इस ब्लॉग में एक छोटी सी कोशिश की गई है कि अपने संस्मरणों के साथ-साथ समाज में चली आ रही मान्यताओं, कथा-कहानियों को, बगैर किसी पूर्वाग्रह के, एक अलग नजरिए से देखने, समझने और सामने लाने की ! इसके साथ ही यह कोशिश भी रहेगी कि कुछ अलग सी, रोचक, अविदित सी जानकारी मिलते ही उसे साझा कर ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जा सके ! अब इसमें इसको सफलता मिले, ना मिले, प्रयास तो सदा जारी रहेगा !
मंगलवार, 29 नवंबर 2022
तराजू वाली प्रतिमा को खुद ही अपनी आँखों पर बंधी पट्टी उतार फेंकनी होगी
शुक्रवार, 18 नवंबर 2022
हताश-निराश युवाओं को लिंकन की जीवनी जरूर पढनी चाहिए
आज के युवा जो किसी कारणवश अपने लक्ष्य से दूर रह हताश हो बैठ जाते हैं, ज़रा सी असफलता मिलते ही तनावग्रस्त हो अपनी जान तक देने पर उतारू हो जाते है, जो समझ नहीं पाते कि एक हार से जिंदगी ख़त्म नहीं हो जाती, उन्हें एक बार अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति की जीवनी जरूर पढनी चाहिए जो एक पूर्ण कर्मयोगी थे। पर क्या हर इंसान इतना मजबूत बन सकता है ? शायद हां ! इसी "हां " को समझाने के लिए भगवान ने इस धरा पर गीता का संदेश दिया था …… !
#हिन्दी_ब्लागिंग
अब्राहम लिंकन का जन्म 12 फरवरी 1809 को इंग्लैण्ड से आकर केंटुकी के हार्डिन काउंटी में बसे एक अश्वेत गरीब परिवार में हुआ था। उन के पिता का नाम थॉमस लिंकन तथा माता का नाम नैंसी लिंकन था। उनके पिता ने कठिन मेहनत कर अपने परिवार को संभाला था !
अब्राहम लिंकन अमेरिका के सोलहवें राष्ट्रपति थे। इनका कार्यकाल 1861 से 1865 तक रहा। वे रिपब्लिकन पार्टी के सदस्य थे ! वे प्रथम रिपब्लिकन थे जो अमेरिका के राष्ट्रपति बने। उन्होने अमेरिका को उसके सबसे बड़े संकट गृहयुद्ध से उबारा था ! अमेरिका में दास प्रथा के अंत का श्रेय भी लिंकन को ही जाता है। पर उनको इस पद तक पहुंचने के पहले इतनी असफलताओं का सामना करना पड़ा कि हैरानी होती है कि कैसे उन्होंने तनाव तथा अवसाद को अपने पर हावी नहीं होने दिया होगा !
घर की आर्थिक स्थिति संभालने के लिए 20-22 साल की आयु में उन्होंने व्यापार करने की सोची, पर कुछ ही समय में घाटे के कारण सब कुछ बंद करना पड़ा। कुछ दिन इधर-उधर हाथ-पैर मारने के बाद फिर एक बार अपना कारोबार शुरु किया पर फिर असफलता हाथ आयी। 26 साल की उम्र में जिसे चाहते थे और विवाह करने जा रहे थे, उसी लड़की की मौत हो गयी। इससे उनका मानसिक संतुलन बिगड़ गया ! पर फिर उन्होंने अपने आप को संभाला और स्पीकर के पद के लिए चुनाव लड़ा पर वहां भी हार का सामना करना पड़ा ! 31 साल की उम्र में फिर चुनाव में हार ने पीछा नहीं छोड़ा ! 34 साल में कांग्रेस से चुनाव जीतने पर खुशी की एक झलक मिली पर वह भी अगले चुनाव में हार की गमी में बदल गयी ! पर 46 वर्षीय जीवट से भरे इस इंसान ने तो हार नहीं मानी पर हार भी कहां उनका पीछा छोड़ रही थी ! फिर सिनेट के चुनाव में पराजय ने अपनी माला उनके गले में डाल दी ! अगले साल उपराष्ट्रपति के चुनाव के लिए खड़े हुए पर हार का भूत पीछे लगा ही रहा ! अगले दो सालों में फिर सिनेट पद की जोर आजमाईश में सफलता दूर ही खड़ी मुस्कुराती रही !
