वे कहते कुछ हैं. होता कुछ है, मतलब कुछ और ही निकलता है। इधर हम लकीर के फ़क़ीर बने बेमतलब आपस में उलझते रहते हैं। उधर महानुभाव लोग खुश होते रहते हैं अपनी कारस्तानियों पर। खेद इसी बात का है कि जागरूकता बढ़ने के बावजूद हमारे स्वभाव हमारी फितरत में बदलाव नहीं आ पाया है....
कभी-कभी एक बेहद बचकाना सा सवाल मन में उठता है कि जब समयानुसार किसी राज्य में घोर प्रतिद्वंद्वी आपस में हाथ मिला सकते हैं (भले ही अपना हित साधने के लिए), जब दुनिया की भलाई के लिए धूर विरोधी ध्रुव मिल कर काम कर सकते हैं तो फिर हमारे देश के दो सबसे बड़े राजनीतिक दल एकाकार हो देश की अच्छाई के लिए काम क्यों नहीं कर सकते। अगर ऐसा हो जाता है तो कितना बदलाव आ सकता है पूरे देश में। टुच्ची राजनीति के दिन लद जाएंगे। मौका-परस्तों की दुकानें बंद हो जाएंगी। भयादोहन का नामोनिशान मिट जाएगा। पूर्ण बहुमत के नाते देश हित में ऐसे फैसले लिए जा सकेंगे। जो आज ओछी राजनीती के कारण टलते चले जाते हैं। आजादी की शुरुआत में कुछ-कुछ ऐसा माहौल था भी पर पता नहीं क्यों शायद अहम के कारण नए-नए दल बनते गए देश पिछड़ता गया। आज तो यह विचार मुंगेरी लाल के सपने की तरह है क्योंकि दोनों ही दलों में ऐसे लोग शोभायमान हैं जो अपने मतलब के लिए किसी को ऐसा सोचने भी नहीं दे सकते। चलिए ऐसा ना भी हो पर कम से कम यदि ऐसा ही हो जाए कि विपक्षी दल के अनुभवी व निष्णात सदस्यों का देश हित के लिए सत्तारूढ़ दल सलाह ही ले सकें, जैसा कि सरकारें बदलने पर भी कुछ लायक अफसर अपना पद संभाले रहते हैं। पर यह और भी मुश्किल लगता है क्योंकि सत्तारूढ़ दल के अच्छे काम के चलते विरोधी दल के सत्ता में आने के अवसर कम हो जाने का खतरा खड़ा हो सकता है और फिर दल-बदल को भी नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता। फिर आजकल तो चलन ही हो गया है किसी के अच्छे काम में भी बुराई ढूंढना, मौका तलाशते रहना दूसरे की टांग खिंचाई की चाहे इसके चलते खुद ही की स्थिति हास्यास्पद क्यों ना हो जाए। उनकी देखा-देखी यह लत देशवासियों में भी घर करती जा रही हैं।
आज ही एक खबर छपी थी कि ट्रेन में एक बीमार व्यक्ति के बेटे द्वारा रेल मंत्री को किए गए 'एस एम एस' के कारण ट्रेन को निश्चित समय से ज्यादा रोक, रोगी को उतारने और बाहर तक ले जाने में पूरी सहायता पहुंचाई गयी। रोज-रोज की नकारात्मक खबरों के बीच ऐसी खबर पढ़ कर अच्छा लगा। पर इस खबर की प्रतिक्रिया के रूप में किसी सज्जन ने फेस-बुक पर टिप्पणी चेप दी कि यह खबर प्रायोजित है और रेल मंत्रालय ने वाह-वाही लूटने के लिए छपवाई है। अब क्या कहा जाए वैसे तो हम चिल्लाते रहते हैं कि सरकार और उसके लोग काम नहीं करते पर जब कोई ऐसा सकूनदायी समाचार आता है तो उसको शक के दायरे में ला उसकी बखिया उधेड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ते।
नेताओं की तो छोड़ें उनकी पर्दे के आगे और उसके पीछे की भूमिकाएं अलग-अलग होती हैं। कहते कुछ हैं. होता कुछ है, मतलब कुछ और ही निकलता है। इधर हम लकीर के फ़क़ीर बने बेमतलब आपस में उलझते रहते हैं, खासकर सोशल मीडिया पर। एक ने कुछ कहा तो दूसरा उसका तोड़ खोजना शुरू कर देता है। फिर उसकी बात का कुछ और अर्थ लगा बतंगड़ बना दिया जाता है। उधर महानुभाव लोग खुश होते रहते हैं अपनी कारस्तानियों पर। खेद इसी बात का है कि जागरूकता बढ़ने के बावजूद हमारे स्वभाव हमारी फितरत में फर्क नहीं आ पाया है।
3 टिप्पणियां:
सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार..
मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका इंतजार....
Good job buddy
Thnk u bro
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