराई इनमें भी रोप दी है। इनमें भी क्लास-भेद का भाव डाल दिया है। इनमें एक वे होते हैं जिनके लिए हर चीज ब्रांडेड ली जाती है, बड़े शहरों में उनके लिए "स्पा" तक खुल गए हैं। उनके तेवर ही अलग होते हैं। उनके महलों के आगे कभी ये "रोड़ेशियन" आ जाएं तो अपनी भारी-रोबदार आवाज में वे तब तक भौंकियाते रहेंगे जब तक सामने वाला वहां से चला ना जाए। पर उनकी शेखी तब हवा हो जाती है जब सुबह-शाम उन्हें चेन में बांध, दिशा-मैदान के लिए सडकों पर लाया जाता है, तब ये गली के शेर उसकी हवा ही बंद कर देते हैं। बेचारा अपने मालिक के पीछे दुबका-दुबका सा किसी तरह फारिग हो निकल लेता है। जो भी हो आजकल अंग्रेजी की कहावत के अनुसार इनके दिन फिरे हुए लगते हैं।      

8 टिप्‍पणियां:

अन्तर सोहिल ने कहा…

मुझे तो कुत्ते जैसा वफ़ादार, केयरफुल और दोस्ताना जीव कोई नहीं लगता। सबसे बुरे जीव इस जगत में है तो वो हैं बन्दर
काश कुत्तों की बजाय बन्दरों से छुटकारा दिलाने के लिये भी सराकारी तंत्र कोई कदम उठाये
वर्ना हनुमान भक्तों ने तो केले चने खिला-खिलाकर इनकी आबादी इतनी बढा दी है कि एक दिन धरती पर दोबारा से मनुष्य नही बन्दरों का ही साम्राज्य होगा

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

Planet of Apes, :-)
आबादी किसी की भी बढ़ जाए परेशानी का सबब बन जाती है। धरती पर सबसे भारी होने जा रही अपनी जन-संख्या को ही लें ! देश की कोई योजना ही सफल होने में ही नहीं आती !!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (13-12-2015) को "कितना तपाया है जिन्दगी ने" (चर्चा अंक-2189) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

आभार, शास्त्री जी

जमशेद आज़मी ने कहा…

जैसा कि तस्‍वीर में दिख रहा है कि कुत्‍तों के साथ इंसान असंवदेनशीन बर्ताव कर रहे हैं। पर अावारा कुत्‍तों का भी पुनर्वास होना चाहिए। जरूरत है कि भारत कल्‍याणकारी राज्‍य में तब्‍दील हो। चूंकि हमारा देश राजनैतिक असंवेदनशीलता के कारण कभी भी कल्‍याणकारी राज्‍य के रूप में विकसित नहीं हो पाया है। यहां इंसानों का तो पुनर्वास हो नहीं पाया। कुत्‍तों की चिंता कौन करे।

कविता रावत ने कहा…

पहले सरकार इंसानों को तो मिले आसारा दें ...फिर

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

बहुत ही कम प्रतिशत होगा ऐसे लोगों का जो बेवजह जानवरों को सताते होंगे। कुछ फैशन सा बन गया है हाय-तौबा मचाना। एक जरिया सा हो गया है खबरों में आने का। ऐसे लोगों को कभी एक भी सड़क पर सोये बच्चे को अपने घर में आश्रय देते नहीं देखा। ऊपर की घटना के सिलसिले में जब लावारिस कुत्तों की पकड़-धकड़ हो रही थी तो यहाँ की महिलाऐं उस श्वान-पुत्री, जिसके माँ बनाने की गुंजाइश थी, को बचाने के लिए घरों के बाहर आ गयीं थीं।

बी एस पाबला ने कहा…

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