पर कब तक भगवान परीक्षा लेता रहता, कब तक असफलता मुंह चिढाती रहती, कब तक जीत आंख-मिचौनी खेलती रहती ! दृढ प्रतिज्ञ लिंकन के भाग्य ने पलटा खाया और 51 वर्ष की उम्र में उन्हें राष्ट्रपति के पद के लिए चुन लिया गया। ऐसा नहीं था कि वह वहां चैन की सांस ले पाते हों वहां भी लोग उनकी बुराईयां करते रहते थे ! वहां भी उनकी आलोचना होती रहती थी ! पर लिंकन ने तनाव-मुक्त रहना सीख लिया था। उन्होंने कहा था कि कोई भी व्यक्ति इतना अच्छा नहीं होता कि वह राष्ट्रपति बने, परंतु किसी ना किसी को तो राष्ट्रपति बनना ही होता है।
तो यह तो लिंकन थे जो इतनी असफलताओं का भार उठा सके ! पर क्या हर इंसान इतना मजबूत बन सकता है ? शायद हां ! इसी 'हां' को समझाने के लिए भगवान श्रीकृष्ण जी ने इस धरा पर गीता का संदेश दिया था। क्योंकि वे जानते थे कि इस ''हां'' से आम-जन को परिचित करवाने के लिए, उसकी क्षमता को सामने लाने के लिए उसे मार्गदर्शन की जरूरत पड़ेगी।
मंगलवार, 15 नवंबर 2022
हाथ से खाना, बिना छुरी-कांटे के
भारत सरकार के औपचारीक भोजों में सभी को कटलरी का उपयोग करते हुए ही भोजन करने की इजाजत है ! यदि कोई हाथ से खाना चाहे तो इसकी अनुमति नहीं है ! हो सकता है कि विदेशी मेहमानों की उपस्थिति के कारण ऐसे नियम बने हों ! पर क्या इन्हें बदला नहीं जा सकता ! यूनानी या रोम वासी खाते समय कभी कटलरी का प्रयोग नहीं करते ! दुनिया के अनेक भागों में अतिथि को ऐसा भोजन परोसना, जो छुरी से काटना, फाड़ना या छेदना पड़े, असभ्यता माना जाता है....!
#हिन्दी_ब्लागिंग
जैसे-जैसे देश के लोगों में जागरूकता बढ़ रही है वैसे वैसे हमारी संस्कृति, परंपराओं, रीती-रिवाजों की अच्छाइयां सामने आने लगी हैं। देशी-विदेशी कुचक्रों के तहत हमारे संस्कारों को उपहास का पात्र बना, पीछे धकेलने की साजिशों से भी निजात पाई जा रही है। सनातन काल से चली आ रही हमारी दिनचर्या से जुडी आदतों, काम करने के तरीकों के वैज्ञानिक, पर्यावरण तथा सेहत के अनुकूल तथा हानिरहित होने के कारण अब तथाकथित विकसित देश भी उन्हें मानने और सम्मान देने लगे हैं। पर अपने ही घर में, अपने ही कुछ लोगों को अभी भी सद्बुद्धि की जरुरत है !
