सोमवार, 7 दिसंबर 2015

खामियां नहीं खूबियां खोजिए

विडंबना है कि हमारी, हमारे परिवार की, हमारे बच्चों की सेहत की हिफाजत के लिए, उनकी जान को जोखिम से बचाने के लिए पुलिस को हमारे पीछे पड़ना पड़ता है, हमारे लिए दंड निर्धारित करना पड़ता है। चाहे बात सिगरेट की हो, शराब की हो, स्पीड की हो या हेल्मेट की हो, या फिर इस नए नियम की, हम अपनी ही परवाह कहां  करते हैं ! हमें तो मज़ा आता है नियम तोड़ने या फिर उसका विरोध करने में !!

प्रदूषण, एक जानलेवा समस्या, जो वर्षों से दिल्लीवासियों को त्रस्त करती रही है। सरकारें आती रहीं, जाती रहीं पर कभी भी किसी ने इसे गंभीरता से नहीं लिया। हर बार ज़रा थोड़ी सी हाय-तौबा मचती फिर समय के साथ सब वैसे ही चलने लगता। इस बार भी प्रदूषण स्तर जहां एक क्यू. मी. में 60 माइक्रो ग्राम के बाद ही खतरनाक माना जाता है वह सर्दियों की शुरुआत के साथ ही 400 के आंकड़े पर जा अटक गया और तकलीफों को बेकाबू होता देख कोर्ट के डंडे से सहमी सरकार ने हड़बड़ी में बिना ज्यादा सर खपाए जबरन अपने सर आ पड़ी विपदा से बचने के लिए कुछ कदम उठाने का निश्चय किया।  तो जैसा कि हमारा रिवाज है चारों ओर से विरोध की सुगबुगाहट भी शुरू हो गयी। खामियां चुन-चुन कर निकाली जाने लगीं। ऐसा लगने लगा जैसे यह किसी के व्यक्तिगत लाभ के लिए उठाया गया कदम हो।  जबकि इतना हो-हल्ला तब भी नहीं मचा था जब कुछ समय पहले अपने चुनावी वादों के खिलाफ जा सत्तारूढ़ दल ने उल्टी-सीधी सफाई देते हुए अपने लत्ते-भत्ते सैकड़ों गुना ज्यादा बढ़ा लिए थे। जबकि वह तो सिर्फ कुछ लोगों के व्यक्तिगत फायदे की बात थी।  

सबसे बड़ी बात जागरूकता की है। अपने भले के लिए तो हमें खुद ही पहल करनी चाहिए। पर विडंबना है कि हमारी, हमारे परिवार की, हमारे बच्चों की सेहत की हिफाजत के लिए, उनकी जान को जोखिम से बचाने के लिए पुलिस को हमारे पीछे पड़ना पड़ता है।  हमारे लिए दंड निर्धारित करना पड़ता है। चाहे बात सिगरेट की हो, शराब की हो, स्पीड की हो, हेल्मेट की हो, या फिर इस नए नियम की।  हम अपनी ही परवाह कहां करते हैं ! हमें तो मज़ा आता है नियम तोड़ने या फिर उसका विरोध करने में !!  इसी बात पर दिल्ली पुलिस भी झिझक रही है इस फैसले के लागू होने पर।  क्योंकि अंत में गाज उसी के सर पर गिरती है। उसे ही ठीक से प्रबंध ना कर पाने का दोषी मान लिया जाता है। इस पर शायद ही किसी का ध्यान जाता हो कि पांच-छः हजार की फ़ोर्स में से आधे तो हमारे महा-महानुभावों की रक्षा और तीमारदारी में जुटे रहते हैं। बचे हुए जवानों को और ढेरों काम के साथ ही लाखों वाहन-चालकों को सलीका सिखाने की जिम्मेदारी भी निभानी पड़ती है।           

इस फैसले को किसी सरकार या राजनितिक दल का ना मान कर जन-हित में, भविष्य में साफ़-सुथरे वातावरण के लिए, नागरिकों के, खासकर बच्चों के स्वास्थ्य को मद्दे-नज़र रख उठाए गए कदम के रूप में देखा जाना चाहिए। हमें खुद आगे बढ़ कर पहल करनी चाहिए।  हो सकता है इस नियम में कई खामियां हों, इसे लागू करने में ढेरों परेशानियां हों, रसूखदारों की तरफ से अड़चने आ रही हों ! पर प्रदूषण के दैत्य को खत्म तो करना ही
होगा। इस उपाय को परखा जाए सफल न रहे तो दूसरी विधि को आजमाया जाए वह भी सफल ना हो तो कोई तीसरा रास्ता अख्तियार किया जाए। कुछ भी हो अब यह प्रयास रुकना नहीं चाहिए।  बेहतर हो कि हम खामियां गिनाने की जगह इसमें और सुधार लाने के सुझाव दें या फिर कोई और रास्ता सुझाएं जिससे प्रकृति की इस  नायाब देन को साफ़ और सुरक्षित कर और रख सकें। नहीं तो वह दिन भी दूर नहीं जब साफ़ हवा के नाम पर विदेशी कंपनियां हमसे अनाप-शनाप मूल्य वसूलना शुरू कर देंगी,  ठीक उसी तरह जैसे आज पानी को लेकर सबकी जेब पर डाका डाला जा रहा है।  

कोई टिप्पणी नहीं:

विशिष्ट पोस्ट

रणछोड़भाई रबारी, One Man Army at the Desert Front

सैम  मानेक शॉ अपने अंतिम दिनों में भी अपने इस ''पागी'' को भूल नहीं पाए थे। 2008 में जब वे तमिलनाडु के वेलिंगटन अस्पताल में भ...