शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011

क्या रावण सचमुच निंदा का पात्र है ?

महर्षि वाल्मिकी एक कवि तथा कथाकार के साथ-साथ इतिहासकार भी थे। राम और रावण उनके समकालीन थे। इसलिए उनके द्वारा रचित महाकाव्य ''रामायण'' यथार्थ के ज्यादा करीब माना जाता है। बाकी जितनों ने भी राम कथा की रचना की है, उस पर समकालीन माहौल, सोच तथा जनता की भावनाओं का प्रभाव अपनी छाप छोड़ता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण तुलसीदास कृत राम चरित मानस है। तुलसी दास जी के आराध्य श्रीराम रहे हैं, तो उनके चरित्र का महिमामंडित होना स्वाभाविक है। परन्तु वाल्मिकी जी राम और रावण के समकालीन थे सो उन्होंने राम के साथ-साथ रावण का भी अद्भुत रूप से चरित्र चित्रण किया है। उनके अनुसार ब्रह्मा के पुत्र पुलस्त्य और पुलस्त्य के पुत्र विश्रवा की चार संतानों में रावण अग्रज था। इस प्रर वह ब्रह्मा जी का वंशज था। 

महर्षि कश्यप की पत्नियां, अदिति जो देवताओं की जननी थीं और दिति, जिन्होंने दानवों को जन्म दिया था, आपस में बहनें थीं। इस प्रकार सुर और असुर सौतेले भाई थे। विचारों, परिवेश तथा माहौल इत्यादि के अलग होने के कारण उनका कभी भी मतैक्य नहीं हो पाया ! जिससे सदा उनकी आपस में अनबन बनी रहती थी। जिसके फलस्वरूप युद्ध होते रहते थे। जिनमें ज्यादातर दैत्यों की पराजय होती थी। दैत्यों के पराभव को देख कर रावण ने दीर्घ तथा कठोर तप कर ब्रह्मा जी से तरह-तरह के वरदान प्राप्त कर लिए थे एवं उन्हीं के प्रभाव से शक्तिशाली हो अपने नाना की नगरी लंका पर फिर से अधिकार कर लिया था। उसने लंका को स्वर्ग से भी सुंदर, अभेद्य तथा सुरक्षित बना दिया था। उसके राज में नागरिक सुखी, संपन्न तथा खुशहाल थे। लंका के वैभव का यह हाल था कि जब हनुमानजी सीताजी की खोज में वहां गये तो उन जैसा ज्ञानी भी वहां का वैभव और सौंदर्य देख ठगा सा रह गया था। 

वाल्मिकी रामायण में रावण एक वीर, धर्मात्मा, ज्ञानी, नीति तथा राजनीति शास्त्र का ज्ञाता, वैज्ञानिक, ज्योतिषाचार्य, रणनीति में निपुण, स्वाभिमानी, परम शिव भक्त तथा महान योद्धा निरुपित है। उसका एक ही दुर्गुण था, अभिमान ! अपनी शक्ति का अहम ही अंतत: उसके विनाश का कारण बना ! यदि निष्पक्ष रूप से कथा का विवेचन किया जाए तो साफ देखा जा सकता है कि रावण का चरित्र उस तरह का नहीं था जैसा कालांतर में लोगों में बन गया या बना दिया गया था ! श्रीराम ने लंका की तरफ बढ़ते हुए तेरह सालों में अनगिनत राक्षसों का वध किया, पर कभी भी आवेश में या क्रोधावश रावण ने राम से युद्ध करने की कोशिश नहीं की ! जब देवताओं ने देखा कि कोई भी उपाय रावण को उत्तेजित नहीं कर पा रहा है, तो उन्होंने शूर्पणखा कांड की रचना कर डाली ! उस अभागिन, मंद बुद्धि राक्षस कन्या को अपने भाई के समूचे परिवार के नाश का कारण बना दिया गया ! 

उसको बदसूरत किया जाना, रावण को खुली चुन्नौती थी ! पर रावण ने फिर भी धैर्य नहीं खोया ! उस समय यदि वह चाहता तो अपने इन्द्र को भी जीतनेवाले बेटे तथा महाबली भाई कुम्भकर्ण के साथ अपनी दिग्विजयी सेना को भेज दोनो भाईयों को मरवा सकता था। हालांकि राम-लक्ष्मण ने खर दूषण का वध किया था, पर उस राक्षसी सेना और रावण की सेना में जमीन आसमान का फर्क था ! जब हनुमान जी तथा और वानर वीरों के रहते निर्णायक युद्ध के दौरान इन दोनों पर घोर संकट आ सकता था, तो उस समय तो दोनो भाई अकेले ही थे ! 

