काम उन्हीं लोगों को दिया गया जो जमीन के नहीं, जी-हुजूरी में माहिर थे ! सड़क पर गिट्टी डालने वाले को जमीन पर हल चलाने का काम दे दिया गया ! मच्छर मारने की दवा छिड़कने वाले को पौधों की सुरक्षा संभलवा दी गई ! जिनको काली-पीली दाल का भी फर्क मालुम नहीं था, उन्हें बीजों के अंकुरण की जिम्मेदारी सौंप दी गई ! बड़बोले मौकापरस्तों को बाड़ की सुरक्षा हेतु तैनात कर दिया गया और तो और जिसके खुद की जमीन उसकी अज्ञानता से बंजर हो गई थी उसे ही बागीचे सौंदर्यीकरण का जिम्मा दे दिया गया
इस ब्लॉग में एक छोटी सी कोशिश की गई है कि अपने संस्मरणों के साथ-साथ समाज में चली आ रही मान्यताओं, कथा-कहानियों को, बगैर किसी पूर्वाग्रह के, एक अलग नजरिए से देखने, समझने और सामने लाने की ! इसके साथ ही यह कोशिश भी रहेगी कि कुछ अलग सी, रोचक, अविदित सी जानकारी मिलते ही उसे साझा कर ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जा सके ! अब इसमें इसको सफलता मिले, ना मिले, प्रयास तो सदा जारी रहेगा !
शनिवार, 19 मार्च 2022
उजड़ता बागीचा और घड़ियाली चमड़े के जूते
मंगलवार, 15 मार्च 2022
होली हो ले, उसके पहले सोचना तो बनता है
आज दोपहर बाद घर लौटते समय कालोनी के किसी ऊँचे से मकान से किसी बच्चे के हाथ से छूटी गुब्बारे रूपी मिसाइल मुझे मिस करती हुई सड़क से टकरा कर नष्ट हो गई ! अभी दो दिन बचे हैं त्यौहार के आने में, ऐसा ही कुछ सोच, टारगेट यानी मैंने तुरंत पलट कर देखा पर आशानुरूप ''लॉन्चर'' गायब था ! तभी पता नहीं कैसे विचारों ने पलटा खाया ! अपने बचपन के दिन याद आ गए, जब दसियों दिन पहले से इस आनंदमय उत्सव को मनाने का उत्साह जाग जाता था ! बड़े-छोटे-महिलाएं सब अपने-अपने तरीके से इसका स्वागत करने की तैयारियों में जुट जाते थे........!
#हिन्दी_ब्लागिंग
होली अपने समय पर फिर आ पहुंची है ! गांवों-कस्बों में तो भले ही कुछ जिंदादिली बची भी हो पर शहरों में तो सिर्फ औपचारिकता ही शेष रह गई है ! अब ना ही पहले जैसा उत्साह है, ना ही उमंग है, ना हीं कोई चाव ! ना ढफली ना चंग ना हीं ढोलक ! ना हीं फाग ना हीं संगीत ना हीं मस्ती ! ना घर में बने पकवान, ना ठंडाई, ना बेफिक्री का आलम ! सब तिरोहित होता चला गया समय के साथ-साथ ! उस पर सदा से किसी षड्यंत्र के तहत, तथाकथित बुद्धिजीवी, छद्म इतिहासकार, परजीवी सोशल मीडिया, मौकापरस्त वार्ताकार, अपनी आस्था, संस्कृति, परंपरा, उत्सवों में मीनमेख निकालने वालों की, ऐन मौके पर पानी बचाने की नसीहतें ढहती दिवार पर धक्के का काम करती रहीं !
हमारे त्योहारों पर ही मंहगाई, बेरोजगारी, जिंसों की कमियों का रोना क्यों रोया जाता है ! क्यों हमारे त्यौहार सिमटते चले जा रहे हैं ! क्यों एक दिवसीय आयातित उत्सव धीरे-धीरे हफ्तों तक मनवाए जाने लगते हैं ! क्यों हमारी पारंपरिक पकवानों-मिठाइयों को दरकिनार करवा कर चॉकलेट-पेस्ट्रियों को प्रमुखता दी जाने लग जाती है ! क्यों दीप जला कर वातावरण को प्रकाशमय बनाने की जगह दीप बुझा कर अंधेरे के आह्वान को उचित बताया जाने लगा है
अब बच्चों को भी पहले जैसे अवकाश नहीं मिलते ! उल्टे इन्हीं दिनों में परीक्षा का भूत उनके सर पर सवार करवा दिया जाता है ! फिर भी त्योहारों के प्रति उनका बालसुलभ उत्साह खत्म नहीं हुआ है ! सोचा जाए तो वे ही हैं, हमारे ध्वजवाहक, जो किसी भी बहाने सही, अपनी परंपराओं को जिंदा रखे हुए हैं ! इसलिए यदि कहीं से किसी बच्चे का कोई गुब्बारा या पिचकारी की धार आ कर आपके कपड़ों को भिगो भी जाती है तो मुस्कुरा कर उसे देखें, आपकी जरा सी मुसकुराहट उसको खुशी से लबरेज कर देगी ! कपड़ों का क्या है कुछ ही देर में सूख जाएंगे पर सारा वातावरण बच्चे की निश्छल हंसी, उसकी खुशी के रस से सराबोर हो जाएगा ! शायद इतने से उपक्रम से ही हम गायब होती परंपराओं को कुछ हद तक बचाने में कुछ सहयोग कर सकें !
