हमारे देश के कई भागों में चावल के उपयोग की प्राथमिकता पीढ़ियों से चली आ रही है। चूँकि हमारे यहां संयुक्त परिवार तथा मेहमानवाजी का चलन भी सदा से रहा है, इसलिए कुछ अतिरिक्त चावल बनाना एक नियम सा बन गया था, जिससे किसी के देर से या अचानक आने पर उसे तुरंत भोजन करवाया जा सके। ऐसे में कुछ ना कुछ भोजन बच जाना स्वाभाविक ही था। उस समय में मितव्यतता के साथ-साथ अन्न का बहुत आदर होता था ! इसी के चलते इस खाद्य का आविष्कार हुआ
#हिन्दी_ब्लागिंग
अंग्रेजी राज में थौमस् बैबिंग्टन् मैकाॅलेऽ की असीम अनुकम्पा से हम सब इतने शिक्षित हो गए कि हमें अपना सारा अतीत, गौरव, संस्कृति, परम्पराएं दकियानूसी लगने लगीं। हमें अपने रहन-सहन, खान-पान, परंपराएं अपनाने में शर्म आने लगी ! अपने रीती-रिवाज पिछड़ेपैन की निशानी लगने लगे ! कभी खेती के तरीकों के लिए जो पश्चिम अपने को हमारा ऋणी मानता था, हम अब उसी के पदचिन्हों पर चलने की भूल कर बैठे ! हमें ध्यान ही नहीं रहा कि हर देश-प्रदेश का पहनना-ओढ़ना, भोजन इत्यादि वहां की आबो-हवा, मौसम और प्रकृति के अनुसार होता है ! पश्चिम की नक़ल की अंधी दौड़ में हमने कई जीवनोपयोगी रोजमर्रा की घर में उपयोग होने वाली वस्तुओं को नजरंदाज तो किया ही, अपने सेहतमंद, पौष्टिक खाद्यों को भी तब तक हेय नजर से देखते रहे जब तक पश्चिम से उस चीज की उपयोगिता, गुणवत्ता, लाभ, उपादेयता आदि पर मोहर लग कर ना आ जाए। इसी हीन भावना के कारण हमने अपनी कई दिव्य, अमूल्य ओषधियों, जड़ी-बूटियों, मसालों पर उन्हें पेटेंट करने का मौका दे दिया !
आज एक ऐसे ही खाद्य पदार्थ की चर्चा ! जिसको हमारे तथाकथित पढ़े-लिखे आधुनिक नगरनिवासी, गांव के गरीबों व मजबूर लोगों द्वारा मजबूरी और बेहाली में पेट भरने का बासी खाना कह, समझ कर हिकारत की दृष्टि से देखा करते थे। उसी तिरस्कृत खाद्य को अमेरिकन न्यूट्रीशियन एसोसिएशन (ANA) ने महिमांडित करते हुए उसके अनेकों फायदों को दुनिया के सामने उजागर किया है। हमारे देश के कई भागों में चावल के उपयोग की प्राथमिकता पीढ़ियों से चली आ रही है। चूँकि हमारे यहां संयुक्त परिवार तथा मेहमानवाजी का चलन भी सदा से रहा है, इसलिए कुछ अतिरिक्त चावल बनाना एक नियम सा बन गया था, जिससे किसी के देर से या अचानक आने पर उसे तुरंत भोजन करवाया जा सके। ऐसे में कुछ ना कुछ भोजन बच जाना स्वाभाविक ही था। उस समय में मितव्यतता के साथ-साथ अन्न का बहुत आदर होता था ! इसी के चलते इस खाद्य का आविष्कार हुआ जिसे बंगाल में पांथा भात, ओडिसा में पखाल, छत्तीसगढ़ में भोर बासी, तमिलनाडु और दक्षिणी क्षेत्र में पयड़दु या तथा बिहार अंचल में 'पानी भात' कहा जाता है। देश के दक्षिणी, पूर्वी और कुछ उत्तरी भागों के अलावा इसे म्यांमार, नेपाल और बांग्ला देश जैसी जगहों में भी खाया जाता है।
यह शरीर को ऊर्जावान बनाता है ! थकान महसूस नहीं होने देता ! सुस्ती दूर करता है ! शरीर में लाभकारी बैक्टेरिया की बढ़त होती है ! शरीर की बढ़ी हुई गर्मी कम होती है ! पेट के लिए बहुत मुफीद है ! रक्तचाप को नियंत्रित करता है
है क्या यह ! यह रात के बचे हुए चावल का दूसरे दिन बनाया गया एक व्यंजन है ! जिसके लिए कुछ ज्यादा उठा-पटक भी नहीं करनी पड़ती। सिर्फ रात के बचे भात को पानी में डुबो कर रख दिया जाता है ! रखने के लिए यदि मिटटी का बर्तन हो तो और भी बेहतर है, जिससे इसका स्वाद काफी बढ़ जाता है। रात भर पानी में रहने से यह किण्वित याने फर्मेन्टेड हो जाता है अर्थात इसमें खमीर की उत्पत्ति हो जाती है। सुबह इसका पानी निकाल चावल को दही, अचार, चटनी या सिर्फ नमक-मिर्च के साथ अपनी सुविधा और स्वादानुसार खाया जा सकता है। इस सुपाच्य और पौष्टिक खाद्य की तासीर ठंडी होती है इसलिए गर्मी और उमस के मौसम के लिए यह बहुत लाभकारी होता है। इसका निकला हुआ पानी भी काफी सुपाच्य होता है।