शरीर और जिंदगी के लिए सबसे जरुरी चीज है, भोजन ! एक ओर जहां पश्चिमी देशों में चम्मच-कांटे से खाने का चलन है तो हमारे यहां हाथों से खाना आम बात है। इस तरीके की काफी आलोचना होती रही है। अंग्रेजियत के खुमार से ग्रसित लोग इसे पिछड़ेपन की निशानी भी करार देते रहे हैं ! उनके अनुसार इससे संक्रमण का खतरा रहता है। लेकिन अब कई अध्ययनों से यह बात सामने आई है कि हाथों से खाने पर भोजन का स्वाद बढ़ जाता है ! न्यूयॉर्क की स्टीवन्स यूनिवर्सिटी में लगभग 50 लोगों पर एक प्रयोग के दौरान सब को कुछ पनीर दिया गया, जिसे आधे प्रतिभागियों को हाथ से खाना था और आधे लोगों को चम्मच से ! निष्कर्ष यह निकल कर आया कि जिन लोगों ने हाथों से चीज़ खाई थी, वे उसे बेहद ज्यादा स्वादिष्ट बता रहे थे, जबकि बाकियों के लिए वह एकऔसत स्वाद था।भारत में हाथ से खाने का चलन तो है लेकिन अलग-अलग प्रदेशों में कुछ नियमों के तहत कई अलिखित सावधानियां भी बरती जाती हैं ! जिनमें भोजन के पहले जूते वगैरह उतार, हाथ-पैर धोना जरुरी होता है ! उत्तर भारत में खाते हुए अंगुलियों का ही इस्तेमाल किया जाता है, यहां पूरी हथेली से खाना अच्छा नहीं माना जाता ! पर वहीं दक्षिण में हथेली और अंगुलियों दोनों का ही उपयोग आम है ! इसके अलावा खाने के लिए दाहिने हाथ का ही ज्यादातर उपयोग किया जाता है ! ये चलन लगभग पूरे देश में है। पारंपरिक खाने के अलावा बहुत कम ही चीजें हैं, जिनके लिए चम्मच का उपयोग होता है, जैसे तरल पदार्थ, दही-खीर-हलुवा या आइसक्रीम वगैरह !
वैसे दक्षिण भारत में न केवल हाथ से खाने का चलन है, बल्कि यहां केले के पत्तों पर खाना खाया जाता है। आज भी वहां बहुत से घरों समेत रेस्त्रां में भी ये एक आम बात है। नई खोजों में यह बात सामने आई है कि केले के पत्तों में पॉलीफेनॉल्स नामक प्राकृतिक एंटी-ऑक्सिडेंट के साथ-साथ एंटी-बैक्टीरियल गुण भी पाए जाते हैं जिससे कई बीमारियों से बचाव हो जाता है। इसके अलावा सबसे बड़ा फायदा है ये है कि केले के पत्ते में भोजन करने से हमारे शरीर में कोई रासायनिक तत्व नहीं जाता है !
आयुर्वेद के अनुसार, हमारी पांच उंगलियां पांच तत्व हैं। अंगूठे को अग्नि, तर्जनी को वायु, मध्यम उंगली को आकाश, अनामिका यानी रिंग फिंगर को पृथ्वी और छोटी उंगली को जल का प्रतिनिधि कहा जाता है। जब व्यक्ति इन पांच उंगलियों की मदद से भोजन करता है, तो ये पांचों तत्व प्रेरित हो जाते हैंऔर उनकी ऊर्जा भोजन में प्रवेश कर हमारे शरीर में पहुंच जाती है ! हाथ से भोजन करने के दौरान जो एक मुद्रा बनती है, वह भोजन को शरीर केअनुकूल और पाचन में सहायक होती है। हमारे वेदों के अनुसार, हाथ से खाने का सीधा असर चक्रों पर पड़ता है और हाथ के इस्तेमाल से खून के प्रसार में भी इजाफा होता है ! हाथ से खाना खाने के समय हमारे हाथ "टेंपरेचर सेंसर" की तरह काम करते हैं। इसलिए हम बहुत ज्यादा गर्म या ठंडे खाने से होने वाले नुक्सान से भी बच जाते हैं ! ज्ञातव्य है कि भारत सरकार के औपचारीक भोजों में सभी को कटलरी का उपयोग करते हुए भोजन करने की इजाजत है ! यदि कोई हाथ से खाना चाहे तो इसकी अनुमति नहीं है ! हो सकता है कि विदेशी मेहमानों की उपस्थिति के कारण ऐसे नियम बने हों ! पर क्या इन्हें बदला नहीं जा सकता ! यूनानी या रोम वासी खाते समय कभी कटलरी का प्रयोग नहीं करते ! दुनिया के अनेक