प्रकृति की गोद में, पहाड़ों से घिरे, गंगा किनारे वनाच्छादित, शांत-स्वच्छ परिवेश की छवि की कल्पना को जैसे ही सड़क पर टंगे दिशानिर्देशक बोर्ड ने, ''ऋषिकेश में स्वागत है'' की सुचना दी तो वहां की हालत देख ऐसा लगा जैसे किसी ने मधुर स्वप्न दिखाती नींद से उठा वास्तविकता की पथरीली सड़क पर पटक दिया हो ! वही किसी आम कस्बे की तरह धूल भरी उबड़-खाबड़ संकरी सड़कें, पहाड़ी से नीचे आते सूखे जलपथ ! उनमें बढ़ता कूड़ा-कर्कट ! लुप्तप्राय हरियाली, भीड़-भड़क्का, शोरगुल, गंदगी का आलम ! मन उचाट सा हो गया...........!
#हिन्दी_ब्लागिंग
कभी-कभी सुनी-सुनाई बातों से या मीडिया के माध्यम से किसी अनदेखे स्थान के बारे मेंं एक धारणा सी बन जाती है जो अपने हिसाब से दिमाग में उसके बारे में एक काल्पनिक चित्र का चित्रण कर देती है ! पर जब वहां जा कर उस जगह की असलियत सामने आती है तो सब कुछ झिन्न- भिन्न सा हो कर रह जाता है ! कुछ ऐसा ही हुआ जब पहली बार ऋषिकेश जाने का सुयोग बना।
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दूर के ढोल |
पिछले दिनों परिस्थियोंवश उत्तराखंड के शहर कोटद्वार जाने का मौका मिला। वहां जाते समय तो मुज़फ्फरनगर के खतौली से नजीबाबाद होते हुए गए थे। पर लौटते हुए हरिद्वार होते हुए आने का विचार बना। इसका एक कारण हरिद्वार के पास तक़रीबन 15 किमी दूर बहादराबाद में रह रहे अति स्नेही आर्या परिवार से मिलना था, जिन्हें मिले तकरीबन चालीस साल हो चुके थे। दूसरा योग की वैश्विक राजधानी ऋषिकेश,जहां अभी तक कभी भी जाना नहीं हो पाया था।
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वैसे तो हरिद्वार कई बार जाना हुआ था पर इसे संयोग ही कहा जा सकता है कि उससे सिर्फ 20-22 की. मी. की दूरी पर स्थित ऋषिकेश जाने का कभी भी सुयोग नहीं बन पड़ा। सो हफ्ता भर कोटद्वार में रहने और आस-पास की महत्वपूर्ण जगहों का भ्रमण करने के पश्चात बहादराबाद का रुख किया गया। दूसरे दिन तय कार्यक्रमानुसार भोजनादि के बाद एक बजे, जब पावन नगरी ऋषिकेश के लिए रवाना हुए तो उसकी, प्रकृति की गोद में, पहाड़ों से घिरे, गंगा किनारे वनाच्छादित, शांत-स्वच्छ परिवेश की छवि की कल्पना थी। पर जैसे ही सड़क पर टंगे दिशानिर्देशक बोर्ड ने ऋषिकेश में स्वागत है की सुचना दी तो वहां की हालत देख ऐसा लगा जैसे किसी ने मधुर स्वप्न दिखाती नींद से उठा वास्तविकता की पथरीली सड़क पर पटक दिया हो !
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आश्रमों या मठों का वातावरण भले ही स्वच्छ-शांतिमय हो पर बाकी, वही किसी आम कस्बे की तरह धूल भरी उबड़-खाबड़ संकरी सड़कें, पहाड़ी से नीचे आते सूखे जलपथ ! उनमें बढ़ता कूड़ा ! टूटे घाट ! लुप्तप्राय हरियाली, भीड़-भड़क्का, शोरगुल, गंदगी का आलम ! यह सब देख मन उचाट सा हो गया ! पेशोपेश यह कि अब क्या करें, कहां रुकें ! उस समय दिमाग में एक ही नाम आया, लक्ष्मण झूला ! पूछ-ताछ कर गाडी को उधर मोड़ा गया। किसी तरह उस जगह पहुंचे ! आड़ी-टेढ़ी, उबड़-खाबड़ सी पार्किंग में सौ रूपए का जुर्माना दे कर गाडी खड़ी की। वहां से दो सौ मीटर चल कर गंतव्य तक पहुंचे। यहां से झूले तक जाने के लिए सीधी 42 सीढ़ियां उतरनी पड़ती हैं। गंगा नदी पर बने इस पैदल पहले के झूलते पुल को अब फिक्स कर कर दिया गया है ! यही यहां का मुख्य आकर्षण है। पर ऋषिकेश शहर की तरह यह भी हम नागरिकों की लापरवाही का अंजाम भुगत रहा है !
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अनिंयत्रित आबादी, सुगम यात्रा पथ, उपलब्ध सुविधाएं, बढ़ते पर्यटन प्रेम से हर पर्यटन स्थल का रख-रखाव दूभर होता जा रहा है ! कहीं भी चले जाइए, बदहाली - बदइंतजामी का माहौल है। स्थानीय लोगों की आमदनी तो बढ़ रही है, पर ऐसा लगता है कि सोने का अंडा देने वाली मुर्गी जल्द ही लालच का शिकार हो अपना अस्तित्व गंवाने वाली है। कमाई की हवस में जब हम अपने स्रोत को ही सूखा डालेंगे तो फिर उपार्जन कहां से होगा ! ऐसे पौराणिक, धार्मिक, इतिहासिक स्थलों के संरक्षण के लिए विशेष योजनाओं की जरुरत है। आज हरिद्वार को कुंभ के अवसर पर अलौकिक रूप से संवारा जा रहा है. तो उससे जुड़े इस महत्वपूर्ण स्थल ऋषिकेश की उपेक्षा ना कर उसकी भी सुध जरूर ली जानी चाहिए।