मलाणा गाँव, जिसे भारत के बाहर ज्यादा जाना जाता है।
मलाणा, हिमाचल के सुरम्य पर दुर्गम पहाड़ों की उचाईयों पर बसा वह गांव जिसके ऊपर और कोई आबादी नहीं है। आत्म केन्द्रित से यहां के लोगों के अपने रीति रिवाज हैं, जिनका पूरी निष्ठा तथा कड़ाई से पालन किया जाता है, और इसका श्रेय जाता है इनके ग्राम देवता जमलू को जिसके प्रति इनकी श्रद्धा, खौफ़ की हद छूती सी लगती है। अपने देवता के सिवा ये लोग और किसी देवी-देवता को नहीं मानते। यहां का सबसे बडा त्योहार फागली है जो सावन के महिने मे चार दिनों के लिये मनाया जाता है। इन्ही दिनों इनके देवता की सवारी भी निकलती है, तथा साथ मे साल मे एक बार बादशाह अकबर की स्वर्ण प्रतिमा की पूजा भी की जाती है। कहते हैं एक बार अकबर ने अपनी सत्ता मनवाने के लिये जमलू देवता की परीक्षा लेनी चाही थी तो उसने अनहोनी करते हुए दिल्ली मे बर्फ़ गिरवा दी थी तो बादशाह ने कर माफी के साथ-साथ अपनी सोने की मूर्ती भिजवाई थी। इस मे चाहे कुछ भी अतिश्योक्ति हो पर लगता है उस समय गांव का मुखिया जमलू रहा होगा जिसने समय के साथ-साथ देवता का स्थान व सम्मान पा लिया होगा। सारे कार्य उसी को साक्षी मान कर होते हैं। शादी-ब्याह भी यहां, मामा व चाचा के रिश्तों को छोड, आपस मे ही किए जाते हैं। वैसे तो यहां आठवीं तक स्कूल,डाक खाना तथा डिस्पेंसरी भी है पर साक्षरता की दर नहीं के बराबर होने के कारण इलाज वगैरह मे झाड-फ़ूंक का ही सहारा लिया जाता है।भेड पालन यहां का मुख्य कार्य है, वैसे नाम मात्र को चावल,गेहूं, मक्का इत्यादि की फसलें भी उगाई जाती हैं पर आमदनी का मुख्य जरिया है भांग की खेती। यहां की भांग जिसको मलाणा- क्रीम के नाम से दुनिया भर मे जाना जाता है, उससे बहुत परिष्कृत तथा उम्दा दरजे की हिरोइन बनाई जाती है तथा विदेश मे इसकी मांग हद से ज्यादा होने के कारण तमाम निषेद्धों व रुकावटों के बावजूद यह बदस्तूर देश के बाहर कैसे जाती है वह अलग विषय है।
इस ब्लॉग में एक छोटी सी कोशिश की गई है कि अपने संस्मरणों के साथ-साथ समाज में चली आ रही मान्यताओं, कथा-कहानियों को, बगैर किसी पूर्वाग्रह के, एक अलग नजरिए से देखने, समझने और सामने लाने की ! इसके साथ ही यह कोशिश भी रहेगी कि कुछ अलग सी, रोचक, अविदित सी जानकारी मिलते ही उसे साझा कर ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जा सके ! अब इसमें इसको सफलता मिले, ना मिले, प्रयास तो सदा जारी रहेगा !
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9 टिप्पणियां:
भान्ग से हेरोइन नही बनती है . अफ़ीम से बनती है . ऎसा मैने कही पढा है
मलाणा जाना हुआ था। वहीं इसके अजीब पौधे को देखा था। मैदानों में यह छोटे-छोटे पौधों के रूप में पायी जाती है, पर वहां तो यह छोटे-मोटे गन्ने के रूप में दिखी। वहीं यह जानकारी मिली कि पहले इसे पत्थरों पर पीट-पीट कर इसका रस निकालते हैं जो सूख कर काले रंग के ठोस पदार्थ में बदल जाता है जिसको रासायनिक क्रियाएं से गुजारने के बाद हिरोईन के रूप में बदल दिया जाता है।
एक नई जानकारी..आभार.
जानकारी तो नई है परन्तु चिन्ता की बात यह है कि इसका प्रयोग भी भारत के लोगों को बरबाद करेगा!
नवीन जानकारी ! शुक्रिया ।
मयंक जी,
आपसे पूरी तरह सहमत हूं। वहां जो देखा वह सोचनीय था। हर एक का ध्यान सिर्फ भांग की फसल पर ही होता है। यहां तक कि पढाने वाले भी अच्छी बुरी पैदावार का ही ज्यादा ख्याल रखते हैं। सब कुछ अवैध होने पर भी पुलिस वहां तक जाने की हिम्मत नहीं कर पाती।
पर एक बात है यदि आप वहां त्योहार के दिनों में जाते हैं तो आपके खाने-पीने-रहने का सारा जिम्मा गांव वाले उठाते हैं, बस साथ में किसी जानकार का होना जरूरी है।
इस जानकारी के लिये धन्यवाद!
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आदरणीय गगन शर्मा जी,
अच्छा आलेख, आभार!
धीरू सिंह जी सही कह रहे हैं हेरोईन केवल अफीम से ही बन सकती है,देखिये यहां पर...
मलाना गांव अपनी उच्च क्वालिटी की चरस के लिये मशहूर है, चरस ही वह 'काला पदार्थ' है जो पौधे के रस को सुखा कर बनता है, सबसे अच्छी चरस पौधे के पुष्पक्रम को हथेली पर मल-मल के बनती है, आप स्थानीय लोगों को ऐसा करते देख सकते हैं, रस हथेली पर काले पदार्थ के रूप में सूख जाता है, जिसे खुरच कर निकाला जाता है फिर सिगरेट के तंबाकू के साथ मिलाया, सिगरेट में भरा... और वाह!!!... एक दूसरी दुनिया में पहुंच जाता है आदमी।
एक और बात जो महत्वपूर्ण है कि गांव वासियों के पूर्वज ग्रीक थे। आज भी उनमें और प्राचीन ग्रीक सभ्यता में कई साम्य हैं।
स्थानीय नेताओं के स्वार्थों के चलते यहां कानून का कोई दखल नहीं है और चरसियों का यह 'स्वर्ग' फलफूल रहा है... प्राचीन संस्कृति (???) को बचाये रखने के नाम पर...
Gyanvardhan hua...abhar.
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