आज दोपहर बाद घर लौटते समय कालोनी के किसी ऊँचे से मकान से किसी बच्चे के हाथ से छूटी गुब्बारे रूपी मिसाइल मुझे मिस करती हुई सड़क से टकरा कर नष्ट हो गई ! अभी दो दिन बचे हैं त्यौहार के आने में, ऐसा ही कुछ सोच, टारगेट यानी मैंने तुरंत पलट कर देखा पर आशानुरूप ''लॉन्चर'' गायब था ! तभी पता नहीं कैसे विचारों ने पलटा खाया ! अपने बचपन के दिन याद आ गए, जब दसियों दिन पहले से इस आनंदमय उत्सव को मनाने का उत्साह जाग जाता था ! बड़े-छोटे-महिलाएं सब अपने-अपने तरीके से इसका स्वागत करने की तैयारियों में जुट जाते थे !
उन दिनों पिताजी उस समय के कलकत्ता के पास एक जूट मील में अधिकारी थे ! मिल का पूरा स्टाफ एक परिवार की तरह था ! हर त्यौहार मिल-जुल कर ही मनाया जाता था, पर होली की बात सबसे निराली थी ! यह सबका सबसे प्रिय उत्सव हुआ करता था ! नई चंग या डफ लाई जाती थी ! उसका तरह-तरह से परिक्षण कर तैयार किया जाता था। इतने सारे परिवारों के लिए ठंडाई, गुझिया, मिठाई, नमकीन इत्यादि का पर्याप्त मात्रा में इंतजाम किया जाता था। रंग तो फैक्ट्री में उपलब्ध होते थे पर व्यक्तिगत पिचकारियों की खरीद उनका रख-रखाव एक अलग काम हुआ करता था। उन दिनों प्लास्टिक का चलन नहीं था। पिचकारियां लोहे या पीतल की, तीन आकारों में छोटी, मध्यम और बड़ी, हुआ करती थीं। उनमें दो तरह के "अड्जस्टमेंट" होते थे, एक फौव्वारे की तरह रंग फेंकता था, जिसकी दूरी के हिसाब से क्षमता कम होती थी, दूसरा एक धार वाला, जो कम से कम दस-बारह फुट तक पानी फेंक किसी को भिगो सकता था। सिर्फ रंग-गुलाल ! ना कीचड़ ना ग्रीस, ना कपड़ा फाडू हुड़दंग !
घंटों चलने वाले इन सब कार्यक्रमों के बाद संध्या समय होता था, प्रीतिभोज का। खाना-पीना मौज -मस्ती, गाना-बजाना या फिर मैदान में पर्दा लगा प्रोजेक्टर के माध्यम से किसी फिल्म का शो। पर उस शाम का मुख्य आकर्षण होती थी ठंडाई जो वहीं उचित देख-रेख में तैयार की जाती थी। जिसका स्वाद आज तक नहीं भुलाया जा सका है। उसके भी दो वर्ग हुआ करते थे, बच्चों और महिलाओं के लिए सादी और पुरुषों के लिए "बूटी" वाली। उधर युवा भी अपने से बड़ों का लिहाज कर ही उसका सेवन करते थे। जिस पर शिव जी की कृपा कुछ ज्यादा होने लगती वह चुपचाप वहां से खिसक लेता था। ना कभी हुड़दंग देखा- सुना गया ना हीं कभी किसी गलत हरकत को उभरते देखा गया ! कैसा समय था ! कैसे थे वे दिन और कैसे थे वे लोग !
क्या आज हमारी जिम्मेदारी नहीं बनती कि हम अपने गुम होते या सुनियोजित तरीके से गायब करवा दिए जा रहे त्योहारों, उत्सवों, परंपराओं को बचाने का उपक्रम करें ! सोचें कि हमारे त्योहारों पर ही मंहगाई, बेरोजगारी, जिंसों की कमियों का रोना क्यों रोया जाता है ! क्यों हमारे त्यौहार सिमटते चले जा रहे हैं ! क्यों एक दिवसीय आयातित उत्सव धीरे-धीरे हफ्तों तक मनवाए जाने लगे हैं ! क्यों हमारे ऋषि-मुनियों को भुलवा कर इम्पोर्टेड महापुरुषों को हम पर थोपा जाने लगा है ! क्यों हमारे पारंपरिक पकवानों, मिठाइयों को दरकिनार करवा कर चॉकलेट-पेस्ट्रियों को प्रमुखता दी जाने लगी है ! क्यों दीप जला कर वातावरण को प्रकाशमय बनाने की जगह दीप बुझा कर अंधेरे के आह्वान को उचित बताया जाने लगा है !ऐसे बहुत सारे क्यों हैं, जिन पर जरा सा थम कर विचार करने की जरुरत है !
