शुक्रवार, 1 मई 2020

लक्ष्य भेद ! चाहे जैसे भी चिड़िया की आँख भेदनी पड़े

अब सत्यजीत रे साहब तो इतने बड़े, महान, विश्वविख्यात कलाकार थे; जब उनकी कलाकृति की दस तरह की व्याख्याएं कर दी गयीं तो हमारे जैसे लोगों की क्या हैसियत, जो अपनी आधे से ज्यादा रचनाओं को दूसरों की प्रेणना से प्रेरित हो, क्लेवर बदल अपने नाम से धकेल देते हैं ! दीपावली की मिठाई की तरह ! और यदि कोई ऐसे लिखे को किसी भी कारणवश पढ़ कुछ टिपियाता भी  देता  है तो किसी अघोषित नियमावली के अनुसार वह टिपियाया जाना सिर्फ प्रशंसात्मक, सराहनीय, प्रशस्तिनुमा ही होता है ! क्योंकि दूसरे हाथ से लेना भी तो होता है ना कभी न कभी ! अब वह भी क्या करे, क्या ध्यान दे ! वह भी तो उसी बगीचे की सैर में शामिल लोगों में से एक होता है जहां से यह फूल लिया गया है................!  

#हिन्दी_ब्लागिंग  
आज के बुद्धीजीवी लोगों से दिक्कत बहुत है ! सीधा सरल भी कुछ लिखा-कहा जाता है तो उसका  ऐसा-ऐसा अर्थ निकाल देते हैं जिसको कभी लिखने-कहने वाले के खानदान ने भी नहीं सोचा होता ! जैसे एक बार हमारे सर्वकालीन महान फिल्म डायरेक्टर सत्यजीत रे साहब ने एक शुद्ध बाल फिल्म ''गुपी गाईन, बाघा बाईन'' बच्चों के लिए बनाई थी ! रिलीज होते ही महान आलोचकों ने उसके विषय का बतंगड़ बना डाला ! कोई उसे महान राजनितिक व्यंग्य बताने लगा, तो कोई पुराने ग्रंथों से संबंध जोड़ने लगा, किसी ने गूढ़ दार्शनिक अर्थ निकाल कर रख दिए ! तंग आ कर कुछ दिन बाद रे साहब को आखिर विज्ञप्ति जारी करनी पड़ी कि मैं सभी विद्वानों का आदर करता हूँ ! पर अचंभित हूँ उनके इतने व्यापक दृष्टिकोण से ! यह फिल्म मेरे नानाजी की एक बाल कथा पर आधारित सिर्फ बच्चों की कहानी का चित्रांकन है इसमें कोई गूढ़ संदेश ना छिपा हुआ है ना हीं दिया गया है।

अब रे साहब तो इतने बड़े, महान, विश्वविख्यात कलाकार थे; जब उनकी कलाकृति की दस तरह की व्याख्याएं कर दी गयीं तो हमारे जैसे लोगों की क्या हैसियत, जो अपनी आधे से ज्यादा रचनाओं को दूसरों की प्रेणना से प्रेरित हो, क्लेवर बदल अपने नाम से धकेल देते हैं, दीपावली की मिठाई की तरह ! और यदि कोई ऐसे लिखे को किसी भी कारणवश पढ़ कुछ टिपियाता भी है तो, किसी अघोषित नियमावली के अनुसार वह टिपियाया जाना सिर्फ प्रशंसात्मक, सराहनीय, प्रशस्तिनुमा ही होता है, क्योंकि दूसरे हाथ से लेना भी तो होता है ना कभी न कभी ! अब वह भी क्या करे, हालांकि वह तथाकथित रचना के शब्दों की हेराफेरी के जाल में फंसा होता है पर साथ ही उसे यह भी लगता रहता है कि ऐसा कुछ पहले भी कहीं पढ़ा जा चुका है ! पर कौन ध्यान दे ! वह भी तो उसी बगीचे की सैर में शामिल लोगों में से एक होता है जहां से यह फूल लिया गया है !  

वैसे किया भी क्या जा सकता है ! मारम-मार ही इतनी है ! सबको अपना पढवाने की होड़ है ! दूसरों के लिए समय कहां है ! फिर अपने से ज्यादा दूसरे को विद्वान समझने की गलतफहमी भी कोई नहीं पालता ! सो पढ़ता कौन है ! बस सब लिखे जा रहे हैं ! लिखे जा रहे हैं ! अब थोक के प्रोडक्शन में गुणवत्ता का क्या काम ! कोई अपेक्षा भी नहीं करता ! हाँ, लिखने वाला अपने आप को वेदव्यास से कम नहीं समझता सो अपने रचे हादसों को संजो कर पुस्तकाकार कर देता है। इसके फायदे भी घणे हैं ! एक तो घर में सजी किताबों को देख कर मेहमानों पर रुआब ग़ालिब हो जाता है। बैठे-बिठाए ना होते हुए भी लेखकों में नाम शुमार हो जाता है। नाम के साथ पुस्तकों की संख्या जुड़ती जाती है ! तब यह नहीं देखा जाता कि क्या लिखा, तब इस पर ध्यान दिया जाता है कि कितना लिखा ! जितनी ज्यादा किताबें उतना बड़ा नाम। अब नाम बड़ा तो एकाधिक पत्रों में लिखने का मौका हासिल होने लगता है, सभा-सोसायिटियों का बुलावा आने लगता है। लोगों द्वारा जानने का दायरा बढ़ने लगता है ! और यदि उसी समय सूर्य और शुक्र सहाई हो जाएं तो राजनीतिक क्षेत्र की ओर से भी ठंडी बयार आने में देर नहीं लगती जो अपने साथ कुछ भी ला सकती है पद, सम्मान, प्रतिष्ठा....कुछ भी ! तो यदि शब्दों से थोड़ी बहुत भी जान पहचान है तो लिखते रहिए, कुछ भी, चिंता न करें गुणवत्ता की ! तुक मिलने ना मिलने की ! बात समझने की समझाने की ! मकसद एक ही होना चाहिए लक्ष्य भेद ! फिर चाहे खुद ही पेड़ पर चढ़ तीर को चिड़िया की आँख में भोंकना पड़े !     

6 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

सार्थक और सन्देशप्रद आलेख

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

आभार, शास्त्री जी !

दिगम्बर नासवा ने कहा…

लक्ष्य भेद बतलाते बतलाते सही लपेटा है ...
मस्त लिखा है ...

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

नासवा जी
अनेकानेक धन्यवाद

रेणु ने कहा…

गगन जी , रोज़ - रोज़ लिखने वाले मस्त और पढ़ने वाले पस्त !! खूब लिखा आपने 👌👌👌🙏🙏

Meena sharma ने कहा…

ये एकदम सही निशाने पर लगने वाला तीर है।
बहुत अच्छा व्यंग्य आदरणीय गगनजी। वैसे ये तारीफ झूठी नहीं है।

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