सोमवार, 22 जून 2020

दुर्वासा ऋषि का क्रोध बना था समुद्र मंथन का कारण

यह अपने समय का, या यूं कहें कि सर्वकालीन एक अकल्पनीय व अभूतपूर्व उपक्रम था ! कोई सोच सकता था भला कि दुर्वासा के एक श्राप से सारे जगत में कैसी उथल-पुथल मच जाएगी। शिव को विष पान करना पड़ जाएगा ! देवता अमर हो जाएंगे ! सूर्य-चंद्र ग्रहण होने लगेंगे ! अयप्पा का जन्म होगा ! राक्षसी महिषि का असंभव सा वध भी संभव हो पाएगा ! धरा तरह-तरह की नेमतों से अलंकृत हो जाएगी ! कुंभ जैसे वृहद एवं चिरस्थाई उत्सवों का आयोजन होने लगेगा ! इत्यादि....इत्यादि....इत्यादि....!
   
#हिन्दी_ब्लागिंग 
संसार में घटने वाली बड़ी घटनाओं या वाकयात के पीछे महीनों पहले निर्मित हुई परिस्थितियों या कारणों का हाथ जरूर होता है। कभी-कभी तो ये इतने मामूली होते हैं कि कोई सोच भी नहीं सकता कि इनके कारण भविष्य में सारे जगत को प्रभावित करने वाली कोई घटना भी घट सकती है। फिर चाहे दुर्वासा का क्रोध हो जो देवासुर संग्राम का जरिया बन गया ! चाहे मंथरा की जिद जिसने राम-रावण युद्ध की भूमिका रच डाली ! द्रौपदी की एक हंसी ने सारे आर्यावर्त को रुदन के सागर में डुबो दिया ! आर्चड्यूक फ़र्डिनेंड की हत्या प्रथम विश्वयुद्ध का कारण बन गई या फिर विश्व की 1929-30 की आर्थिक मंदी ने द्वितीय महायुद्ध का आह्वान कर डाला हो ! कौन सोच सकता था कि ऐसी बातों से भी सारा संसार आपस में एक-दूसरे के खून का प्यासा हो जाएगा ! पौराणिक काल में भी एक ऐसी ही छोटी सी बात आज तक की सबसे विस्मयकारी, अद्भुत, अकल्पनीय घटना, समुद्र मंथन का कारण बन गई थी।  
यह उस समय की बात है जब अभी पृथ्वी का विकास और निर्माण पूरा नहीं हुआ था। सिर्फ सुमेरु पर्वत के आस-पास का इलाका ही रहने योग्य हो सका था बाकी चारों ओर सब जगह पानी ही पानी था। उसको रहने लायक और मानव योग्य बनाने का उपक्रम चल रहा था। इसलिए अभी देवता, अपने दायाद बंधु, असुरों के साथ ही धरती पर रहते थे। परन्तु यह काम उनके अकेले के वश का नहीं था। इस विशाल, महान, श्रमसाध्य कार्य के लिए कई दैवीय शक्तियों और उपकरणों की आवश्यकता थी। दैवीय उपकरण सागर मंथन से ही उपलब्ध हो सकते थे और इसके लिए यह जरुरी था कि दैत्य-दानव जैसी आसुरी शक्तियों का भी सहयोग लिया जाए। पर सुर और असुर एक दूसरे के जानी दुश्मन थे ! इस समस्या को सुलझाने के लिए त्रिदेवों ने काफी सोच विचार कर एक योजना बनाई और असुरों को साथ लाने का कारण गढ़ा गया। 
एक बार दुर्वासा ऋषि को, विश्राम के दौरान, उनके आश्रम में कुछ विद्याधरों ने दिव्य संतानक पुष्पों की माला अर्पित की। माला की सुगंध दूर-दूर तक फैल रही थी। उसी समय उधर से गुजरते हुए, अपने हाथी पर आरूढ़ इंद्र ने ऋषि को प्रणाम किया। दुर्वासा ने खुश हो कर वह माला इंद्र को दे दी। पर इंद्र ने उपेक्षा पूर्वक उसे हाथी के गले में डाल दिया। पुष्पों की तेज गंध से गजराज ने परेशान माला को तोड़ अपने पैरों से कुचल डाला। अपने उपहार का तिरस्कार होता देख दुर्वासा अत्यंत क्रोधित हो उठे और उन्होंने इंद्र को श्राप देते हुए कहा कि, ''हे इंद्र ! जिस वैभव का तुम्हें इतना अभिमान है वह ख़त्म हो जाएगा और उसके साथ ही तुम भी श्री हीन हो जाओगे !'' इंद्र की किसी भी अनुनय-विनय का ऋषि पर कोई असर नहीं हुआ। श्राप के कारण इंद्र निस्तेज हो गया ! उसके साथ ही अमरावती और देवों की शक्तियों का भी ह्रास हो गया। इस बात की खबर मिलते ही असुरों ने अपने शक्तिशाली राजा बलि के नेतृत्व में स्वर्ग लोक पर आक्रमण कर उसे वहां से निष्काषित कर दिया। इंद्र सहित सारे देवता विष्णु जी के पास गए और उनसे अपनी विपदा कही। तब विष्णु ने उन्हें दानवों की मदद से समुद्र मंथन करने की सलाह दी। दानवों को मनाने के लिए उन्हें अमृत का लालच देने की सलाह भी दी। अमरत्व की लालसा में असुर राजी हो गए।
क्षीरसागर, जो आज हिंद महासागर कहलाता है, को मंथन के लिए चुना गया ! मदरांचल पर्वत को, जो आज के बिहार के बांका जिले में स्थित है, मथानी  का रूप तो दे दिया गया पर अथाह सागर में उसको टिकाना सबसे बड़ी समस्या बन गई ! तब फिर विष्णु जी ने देवताओं की सहायता के खातिर कच्छप का रूप ले सागर के बीचोबीच अपने को स्थिर कर मदरांचल को अपनी पीठ पर टिका लिया। नेती के रूप में वासुकि नाग की सहायता ली गई। उसके घोर कष्ट को देखते हुए उसे गहन निद्रा का वरदान दिया गया। फिर भी विष्णु जानते थे कि मंथन के दौरान रगड़ से वासुकि को अपार कष्ट होगा जिससे उसकी जहरीली फुफकार निकलेगी उससे देवताओं की रक्षा जरुरी होगी। इसलिए उन्होंने इंद्र से कहा कि मंथन के पहले तुम सब आगे बढ़ कर वासुकि के मुंह को थाम लेना और असुरों से कहना कि हम तुमसे श्रेष्ठ हैं, इसलिए हम मुंह की ओर रहेंगे। इंद्र ने जब ऐसा किया तो असुर भड़क गए और बोले, अरे इंद्र ! तुझे अभी भी लाज नहीं आती जो हमसे हारने के बाद भी अपने आप को श्रेष्ठ समझता है ! तुम सब अधम हो और अधम ही रहोगे। इसलिए पूंछ वाला हिस्सा ही तुम्हारा उचित स्थान है। देवता तो चाहते ही यही  थे, वे बिना ना-नुकुर किए दूसरी तरफ चले गए। जैसा कि विष्णु जी ने सोचा था वैसा ही हुआ कुछ ही देर में वासुकि की फुफकार से असुरों पर कहर टूट पड़ा। फिर जैसे-तैसे मंथन पूरा हुआ। देवताओं की कुटिलता से असुर फिर मात खा गए ! फिर जो कुछ भी हुआ वह जग तो जाहिर है ही। 