पर रावण यह भी जानता था कि ये दोनो भाई साधारण मानव नहीं हैं ! युद्ध की स्थिति में लंका को और उसके निवासियों को भी बहुत खतरा था। इसलिए रावण ने युद्ध टालने के लिए सीता हरण की योजना बनाई ! उसकी सोच थी कि सीता जी के वियोग में यदि राम प्राण त्याग देते हैं तो लक्ष्मण का जिंदा रहना भी नामुमकिन होगा और ऐसे में विपदा टल जाएगी ! उसने सीता जी के हरण के पश्चात उन्हें अपने महल में ना रख, अशोक वाटिका में महिला निरिक्षकों की निगरानी में ही रखा और कभी भी उनके पास अकेला बात करने नहीं गया ! वैसे भी सीता हरण उसकी मजबूरी थी ! एक विश्व विजेता की बहन का सरेआम अपमान हुआ और वह चुप्पी साध कर बैठा रहता तो क्या इज्जत रह जाती उसकी ! इसके अलावा सिर्फ दो मानवों को मारने के लिए यदि वह अपनी सेना भेजता तो यह भी किसी तरह उसकी ख्याति के लायक बात नहीं थी ! यह काम भी उसके अपमान का सबब बनता ! 

पर रावण की योजना उस समय विफल हो गई, जब हनुमान जी ने राम-सुग्रीव की मैत्री का गठबंधन करवा दिया। उसके बाद अलंघ्य सागर ने भी राम की सेना को मार्ग दे दिया। फिर भी वह महान योद्धा विचलित नहीं हुआ ! एक-एक कर अपने प्रियजनों की मृत्यु के बावजूद उसने बदले की भावना के वश सीता जी को क्षति पहुंचाने का उपक्रम कभी नहीं किया ! विभिन्न कथाकारों ने रावण को कामी, क्रोधी, दंभी तथा निरंकुश शासक निरुपित किया है। पर ध्यान देने की बात है कि जिसमें इतने अवगुण हों, वह क्या कभी देवताओं द्वारा पोषित उनके कोष के रक्षक कुबेर को परास्त कर अपनी लंका वापस ले सकता था ? शिव जी के महाबली गण नंदी को परास्त करना क्या किसी कामी-क्रोधी का काम हो सकता था ? शिव जी को प्रसन्न कर उनका चंद्रहास खड़्ग लेना क्या किसी अधर्मी के वश की बात थी ? देवासुर संग्राम में जब मेघनाद ने इंद्र को पराजित किया, उस समय युद्ध में भगवान विष्णु और शिव जी ने भी भाग लिया था ! वे भी क्या रावण को रोक पाए थे ? ऐसा महाबली क्या भोग विलास में लिप्त रहनेवाला हो सकता है ? 

युद्ध के दौरान दोनों पक्षों ने शक्ति की पूजा की थी ! माँ ने दोनों को दर्शन दिए थे ! पर राम को वरदान मिला, विजयी भव का, और रावण को कल्याण हो ! रावण का कल्याण असुर योनी से मुक्ति में ही था ! सबसे बड़ी बात, यदि रावण बुराइयों का पुतला होता तो क्या सर्वज्ञ साक्षात विष्णु के अवतार, अपने ही अंश लक्ष्मण को रावण से ज्ञान लेने भेजते ? 

हमारे ऋषि-मुनियों ने सदा अहंकार से दूर रहने की सीख व चेतावनी दी है ! यह किसी भी रूप में हो सकता है, शक्ति का, रूप का, धन का, यहां तक की भक्ति का भी ! ऐसा जब-जब हुआ है, उसका फल अभिमानी को भुगतना ही पड़ा है। फिर वह चाहे इंद्र हो, नारद हो, कोई महर्षि हो या रावण हो ! पर शायद रावण के साथ ही ऐसा हुआ है कि प्रायश्चित के बावजूद, सदियां गुजर जाने के बाद भी बदनामी ने उसका पीछा नहीं छोड़ा ! आज भी उसे बुराईयों का पर्याय माना जाता है ! 
पर क्या यह उचित है ??

8 टिप्‍पणियां:

शिवा ने कहा…

रावण जैसा महान विद्वान कौन था ... लेकिन एक गलती और उसके अहंकार ने उसे इस संसार में निंदा का पात्र बना दिया ...

ब्लॉ.ललित शर्मा ने कहा…

निंदा रावण में व्याप्त बुराईयों की होती है।
रावण तो एक पात्र है बुराईयों को दिखाने का।

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

ब्रह्मा जी का पुत्र भी यदि राह भटक जाए तो भूला ही कहेंगे ना ???

बेनामी ने कहा…

भगवान की लीला भगवान ही जानते है.