क्या आप थमेंगे, जरा सा.........!!
बुधवार, 2 मार्च 2022
चमत्कार का यही चमत्कार है कि चमत्कार का एहसास ही नहीं हो पाता
तकलीफ बहुत बढ़ने पर कई बार गुहार की थी, ''क्या प्रभु ! यह जरा सा रोग नहीं दूर हो पा रहा !'' ऐसे में ही पता नहीं, पिछले दिनों कब और कैसे रात सोते वक्त नाक पर हाथ रख, मन ही मन ''नासै रोग हरे सब पीरा , जपत निरंतर हनुमत बीरा'' का तीन बार जप करना शुरू कर दिया था ! मेरा डॉक्टर और दवाइयों से यथाशक्ति परहेज ही रहता आया है ! तो क्या खांसी इसलिए शुरू हुई कि उसके बहाने मुझे अस्पताल जाना पड़े ! क्योंकि इसके पहले कभी भी इतने लंबे समय तक इसका प्रकोप नहीं हुआ था ! वहां जाने पर खांसी के चलते नाक की दवा भी मिली और वर्षों से चली आ रही ''एक्यूट'' तकलीफ से छुटकारा मिला ! अब यह क्या था........!
#हिन्दी_ब्लागिंग
भगवान सर्वव्यापी है ! रक्षक है ! तारणहार है ! सबकी सुनता है ! हरेक की सहायता करता है ! पर कभी अहसास नहीं होने देता ! खुद परोक्ष में रह, यश किसी और को दिलवा देता है ! चमत्कार होते हैं, पर इस तरह सरलता के साथ कि इंसान की क्षुद्र बुद्धि समझ ही नहीं पाती ! प्रभु चाहते हैं कि इंसान स्वाबलंबी बने, कर्म करे, उनके सहारे ना बैठा रहे ! इसीलिए वह ख्याल तो रखते हैं ! सहायता भी करते हैं ! पर किसी को एहसास नहीं होने देते ! होता क्या है कि मुसीबत में आदमी हाथ-पैर मारता ही है ! तरह-तरह के उपाय करता है ! इधर दौड़, उधर दौड़, यह आजमा, वह आजमा ! फिर जब ठीक हो जाता है तो अहसान भी उसी माध्यम का मानता है जो अंत में सहायक हुआ था ! तब तक वह भूल जाता है कि उसने परम पिता से भी सहायता मांगी थी और वह तो किसी को भी निराश नहीं करता ! यह भी भूल जाता है कि वह खुद भी उसी ईश्वर की रचना है उसकी बनाई प्रकृति, व्यवस्था का ही एक हिस्सा है, अपनी रचना की वह कभी उपेक्षा नहीं करता !
कभी-कभी मेरा अपने अतीत पर ध्यान जाता है तो ऐसे पचीसों हादसे याद आते हैं जब कुछ भी हो सकता था पर बचाव हुआ ! चाहे तालाब या कुएं में डूबने से बचा लिया गया होऊँ ! या सुनसान सड़क पर से तीन-चार साल की उम्र में भटक जाने पर कोई "अवतरित" हो सुरक्षित ले आया हो ! आग से बचाव, बिजली से बचाव, नौकरी के दौरान मशीनों से बचाव, ट्रेन से बचाव, सुनसान सड़क पर शहर से दूर निरुपाय हालत में किसी भी हादसे से बचाव ! खेल की चोट से बचाव, बिमारी से बचाव......! जितना याद आता जाता है, घटनाएं उतनी ही बढ़ती चली जाती हैं !
वह सिर्फ धन्यवाद लेता है ! यश किसी और को दिलवा देता है ! मैं आस्तिक जरूर हूँ ! आस्था भी है ! पर अंध विश्वास नहीं है ! नियमित पूजा-पाठ या मंदिर गमन भी नहीं हो पाता ! 15-20 मिनट ध्यान लगाने की कोशिश करता भी हूँ तो अपने सुविधानुसार ! जब कुछ विपरीत, निराशाजनक या तनाव दायक होता है, लगता है कि अन्याय हो रहा है, अति होती है तो शिकायत भी उसी से करता हूँ ! मुझे लगता है कि वह मुझे सुन रहा है ! लगता है कि उसे जब भी फुर्सत होगी मुझ अकिंचन की तरफ भी जरूर ध्यान देगा ! फिर इंसान उसे नहीं पुकारेगा तो और किसके पास जाएगा अपना दुखड़ा ले कर !