भागों में अतिथि को ऐसा भोजन परोसना, जो छुरी से काटना, फाड़ना या छेदना पड़े, असभ्यता माना जाता है ! सबसे मुख्य बात कि हमारा भारतीय भोजन ज्यादातर हाथ से खाने वाला ही होता है ! अब मक्के-बाजरे की रोटी या गेहूं के परांठे वगैरह छुरी कांटे से तो नहीं ही खाए जा सकते ! यहां तक कि आज का अत्यधिक लोकप्रिय खाद्य पिज्जा भी हाथ से ही बेहतर तरीके से खाया जा सकता है ! यदि आमिष भोजन की बात करें तो वह भी हाथ से खाने में ज्यादा सुरक्षित रहता है ! इसलिए हमारी कोशिश यह होनी चाहिए कि बिना किसी दिखावे या पूर्वाग्रह के हम जहां तक हो सके हाथों से ही भोजन ग्रहण कर उसका पूरा फायदा और आनंद ले सकें।
मंगलवार, 1 नवंबर 2022
केदारनाथ मंदिर, हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियो, वैज्ञानिकों की विद्वता का साक्षात प्रमाण
उस समय कितना बड़ा असम्भव कार्य रहा होगा ऐसी जगह पर इतने भव्य मन्दिर को बनाना, जहां ठंड के दिनों में भारी मात्रा में बर्फ जमी रहती हो और बरसात के मौसम में बहुत तेज गति से पानी का बहाव कहर बरपाता हो ! ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों में 1200 साल से भी पहले ऐसा अप्रतिम मंदिर कैसे बनाया गया होगा, वह भी उन पत्थरों से जो यहां दूर दूर तक कहीं भी उपलब्ध नहीं है ! तो उनको वहां तक कैसे लाया गया होगा ! कैसे हमारे पुरातन भारतीय विज्ञान के जानकारों ने उस शिला को, जिसका उपयोग 6 फुट ऊंचे मंच के निर्माण के लिए किया गया है, मंदिर स्थल तक पहुंचाया होगा ! ढेरों सवाल हैं, जिनका कोई जवाब नहीं है.........!
#हिन्दी_ब्लागिंग
केदारनाथ मंदिर भारत के उत्तराखंड में रुद्रप्रयाग जिले में भगवान शिव का विश्वप्रसिद्ध मंदिर है। हिमालय के दुर्गम क्षेत्र में स्थित मंदिर का शिवलिंग अति प्राचीन है ! यह बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक होने के साथ ही चार धाम और पंच केदारों में से भी एक है ! यहाँ की विषम जलवायु और प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण इसके कपाट, प्रभु दर्शनार्थ सिर्फ अप्रैल से नवंबर माह के मध्य ही खुलते हैं ! पत्थरों से कत्यूरी शैली में बने इस मन्दिर के बारे में कहा जाता है कि इसका निर्माण पांडवों के पौत्र महाराजा जन्मेजय ने तथा इस का जीर्णोद्धार आदि शंकराचार्य जी ने करवाया था ! इसकी आयु का कोई ऐतिहासिक प्रमाण तो उपलब्ध नहीं है पर विज्ञान के अनुसार इसका निर्माण 8वीं शताब्दी में हुआ था ! वैसे तत्कालीन विवरणों के अनुसार यह मंदिर कम से कम 1200 वर्षों से अपने अस्तित्व में है !
मंदिर एक छह फीट ऊँचे चौकोर चबूतरे पर बना हुआ है। इसके मुख्य भाग, मण्डप और गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणा पथ है। बाहर प्रांगण में नन्दी बैल वाहन के रूप में विराजमान हैं। मन्दिर को तीन भागों में बांटा जा सकता है, गर्भ गृह, मध्य भाग व सभा मण्डप। गर्भ गृह के मध्य में भगवान श्री केदारेश्वर जी का स्वयंभू ज्योतिर्लिंग स्थित है, जिसके अग्र भाग पर गणेश जी की आकृति और साथ ही माँ पार्वती का श्री यंत्र विद्यमान है। ज्योतिर्लिंग पर प्राकृतिक यज्ञोपवीत और इसके पृष्ठ भाग पर प्राकृतिक स्फटिक माला को आसानी से देखा जा सकता है । श्रीकेदारेश्वर ज्योतिर्लिंग में नव लिंगाकार विग्रह विद्यमान हैं, इसी कारण इस ज्योतिर्लिंग को नवलिंग केदार भी कहा जाता है।
