जिस तरह छोटे-छोटे चुनावों का खर्च आसमान छूने लग गया है, लगता है भविष्य में स्कूल में क्लास का मॉनिटर बनना भी किसी आम परिवार के छात्र के लिए नामुमकिन हो जाएगा।
होना तो यह चाहिए था कि जनता जनार्दन जितनी जागरूक यानी समझदार होगी उतना ही चुनाव खर्च कम होगा पर हो उल्टा ही रहा है। अभी 36 गढ़ के नगर निगमों के चुनाव को देख लग रहा था जैसे शहर चलाने के लिए नहीं राज्य चलाने के लिए चुनाव हो रहे हों ! बीसियों दिन पहले से घेरा बंदी, मोर्चा बंदी, व्यूह रचना ऐसे शुरू हो गयी थी जैसे नगर निगम के पार्षद का नहीं विधान सभा के सदस्य का चुनाव होना हो। कद्दावर नेताओं की प्रतिष्ठा का भी यह प्रतीक बन गया था। जैसे-जैसे चुनाव के दिन के सूर्य के उदय का समय नजदीक आता गया वैसे-वैसे गहमा-गहमी बढ़ती चली गयी। झंडे, बैनर, पोस्टर, पैंफ्लेट जैसी पुरातन प्रचार सामग्री तो थी ही इनके साथ-साथ नचैये-गवैयों को भी तरह-तरह के लोकप्रिय गानों की धुन पर फिट किए गए सामायिक शब्दों वाले गानों पर आलाप भरते-ठुमकते देखा जा सकता था। उनकी कला का फ़ायदा उठाने की भी पुरजोर कोशिश की जा रही थी।
पहले ऐसा होता था कि भीड़ इकट्ठा करने वाले को जमा हुए लोगों के हिसाब से उनके खाने-पीने के पैसे
पकड़ा दिए जाते थे या सारा सामान बाहर से मंगवाया जाता था। पर इस बार नई रणनीति के तहत ज्यादातर प्रत्याशियों ने अपने कार्यालय में ही भंडारा खोल दिया था, जहां सुबह के चाय-नाश्ते के साथ-साथ रात के डिनर तक की व्यवस्था कर दी गयी थी। वह भी कार्यकर्ताओं की पसंद-नापसंद पूछ-जान कर, जिसमें वेज और नॉनवेज उपलब्ध करवाए गए थे। यह सब ताम-झाम इसलिए कि कार्यकर्ता सदा उम्मीदवार के साथ और पास बना रहे, न खिसक जाए। उनकी रूटीन भी बना-समझा दी गयी थी। सबेरे आते ही चाय-नाश्ता कर रैली में निकालो, घूम-फिर कर दोपहर को लौट खाना खाओ। कुछ देर आराम कर फिर अपने गले और शरीर के करतब दोहराओ, फिर वापस आ चाय लेकर निकलो और फिर आ कर रात का भोजन पाओ।
पर जाहिर है कि आजकल कोई भी सिर्फ खाने के लिए किसी से बंधा नहीं रहता। इसलिए हरेक के लिए उसके काम के अनुसार मेहनताना भी निश्चित कर दिया गया था। हालांकि यह गोपनीय होता है पर स्थानीय अख़बारों की मानें तो अलग-अलग कामों के लिए यह 100 रुपये से शुरू हो 1000 रुपये तक एक-एक सिर का रोज का भुगतान था। अब हर पार्टी की "मीटरों लम्बी, चुनावी हथियारों से सजी" रैली के ऊपर रोज कितना खर्च आता होगा इसका अंदाज लगाना बहुत मुश्किल भी नहीं है। जो पिछले चुनावों से और नहीं तो दोगुना तो हो ही चुका है। किसी भी चीज को नष्ट या बर्बाद कर उसे दोबारा पाना बहुत मुश्किल या ना के बराबर ही होता है। पर शायद पैसा ही ऐसी चीज है जिसकी बढ़ोत्तरी के लिए उसे बेरहमी से खर्च (नष्ट या बर्बाद) किया जाता है।