अभी क्या हुआ कि वर्षों से चली आ रही मेरे बंद नाक की समस्या अचानक दूर हो गई ! मुझे लगता है कि किलो से भी ज्यादा होम्योपैथी की गोलियां, उस पैथी की और दवाओं के साथ निगल चुका होऊंगा ! महीनों आयुर्वेद की औषधियों का भी सेवन किया ! एक्यूप्रेशर सिर्फ दिलो-दिमाग पर प्रेशर डाल कर रह गया !एलोपैथी वाले सिर्फ ऑपरेशन ही एकमात्र इलाज बतलाते थे, दोबारा फिर व्याधि के उभर आने के खतरे के साथ ! सो चल रहा था जैसे-तैसे, मुंह से सांस लेते, दसियों अड़चनों के साथ !
ऐसे में पिछले दिनों कुछ खांसी-कफ की शिकायत हुई ! पांच-सात दिन तो, अपने-आप ठीक हो जाएगी, की आश्वस्तता के साथ निकल जाने के बावजूद प्रकोप कम ना हुआ तो आजकल के दिन-काल की गंभीरता को देख डॉक्टर की शरण में जाना पड़ा ! खांसी के साथ ही उनसे लगे हाथ नाक के पॉलिप का जिक्र भी कर दिया ! उन्होंने दस दिन की दवा दी और बोले, चिंता ना करें ठीक हो जाएगा ! मैंने पूछा भी कि क्या ऑपरेशन जरुरी है ? तो बोले ऐसा कुछ जरुरी नहीं है, दवा से ही राहत मिल जाएगी ! और फिर चमत्कार ही हो गया, खांसी तो तीन दिन में ही ठीक हो गई और वर्षों-वर्ष से चौबीसों घंटे बुरी तरह ''चोक'' रहने वाले नाक के द्वार भी खुल गए ! कितने सालों बाद मिली इस राहत की ख़ुशी को ब्यान करना मेरे लिए मुश्किल लग रहा है !
जिस एलोपैथी के तीन-तीन डाक्टरों ने सिर्फ ऑपरेशन को ही अंतिम उपाय बताया था ! उसी की दवाओं से बिना शरीर पर चाक़ू चले रोग ठीक हो गया ! यह कैसे संभव हुआ.....! याद आता है कि तकलीफ बहुत बढ़ने पर कई बार गुहार की थी, ''क्या प्रभु ! यह जरा सा रोग नहीं दूर हो पा रहा !'' ऐसे ही पता नहीं, पिछले दिनों कब और कैसे रात सोते वक्त नाक पर हाथ रख, मन ही मन ''नासै रोग हरे सब पीरा, जपत निरंतर हनुमत बीरा'' का तीन बार जप करना शुरू हो गया था ! मेरा डॉक्टर और दवाइयों से यथाशक्ति परहेज ही रहता आया है ! तो क्या खांसी इसलिए शुरू हुई कि उसके बहाने मुझे अस्पताल जाना पड़े ! क्योंकि इसके पहले कभी भी इतने लंबे समय तक इसका प्रकोप नहीं हुआ था ! वहां जाने पर खांसी के चलते नाक की दवा भी मिली और वर्षों से चली आ रही ''एक्यूट'' तकलीफ से छुटकारा मिला ! अब यह क्या था........!
अपने हर दुःख, दर्द, तकलीफ की अति में हमें एक ही सहारा नजर आता है, भगवान ! अपने साथ कुछ गलत होते ही हम अनायास ही उसको याद करने लगते हैं ! कष्टों से मुक्ति, मुसीबतों से छुटकारा, कठिन परिस्थितियों से निजात दिलाने के लिए गुहार लगाते हैं ! हमें आशा रहती है, किसी चमत्कार की कि इधर हम बोले, उधर उसने मदद भेजी ! गोया कि वह बेल्ला बैठा, हमारी पुकार का इंतजार ही कर रहा हो ! उस पर यदि कुछ समय यूँ ही गुजर जाता है और अपनी स्थिति में कुछ सुधार होता नहीं दिखता तो लग जाते हैं, उसी को भला-बुरा कहने ! कई तो उसके अस्तित्व को ही नकारने लगते हैं ! जबकि बचपन से ही यह सुनते आए हैं कि उसके दरबार में देर भले ही हो सकती है, लेकिन अंधेर कभी नहीं ! पर बुरे समय में हमारी बुद्धि भी घास चरने चली जाती है ! विश्वास डगमगाने लग जाता है ! पर वह किसी को भी, कभी भी मंझधार में नहीं छोड़ता !
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