गुरुवार, 5 जनवरी 2023

बाजार के चक्रव्यूह में अभिमन्यु बनता उपभोक्ता

एक ऐसे ही बाल बढ़ाऊ और केश निखारू उत्पाद ने प्याज को ही अपना ब्रांड एम्बेस्डर बना डाला है ! चतुराई इतनी कि अपनी साख जमाने के लिए उसने प्याज के दो रंग के बीजों लाल और काले से एक का शैंपू और दूसरे का तेल बना बाजार में धकेल दिया ! जितनी बारीकी से उसने केश विहीनों के मनोविज्ञान पर काम किया उतना शोध तो सिर्फ रॉकेट साइंस में ही होता होगा ! कीमत ज्यादा ना लगे इस आशंका में नीचे लिख दिया 1ml सिर्फ तीन रूपए का............!

#हिन्दी_ब्लागिंग

जबसे बाबा रामदेव ने बाजार के समर में आयुर्वेद का परचम थामा है, तबसे जाने-माने नामों यथा तुलसी, आंवला, हल्दी, अदरक के साथ-साथ अन्य नामालूम से साग-सब्जियों-लता-गुल्मों-पौधे-पत्तियों के दिन भी फिर गए हैं ! हर कॉस्मेटिक ब्रांड अपने उत्पाद में किसी भी वनस्पति का नाम थोप खुद को प्रकृति का सगा सिद्ध करने पर तुला हुआ है साथ ही लोगों के रुझान और मौके को ताड़ते और आयुर्वेद के नाम को भुनाते हुए अपने उत्पाद की कीमत तिगुनी-चौगुनी कर दी है ! एक ऐसे ही बाल बढ़ाऊ और केश निखारू उत्पाद ने प्याज को ही अपना ब्रांड एम्बेस्डर बना डाला है ! चतुराई इतनी कि अपनी साख जमाने के लिए उसने प्याज के दो रंग के बीजों लाल और काले से एक का शैंपू और दूसरे का तेल बना बाजार में धकेल दिया ! जितनी बारीकी से उसने केश विहीनों के मनोविज्ञान पर शोध किया उतना तो सिर्फ रॉकेट साइंस में ही होता होगा ! लोगों की इस धारणा को भुनाते हुए कि अच्छी और खास चीज मंहगी ही होती है, कंपनी ने अपने 200ml तेल की कीमत रख दी 600/- रूपए ! कीमत ज्यादा ना लगे इस आशंका में नीचे लिख दिया 1ml सिर्फ तीन रूपए का ! यही हथकंडा शैंपू के लिए भी अपनाया गया ! जिससे उपभोक्ता को लगे कि बस इतनी सी कीमत ! इंसान की कमजोरियों का फायदा उठा उसे अपने काबू की  ''जकड़'' में कैसे बनाए रखना है, यह इसका ताजा उदाहरण है !    

बहुत से लोगों को याद होगा एक जमाने में, सस्ती के समय कम कीमत में ढेर सा सामान आ जाता था, इसलिए चार सेर की धड़ी या पांच सेर की पनसेरी का चलन था ! समय गुजरा, मन-सेर-छटांक को किनारे कर किलोग्राम का चलन शुरू हो गया ! फिर मंहगाई बढ़ी तो इंसान के मनोविज्ञान को समझते हुए बाजार ने जिंसों की कीमत को कम दर्शाने के लिए एक किलो की पैकिंग 900 ग्राम और 500 ग्राम की जगह 400 ग्राम कर सामान बेचना शुरू कर दिया ! एक किलो की कीमत की जगह कब एक पाव या 250 ग्राम के रेट बता ग्राहक को भुलावे में रखा जाने लगा, पता ही नहीं चला ! किसी चीज की कीमत चुपचाप दुगनी कर, उसके साथ एक-दो चीजें मुफ्त देने या उस चीज की कीमत में 50-60 प्रतिशत की छूट दिखा, आम इंसान को गुमराह कर उसे लूटने की ऐसी प्रथा शुरू हो गई, जिसमें लुटने वाला भी ख़ुशी महसूस करने लगा ! इंसान के दिमाग को जितनी खूबी से बाजार ने समझा है उतना तो शायद ही कोई समझ पाया हो ! कब, कहां, कैसे इसे अपने हिसाब से चलाना-समझाना है, इसे क्या दिखा-बता कर अपना मतलब निकल सकता है, इसमें बाजार की ताकतों को महारत हासिल है और इसमें सहायक होती हैं नामी-गिरामी, सामाजिक हस्तियां जो अपनी शख्शियत का लाभ उठा, पैसे लेकर आम इंसान को सच-झूठ कुछ भी समझा कर कंपनियों को लाभ पहुंचाती रहती हैं, भले ही उनका ड्राइवर भी उस वस्तु का इस्तेमाल ना करता हो ! 