जिस तरह छोटे-छोटे चुनावों का खर्च आसमान छूने लग गया है, लगता है भविष्य में स्कूल में क्लास का मॉनिटर बनना भी किसी आम परिवार के छात्र के लिए नामुमकिन हो जाएगा।
होना तो यह चाहिए था कि जनता जनार्दन जितनी जागरूक यानी समझदार होगी उतना ही चुनाव खर्च कम होगा पर हो उल्टा ही रहा है। अभी 36 गढ़ के नगर निगमों के चुनाव को देख लग रहा था जैसे शहर चलाने के लिए नहीं राज्य चलाने के लिए चुनाव हो रहे हों ! बीसियों दिन पहले से घेरा बंदी, मोर्चा बंदी, व्यूह रचना ऐसे शुरू हो गयी थी जैसे नगर निगम के पार्षद का नहीं विधान सभा के सदस्य का चुनाव होना हो। कद्दावर नेताओं की प्रतिष्ठा का भी यह प्रतीक बन गया था। जैसे-जैसे चुनाव के दिन के सूर्य के उदय का समय नजदीक आता गया वैसे-वैसे गहमा-गहमी बढ़ती चली गयी। झंडे, बैनर, पोस्टर, पैंफ्लेट जैसी पुरातन प्रचार सामग्री तो थी ही इनके साथ-साथ नचैये-गवैयों को भी तरह-तरह के लोकप्रिय गानों की धुन पर फिट किए गए सामायिक शब्दों वाले गानों पर आलाप भरते-ठुमकते देखा जा सकता था। उनकी कला का फ़ायदा उठाने की भी पुरजोर कोशिश की जा रही थी।
पहले ऐसा होता था कि भीड़ इकट्ठा करने वाले को जमा हुए लोगों के हिसाब से उनके खाने-पीने के पैसे
पकड़ा दिए जाते थे या सारा सामान बाहर से मंगवाया जाता था। पर इस बार नई रणनीति के तहत ज्यादातर प्रत्याशियों ने अपने कार्यालय में ही भंडारा खोल दिया था, जहां सुबह के चाय-नाश्ते के साथ-साथ रात के डिनर तक की व्यवस्था कर दी गयी थी। वह भी कार्यकर्ताओं की पसंद-नापसंद पूछ-जान कर, जिसमें वेज और नॉनवेज उपलब्ध करवाए गए थे। यह सब ताम-झाम इसलिए कि कार्यकर्ता सदा उम्मीदवार के साथ और पास बना रहे, न खिसक जाए। उनकी रूटीन भी बना-समझा दी गयी थी। सबेरे आते ही चाय-नाश्ता कर रैली में निकालो, घूम-फिर कर दोपहर को लौट खाना खाओ। कुछ देर आराम कर फिर अपने गले और शरीर के करतब दोहराओ, फिर वापस आ चाय लेकर निकलो और फिर आ कर रात का भोजन पाओ।
पर जाहिर है कि आजकल कोई भी सिर्फ खाने के लिए किसी से बंधा नहीं रहता। इसलिए हरेक के लिए उसके काम के अनुसार मेहनताना भी निश्चित कर दिया गया था। हालांकि यह गोपनीय होता है पर स्थानीय अख़बारों की मानें तो अलग-अलग कामों के लिए यह 100 रुपये से शुरू हो 1000 रुपये तक एक-एक सिर का रोज का भुगतान था। अब हर पार्टी की "मीटरों लम्बी, चुनावी हथियारों से सजी" रैली के ऊपर रोज कितना खर्च आता होगा इसका अंदाज लगाना बहुत मुश्किल भी नहीं है। जो पिछले चुनावों से और नहीं तो दोगुना तो हो ही चुका है। किसी भी चीज को नष्ट या बर्बाद कर उसे दोबारा पाना बहुत मुश्किल या ना के बराबर ही होता है। पर शायद पैसा ही ऐसी चीज है जिसकी बढ़ोत्तरी के लिए उसे बेरहमी से खर्च (नष्ट या बर्बाद) किया जाता है।
जिस तरह छोटे-छोटे चुनावों का खर्च आसमान छूने लग गया है, लगता है भविष्य में स्कूल में क्लास का मॉनिटर बनना भी किसी आम परिवार के छात्र के लिए नामुमकिन हो जाएगा।