यह अपने समय का एक अकल्पनीय उपक्रम था ! कोई सोच सकता था भला कि दुर्वासा के एक श्राप से सारे जगत में कैसी उथल-पुथल मच जाएगी। शिव को विष पान करना पड़ जाएगा ! देवता अमर हो जाएंगे ! सूर्य-चंद्र ग्रहण होने लगेंगे ! अयप्पा का जन्म होगा ! राक्षसी महिषि का वध संभव हो पाएगा ! इत्यादी...इत्यादी...इत्यादि.......!

@चित्र अंतर्जाल से, साभार 

21 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर और जानकारीपरक।

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

शास्त्री जी,
अनेकानेक धन्यवाद,

Unknown ने कहा…

Es tarah ki pouranik khathao ka hamesha intezar rahega

Chetan sharma ने कहा…

Bahut sunder vernan, Es tarah ki paoranik khathao ka intezaar rahega

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

Unknown जी
कभी पूरे परिचय के साथ पधारें, बहुत अच्छा लगेगा

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

चेतन जी
अनेकानेक धन्यवाद। कोशिश रहेगी ¡

विकास नैनवाल 'अंजान' ने कहा…

सही कहा आपने। कभी कभी छोटी छोटी घटनाएं ही आगे होने वाली बड़ी घटनाओं की नीव होती हैं। इस बात को आपने समुद्र मंथन के उदाहरण से बाखूबी बताया। ऐसे और लेखों का इन्तजार रहेगा।

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

विकास जी
आपका सदा स्वागत है

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

शास्त्री जी
सम्मिलित करने हेतु आभार व अनेकानेक धन्यवाद

Jyoti Dehliwal ने कहा…

जानकारीपरक आलेख।

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

ज्योति जी
अनेकानेक धन्यवाद

मन की वीणा ने कहा…

पौराणिक तथ्यों पर आधारित जानकारी युक्त पोस्ट।
रोचक सुंदर।

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

कुसुम जी
हार्दिक आभार

Kamini Sinha ने कहा…

पौराणिक कथाएं जितनी बार भी पढ़ते हैं कुछ नया जानने को मिल ही जाता हैं ,ज्ञानवर्धक आलेख ,सादर नमन आपको

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

कामिनी जी
मुख्य कथा से जुडी उपकथाऐं और भी मनोरंजक लगती हैं

Jyoti Singh ने कहा…

बहुत ही बढ़िया ,जब पढ़ रही थी तो यही सोच रही थी ,पहले बात बात पर लोग श्राप दे दिया करते थे ,कई पौराणिक कथाओं में ऐसा देखा गया, और वो सच भी हो जाते थे ,अब ऐसा कुछ नहीं होता हैं वर्ना सारी बुराईया इस हथियार से खत्म कर दी जाती ,नमस्कार

ANIL DABRAL ने कहा…

महापुरुषों का श्राप भी वरदान बन जाता है... बहुत सुंदर कथा समुद्र मंथन की।

Alaknanda Singh ने कहा…

बहुत सुंंदर कथा समुद्र मंथन की

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

ज्योति जी
कहते हैं कि श्राप भी यूंही नहीं दे दिया जाता था, उसमें भी देने वाले के तप-पुण्य का कई गुना ह्रास हो जाता था

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

अनिल जी
पता नहीं किस-किस का क्या-क्या हेतु बन जाता है। आपका "कुछ अलग सा" पर सदा स्वागत है

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

अलकनंदा जी
अनेकानेक धन्यवाद

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