सोमवार, 22 अप्रैल 2019

अपने इतिहास को जानना भी जरुरी है

बहुत खेद हुआ जब हल्दीघाटी के बारे में एक दसवीं के छात्र ने अनभिज्ञता दर्शाई ! हल्दीघाटी तो एक मिसाल भर है। ऐसी  शौर्य, साहस , निडरता, देशप्रेम की याद दिलाने वाली सैंकड़ों जगहें हैं जो हमारे गौरवशाली इतिहास की प्रतीक है ! पर दुःख इसी बात का है कि हमारी तथाकथित आधुनिक शिक्षा प्रणाली में ऐसे विषयों की कोई अहमियत नहीं रह गयी है। जिसके फलस्वरूप आज के बच्चों को तो छोड़िए उनके अभिभावकों तक को इनके बारे में पूरी और सही जानकारी नहीं है ! इसमें उनका कोई दोष भी नहीं है, जब आप किसी चीज के बारे में बताओगे ही नहीं तो उसके बारे में किसी को क्या जानकारी होगी ......... !

#हिन्दी_ब्लागिंग  
हल्दीघाटी, नाम सुनते ही जो पहली तस्वीर दिमाग में बनती है वह एक पर्वतीय घाटी में राणा प्रताप और मुगलों के बीच हुए भीषण युद्ध का खाका खींच देती है। अधिकांश लोगों को यही लगता है कि यह पहाड़ियों के बीच स्थित बड़ी सी जगह होगी जहां प्रताप ने मुगलों के दांत खट्टे कर दिए थे। पर सच्चाई कुछ और है। हल्दी घाटी उदयपुर से तक़रीबन 48 की.मी. की दूरी पर अरावली पर्वत शृंखला में खमनोर और बलीचा गांवों के बीच लगभग एक की.मी. लंबा और लगभग 17-18 फुट चौड़ा, एक दर्रा (pass) मात्र है। जहां 18 जून 1576 में राणा प्रताप ने गोरिल्ला युद्ध लड़ते हुए अपने से चौगुनी अकबर की सेना को तीन की.मी. तक पीछे धकेल भागने को मजबूर कर दिया था। इस जगह की मिट्टी का रंग बिल्कुल हल्दी की तरह होने के कारण इसका नाम हल्दीघाटी पड़ा, पर उस दिन तो महाराणा ने खून का अर्ध्य दे कर इसे लाल कर दिया था ! उस निर्जन सी जगह में खड़े हो यदि आप पांच-छह सौ पहले की कल्पना करने की कोशिश भी करें तो रोमांच हावी हो जाएगा। श्रद्धा से उन राण बांकुरों के प्रति सर झुक जाएगा जिन्होंने विकट और कठिन परिस्थितियों के बावजूद अपनी मातृभूमि के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए थे। आज जरुरत है ऐसी व्यवस्था की जो आधुनिक पीढ़ी को उनके बारे में जानकारी दे सके ! 

शौर्य, साहस, निडरता, देशप्रेम की याद दिलाने वाली यह जगह हमारे गौरवशाली इतिहास की प्रतीक है ! पर यह अत्यंत खेद का विषय है कि हमारी तथाकथित आधुनिक शिक्षा प्रणाली में ऐसे विषयों की कोई अहमियत नहीं रह गयी है। जिसके फलस्वरूप आज के बच्चों को तो छोड़िए उनके अभिभावकों तक को पूरी और सही जानकारी नहीं है। आजकी शिक्षा-पद्दति सिर्फ और सिर्फ एक कागज का प्रमाण पत्र हासिल कर उसकी सहायता से किसी नौकरी को लपकने का जरिया मात्र रह गयी है। क्या कुछ ऐसा नहीं हो सकता कि स्कूलों में प्रथमिक शिक्षा के दौरान ज्यादा ना सही कम से कम हफ्ते या पंद्रह दिनों में एक बार अपने इतिहास, उसके महानायकों, उनकी उपलब्धियों, उनके योगदान की सच्चाई के बारे में, बिना किसी कुंठा और पूर्वाग्रह के, बताया जाए ! ठीक उसी तरह जैसे पिछले जमाने में दादी-नानी की किस्से-कहानियां बच्चों में नैतिकता, त्याग, प्रेम, संस्कार इत्यादि के साथ-साथ पौराणिक तथा ऐतिहासिक जानकारीयां भी रोपित कर देती थीं।   