डॉक्टर आर्थो से अनुबंध ख़त्म हो गया लगता है 

बाजार की भूख ने तो सुरसा को भी मात दे दी ! इससे पार पाने के लिए तरह-तरह की तरकीबें बेचने वाले करोड़पति बन गए ! पहले एक तरह के शैंपू-तेल-परफ्यूम आते थे ! फिर पुरुषों-महिलाओं-बच्चों के लिए क्यों अलग-अलग होने चाहिए यह समझा कर उत्पाद बढ़ाए ! आज आप क्या खाएंगे, क्या पहनेंगे, किससे नहाएंगे, किससे सेहत बनाएंगें, सब बाजार ने अपने अधिकार में ले लिया है ! यह अलग बात है कि देश-विदेश में पदक जीतने वाले शायद ही हार्लिक्स-कॉम्पलान या बोर्नविटा जैसे उत्पादों से लाभान्वित हुए हों ! पर जो दिखता है वही बिकता है का सिद्धांत बदस्तूर जारी है ! यह भी सही है कि जब तक लोग भुलावे में आते रहेंगे तब तक गंजों को कंघी और पहाड़ों पर बर्फ बेची जाती रहेगी !     

10 टिप्‍पणियां:

Sudha Devrani ने कहा…

बिल्कुल सही कहा आपने गंजो को कंघी और पहाड़ों पर वर्फ बेचने वाले लोगों की ऐसी ही म
भूलों का फायदा उठाते हैं ।अब ये तो हम उपभोक्ताओं को ही समझना होगा कि कैसे हम बेवकूफ बने इनके मनसूबों को पूरा करते जा रहे हैं ।
लाजवाब विश्लेषण।

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

सुधा जी
ब्लॉग पर सदा स्वागत है आपका

Kamini Sinha ने कहा…

सादर नमस्कार ,

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार (12-1-23} को "कुछ कम तो न था ..."(चर्चा अंक 4634) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा

Meena Bhardwaj ने कहा…

बहुत सही कहा है आपने कि -“इंसान के दिमाग को जितनी खूबी से बाजार ने समझा है उतना तो शायद ही कोई समझ पाया हो ! कब, कहां, कैसे इसे अपने हिसाब से चलाना-समझाना है, इसे क्या दिखा-बता कर अपना मतलब निकल सकता है ।”
प्राकृतिक उत्पादों के नाम पर नए उत्पादों की ख़रीद के प्रति बढ़ता रुझान इस बात का ज्वलंत उदाहरण है ।चिन्तनपरक पोस्ट ।

कविता रावत ने कहा…

पैसे के लिए विज्ञापन करने वाले सिर्फ पैसा देखते हैं, उन्हें उस वस्तु के फायदे-नुक्सान से कोई मतलब नहीं होता, क्योँकि वस्तु उत्पादक और विज्ञापन करने वाले अच्छे से जानते हैं कि लोग उनकी बात सुनते हैं इसलिए वे उस वस्तु को जरूर खरींदेंगे। यही आम जान मार खा जाता है और जो समझ भी जाता है तो वह चुपचाप दूसरा प्रोडक्ट बदलकर चुप बैठ जाता है।
इस विज्ञापन से सम्बंधित मुझे किसी ने एक बहुत ही कडुवी लेकिन सच्ची बात कही थी कि 'दुनिया में बेवकूफों की कोई कमी नहीं है, एक ढूंढोगे तो हज़ार मिलेंगे।' बस इसी पर चलता रहता है, यह सब।

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

कामिनी जी
सम्मिलित करने हेतु हार्दिक आभार✨ 🙏🏻

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

मीना जी
समझते बूझते भी हम सब कभी न कभी इस जाल में फस ही जाते हैं

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

कविता जी
पूरी तरह सहमत! रोज बार-बार किसी चीज को देखते-देखते वह ऐसी दिमाग में पैबस्त हो जाती है कि उस जैसी किसी वस्तु की जरूरत पड़ते ही उस देखी हुई का ही ख्याल आता है! अब जैसे डेटॉल है उसके सामने सेवलॉन का कभी ध्यान ही नहीं आता

जिज्ञासा सिंह ने कहा…

सचमुच बाजारवाद के इस दौर में जानें अनजाने हम सब इन विज्ञापनों के शोर में बाजारवाद के षड्यंत्रों में फंस ही जाते हैं और ये कंपनियां फायदा उठाकर मालामाल हो रही हैं। विचारणीय आलेख।

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

हार्दिक आभार आपका, जिज्ञासा जी🙏🏻

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