अमेरिकन न्यूट्रीशियन एसोसिएशन की रिपोर्ट के अनुसार यह शरीर को ऊर्जावान बनाता है ! थकान महसूस नहीं होने देता ! सुस्ती दूर करता है ! शरीर में लिए लाभकारी बैक्टेरिया की बढ़त होती है ! शरीर की बढ़ी हुई गर्मी कम होती है ! पेट के लिए बहुत मुफीद है ! चूँकि फायबर युक्त होता है, इसलिए कब्ज वगैरह से भी निजात दिलाता है ! रक्तचाप को नियंत्रित करता है ! टेंशन दूर करता है ! इसका विटामिन B12 का भंडार एलर्जी, त्वचा की बीमारियों और झुर्रियों वगैरह को दूर रखता है।
योरोपियन तो इसके इतने भक्त हो गए हैं कि इसकी वहां बाकायदा ''मॉर्निंग राइस'' ब्रांड नाम से बिक्री होनी भी शुरू हो चुकी है। अब हमारे यहां भी इस पर और शोध के लिए प्रोजेक्ट बनने आरंम्भ हो चुके हैं। चलिए, देर आए दुरुस्त आए ! जागे तो सही ! अपनी धरोहरों की कीमत पहचानी तो सही ! यदि ऐसा एक कदम उठा है: तो आशा है भविष्य में हम अपने अनमोल पर हाशिए धकेल दिए गए अनुपम ज्ञान का फिर मानव कल्याण के लिए उपयोग कर सकेंगे। पर पहले हमें अपने अंदर गहरे तक पैठ चुकी हीन भावना और अपने ही प्रति सहेजी हुई नकारात्मकता को निकाल फेंक, अपने ऋषि - मुनियों द्वारा बताए - सुझाए गए आहारों, उनके गुणों और उनको अपनाने के कारणों को अपनी आगे की पीढ़ियों को समझाना पडेगा ! जिससे वे सिर्फ चलन के कारण कुछ भी खाने के पहले उसके गुण-दोषों को ठीक से समझ सकें और भोजन विकार से खुद को बचा सकें।
आभार - अंतर्जाल तथा मैनेजमेंट फंडा
29 टिप्पणियां:
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" सोमवार 11 जनवरी 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
पंचामृत में सम्मिलित करने हेतु हार्दिक आभार व धन्यवाद
सही कहा आपने कि हर देश-प्रदेश का पहनना-ओढ़ना, भोजन इत्यादि वहां की आबो-हवा, मौसम और प्रकृति के अनुसार होता है !परन्तु हम ये सब भूलकर अपने देश के खानपान रहन-सहन छोड़ दूसरों की नकल कर स्वयं को आधुनिक दिखाने के प्रयासों में लगे हैं
चलो जब विदेशों में अपना बासी भात विख्यात होगा तब हम भी उसी रूप में उसे उन्हीं की देन मानकर स्वीकार करेंगे.. मौर्निंग राइस कहकर......
बहुत सटीक सार्थक एवं सारगर्भित लेख।
सुधा जी
हमारा आत्म विश्वास ही खो गया है
सार्थक और सारगर्भित आलेख के लिए आपको बहुत बहुत बधाई। सादर।
वीरेंद्र जी
आपका सदा स्वागत है
गगन जी, बहुत ही सुन्दर लेख आपने लिखा है..हमारे लगभग सभी पारंपरिक खानपान का स्वास्थ्य के साथ सीधा सम्बंध है परन्तु हम अपनी परम्परा, रहन सहन तथा खान पान को लेकर हमेशा हीनभावना से ग्रस्त रहते हैं और पश्चिमी देशों की नकल में अपनी संस्कृति और सभ्यता को भूलते जा रहे हैं, जो नहीं होना चाहिए..सार्थक लेख के लिए आपको शुभ कामनाएँ..
जिज्ञासा जी
आपका सदा स्वागत है
नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार 11 जनवरी 2021 को 'सर्दियों की धूप का आलम; (चर्चा अंक-3943) पर भी होगी।--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
रवीन्द्र जी
सम्मिलित करने हेतु हार्दिक आभार । स्नेह बना रहे
बहुत सुन्दर लेख
सुन्दर और सार्थक आलेख।
ओंकार जी
हार्दिक आभार
शास्त्री जी
अनेकानेक धन्यवाद
सुन्दर। विश्व हिन्दी दिवस पर शुभकामनाएं।
सुशील जी
विश्वपटल पर हिंदी सर्वोपरी हो यही कामना है
ज्ञानवर्धक लेख । अति सुन्दर ।
गांवों में आज भी यह परंपरा जीवित है । अन्न का पुनरुपयोग ।
मीना जी
हार्दिक आभार
अमृता जी
गांवों में ही थोडी-बहुत परंपराओं का निर्वहन होता है, शहर तो योरोप बन गए हैं
बहुत जानकारीपूर्ण लेख
बहुत उपयोगी आलेख, विभिन्न अंचलों में विशेषतः कृषक लोग इस बासी भात का नियमित रूप से सेवन करते हैं और शहरी लोगों से कहीं अधिक सेहतमंद होते हैं।
वर्षा जी
"कुछ अलग सा" पर आपका सदा स्वागत है
शांतनु जी
बिल्कुल सही!
बहुत अच्छी जानकारी
गगन भाई,सामान्य समजूत यही है कि बासी चावल नुकसान करते है। आपने गृहिणियों की एक समस्या हल कर दी कि बासी चावल का क्या करे। बहुत बहुत धन्यवाद।
ज्योति जी
आपका कहना सही है कि यह धारणा व्यापक है पर अन्न की बर्बादी से बचने के लिए गृहणियों ने भी कई हानिरहित उपाय खोज रखे हैं
एक नई जानकारी के लिए आभार
स्वागत है,कदम जी
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