अभी पिछले दिनों उदयपुर जाने का अवसर मिला तो हल्दीघाटी तो जाना ही था ! वहां पहुंचने के दौरान जब साथ के बच्चे से, जो दिल्ली के एक नामी ''क्रिश्चियन स्कूल'' की दसवीं कक्षा का छात्र है, वहां के बारे में पूछ तो उसने पूरी तरह अनभिज्ञता दर्शाई ! यहां तक की उसकी ''मम्मी'' को भी सिर्फ आधी-अधूरी जानकारी थी, जबकि वह खुद एक स्कुल में अध्यापक हैं। विडंबना यही है कि अपने बच्चों के भविष्य, उनके कैरियर की चिंता में आकंठ डूबे अभिभावकों को आजके समय की गला काट पर्टियोगिताओं के चलते इतना समय ही नहीं मिलता कि वे इस तरह की बातों पर ध्यान दें। इसकी जिम्मेवारी तो पाठ्यक्रम बनाने वालों पर होनी चाहिए ! शिक्षा पद्यति कुछ ऐसी हो जो सिर्फ जानकारियां ही न दे बच्चों के ज्ञान में भी बढ़ोत्तरी करे। 

इसी यात्रा के दौरान होटल में केंद्रीय मानव संसाधन एवं विकास मंत्री श्री प्रकाश जावड़ेकर जी से मुलाकात का संयोग बना था पर यह समय ऐसी गंभीर बातों के लिए उचित नहीं था। चुनावी समय के अलावा और कोई वक्त होता तो यह बात उनके कानों में जरूर डाल दी जा सकती थी। वैसे सूना जा रहा ही कि केंद्र सरकार नई शिक्षा नीति पर काम कर रही है। अब शिक्षा नीति पर गठित सलाहकार समिति क्या सलाह देती है यह देखने की बात होगी। 

6 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (23-04-2019) को "झरोखा" (चर्चा अंक-3314) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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पृथ्वी दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

शास्त्री जी, हार्दिक आभार

शिवम् मिश्रा ने कहा…

ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 22/04/2019 की बुलेटिन, " टूथ ब्रश की रिटायरमेंट - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

शिवम जी, आभार व स्नेहाशीष

Neetu Singhal ने कहा…

मुगलों, मुसलमानों की सत्ता भारत में आज भी यथावत है आज के अकबर संसद में बैठे हुवे हैं और राणा प्रताप को जनसामान्य में नक्कार खाने की तूती बना दिया गया है | सुचना के माध्यम जब तब उसे भरमाते हुवे कहते हैं मत दो ! तूती कहता है क्यों दूँ ? उत्तर मिलता इसलिए कि यह तुम्हारा अधिकार है इसलिए कि तुम्हें लोकतन्त्र सुदृढ़ करना है वह कहता है अकबरी सत्ता वाला लोकतंत्र ? उत्तर मिलता है यदि तुमने मत नहीं दिया तो ऐसे वैसे लोग संसद पहुँच जाएंगे | तूती कहता है जब मत दिया ही नहीं तब कोई कैसे संसद पहुँच सकता है ? उत्तर मिलता है जनादेश को धत्ता बताकर जैसे अपने वित्त मंत्री पहुंचे थे | अच्छा होगा कि तुम उसे मत देकर पहुंचाओ अन्यथा जिसे संसद पहुंचना है वो तो पहुंचेगा ही | तूती प्रश्न करता है क्या हम स्वाधीन हैं ? क्या देश स्वतंत्र है ? मुग़ल मुसलमान गए नहीं क्या ये लोकतंत्र है ? समय आ गया है अब हम किसी नए तंत्र का चिंतन करें जो दासोन्मुखी न हो जो पतनोन्मुखी राष्ट्र विरोधी न हो जो भारत की मौलिकता का संरक्षण कर उसकी सीमाओं का संवर्द्धन करे, जो बुराइयों व् समस्याओं से रहित हो, तब तक हम मत तो दें किन्तु स्वयं को.....|

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

जितना आप बता रही हैं, तुतियाँ उतनी भी नासमझ नहीं रह गयी हैं, अब नक्कारखाने भी उनकी आवाज को दबाने में विफल होते जा रहे हैं ! समय आ गया है कि तुतियों की बजाय पिच्छ्ल्गु, मौकापरस्त मानसिंह जैसे सत्ता स्तुतिकार वाद्यों पर रोक लगाई जाए

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