इसके एक तरफ 22,000 फीट ऊंची केदारनाथ की पहाड़ी है तो दूसरी तरफ 21,600 फीट ऊंची कराचकुंड और तीसरी तरफ 22,700 फीट ऊंचा भरतकुंड है ! इन तीन पर्वतों से होकर बहने वाली पांच नदियां हैं, मंदाकिनी, मधुगंगा, चिरगंगा, सरस्वती और स्वरंदरी। इन सब का ब्यौरा हमारे पुराणों में उपलब्ध है ! केदारनाथ के संबंध में लिखा गया है कि जो व्यक्ति केदारनाथ के दर्शन किए बिना बद्रीनाथ की यात्रा करता है, उसकी यात्रा निष्फल जाती है और केदारनाथ सहित नर-नारायण-मूर्ति के दर्शन का फल समस्त पापों का नाश कर मोक्ष की प्राप्ति करवाता है।
वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ जियोलॉजी, देहरादून ने केदारनाथ मंदिर की चट्टानों पर लिग्नोमैटिक डेटिंग का परीक्षण किया, जो "पत्थरों के जीवन" की पहचान करने के लिए किया जाता है। परीक्षण से पता चला कि मंदिर 14वीं सदी से लेकर 17वीं सदी के मध्य तक पूरी तरह से बर्फ में दब गया था !आश्चर्य की बात है कि फिर भी मंदिर के निर्माण ढांचे में कहीं कोई नुकसान नहीं हुआ ! मंदिर ने प्रकृति के हर चक्र में अपनी ताकत बनाए रख अपने को सुरक्षित रखा है ! मंदिर के इन मजबूत पत्थरों को बिना किसी सीमेंट के "एशलर" तरीके से एक साथ चिपका दिया गया है। इसलिए पत्थर के जोड़ पर तापमान परिवर्तन का किसी भी तरह का प्रभाव नहीं पड़ता जो कि मंदिर की अभेद्य ताकत व क्षमता है।
मंदिर निर्माण की एक अनोखी बात यह भी है कि इसमें इस्तेमाल किया गया पत्थर बहुत सख्त और टिकाऊ है। इस पत्थर की विशेषता यह है कि 400 साल तक बर्फ के नीचे दबे रहने के बाद भी इसके "गुणों" में कोई अंतर नहीं आता है ! इसके साथ ही एक खास बात यह है कि ऐसा पत्थर यहां से दूर दूर तक कहीं भी उपलब्ध नहीं है ! तो उस पत्थर को वहां तक कैसे ले जाया गया होगा ! जबकि उस समय इतने बड़े पत्थरों को ढोने के लिए विशेष अपकरण भी उपलब्ध नहीं थे ! कैसे हमारे पुरातन भारतीय विज्ञान ने उस शिला को, जिसका उपयोग 6 फुट ऊंचे मंच के निर्माण के लिए किया गया है, मंदिर स्थल तक पहुंचाया होगा ! ढेरों सवाल हैं, जिनका कोई जवाब नहीं है !
साल 2013 में केदारनाथ में आई विनाशकारी बाढ़ के बारे में सभी को पता है ! इस दौरान जहां लगभग सब कुछ तबाह हो गया था, वहीं इतनी बड़ी विभीषिका के बावजूद भी केदारनाथ मंदिर का पूरा ढांचा जरा भी प्रभावित नहीं हुआ ! भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के मुताबिक, बाढ़ के बाद भी मंदिर का 99 फीसदी ढांचा पूरी तरह सुरक्षित है ! "आईआईटी मद्रास" ने भी अपने "एनडीटी परीक्षण" में इसे पूरी तरह से सुरक्षित और मजबूत पाया है ! यानी विज्ञान के अनुसार मंदिर के निर्माण में जिस पत्थर और संरचना का इस्तेमाल किया गया है, तथा जिस दिशा में इसे बनाया गया उसी की वजह से यह मंदिर इस त्रासदी से बच पाया है ! कितने आश्चर्य की बात है कि सदियों पहले कैसे उस स्थान और दिशा की खोज की गई होगी, जहां पर मंदिर अपने निर्माण के सैकड़ों साल बाद भी सुरक्षित बना रह सके ! केदारनाथ मंदिर "उत्तर-दक्षिण" दिशा के अनुरूप बनाया गया है। जबकि भारत में लगभग सभी मंदिर "पूर्व-पश्चिम" दिशा के अनुरूप हैं। विशेषज्ञों के अनुसार, यदि यह मंदिर "पूर्व-पश्चिम" की स्थिति में होता तो पहले ही कब का नष्ट हो चुका होता !
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