मनोज कुमार ने कहा…

विचारोत्तेजक आलेख।

DR. ANWER JAMAL ने कहा…

@ गगन शर्मा जी ! अगर आप बाल्मीकि रामायण में लक्ष्मण जी के विचार और कथन पढ़ेंगे तो आपको मालूम हो जाएगा कि रावण में अहंकार भी नहीं था। रामायण में विलेन रावण को अनेक बार महात्मा कहा गया है , उसे ज्ञानी , सुंदर , पराक्रमी और कुशल प्रशासक कहा गया है । सीता माता और स्त्री पात्रों के साथ उसके व्यवहार को इतना उत्तम दिखाया गया है कि कथा के नायक श्री रामचंद्र जी का क़द भी उसके सामने छोटा पड़ जाता है । कथाकार कहता है कि राजा दशरथ 60 हज़ार साल तक कोई बच्चा पैदा न कर पाए तो एक जवान ब्राहमण को बुलाकर अश्वमेध यज्ञ किया । सरयू के किनारे माता कौशल्या ने घोड़े के साथ ब्राह्मणों की बताई रीति से व्यवहार किया । ऐसा घिनौना प्रकरण कथाकार ने श्री रामचंद्र जी के साथ क्यों रचा ?
इसी प्रकार कथाकार ने जानबूझ कर रामकथा में जगह जगह ऐसे प्रकरण पिरोये हैं जो न तो न्याय और नैतिकता के अनुरूप हैं और न ही संभव हैं । आदर्श व्यक्ति झूठ नहीं बोलता , औरत पर हाथ नहीं उठाता और प्रणय निवेदन करती हुई औरत पर तो क़तई भी नहीं , क्षत्रिय कभी भागते हुए शत्रु को नहीं मारता तो छिपकर भला क्यों मारेगा ?
आग में गुज़रने की परीक्षा औरत से कोई बुद्धिजीवी नहीं लेता और झूठे आरोप पर कोई पति और राजा अपनी पत्नी और अपने नागरिक के मानवाधिकारों का हनन नहीं करता और गर्भावस्था में तो आज का पतित समाज भी किसी बुरी औरत तक के साथ बदसुलूकी की इजाज़त नहीं देता । तब मर्यादा की स्थापना के लिए जन्मे सदाचारी श्री रामचंद्र जी एक सती के साथ उसकी इच्छा और न्याय के विपरीत उसका निर्वासन कैसे कर सकते हैं जबकि लक्ष्मण जी भी इसे अन्याय बताते हुए उन्हें सीता परित्याग से रोकते ही रहे ?
इन सभी सवालों के जवाब हमें तब मिल जाते हैं जब हम देखते हैं कि इसी कथाकार ने रावण के चरित्र में इतने दोष नहीं दिखाए , आख़िर क्यों ?
क्या इसके पीछे ब्राह्मण कथाकार बाल्मीकि का ब्राह्मण रावण के प्रति किसी प्रकार का मोह था ?
या ऐसे सभी प्रसंग बाद के ब्राह्मणों ने क्षेप (चेप) दिए ?
यह पूरी रामायण भी बाद की लिखी हो सकती है क्योंकि भाषा विज्ञान के आधार पर भी यह रामायण 8-9 करोड़ साल पुरानी साबित नहीं होती जोकि श्री रामचंद्र का काल माना जाता है ।
इन बातों पर न्यायपूर्वक विचार किया जाए तो रामकथा पर उठने वाली बहुत सी आपत्तियों का निराकरण हो जाता है ।
आप एक ज्ञानपसंद आदमी लगते हैं , सो कुछ तथ्य आपके सामने रख दिए हैं ।

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

अनवर जी,
जैसा कि पुस्तकें और ज्ञानी जन बताते हैं। अलग-अलग समय मे अलग-अलग महापुरुषों का इस धरती पर प्रादुर्भाव होता रहा है। उनके जाने-अनजाने उनके शिष्यों, अनुयायियों या अनुरागियों द्वारा अपने इष्ट की महत्ता को महत्वपूर्ण बनाने, करने के लिए स्थापित छवियों को धुमिल करने के प्रयास होते रहे हैं। उन्हीं प्रयासों के कारण आज उपलब्ध कथानकों का यह रूप हमारे सामने है।

रही वाल्मीकी जी की बात तो वह जन्म से ब्राह्मण नहीं थे। आखेट उनका पेशा था। जैसा कि प्रसंगों में आता है, नारद जी के समझाने पर उन्होंने राम नाम में मन लगाया था। वैसे भी वे राम-रावण के समकालीन थे तो घटनाओं के प्रत्यक्षदर्शी भी थे। इसलिए पक्षपात की बात कुछ गले नहीं उतरती।

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

रामायण काल को विद्वान 5-6 हजार साल पुराना मानते हैं, 8-9 करोड़ साल पहले का नहीं।

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