कभी-कभी एक जैसे नाम से गलतफहमी हो जाती है। जैसे किसी अनजान से इंसान के नाम पर किसी जगह की पहचान बनी हो तो सच्चाई न जानने वालों को लगता है कि उस जगह का नाम कथा-कहानियों में प्रचलित ज्यादा मशहूर इंसान के नाम पर ही रखा गया होगा। खोज-खबर न होने पर यह धारणा मजबूत भी होती चली जाती है।
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1783 में सिख सेना नायक बघेल सिंह ने जब दिल्ली फतह कर उसे कुछ दिन अपने कब्जे में रखा, उसी दौरान उन्होंने यहां एक गुरूद्वारे का निर्माण करवाया जो मजनू का टीला गुरुद्वारा कहलाया । जिसे महाराजा रंजीत सिंह ने बाद में विस्तार दिया। यहीं छठे गुरु हरगोविन्द सिंह जी ने भी आकर निवास किया था। आज यह दिल्ली के पुराने सिख धर्मस्थलों में से एक है।
सबसे पहले सन 1900 में अंग्रेजों द्वारा दिल्ली के निर्माण में जुटे मजदूरों यहां ला कर बसाया गया। फिर
आजादी मिलने के बाद अरुणा नगर के नाम से रिहायशी इलाका आबाद हुआ। धीर्रे-धीरे जगह-जगह से लोग यहां आकर बसते गए। फिर 1960 में भारत सरकार ने न्यू अरुणा नगर बस्ती बसा वहाँ तिब्बती शरणार्थियों को पनाह दी। धीरे-धीरे उनकी आबादी बढ़ती गयी और आज यह जगह छोटे तिब्बत के रूप में अपनी पहचान बना चुकी है। यहां का तिब्बती बाजार सदा ग्राहकों से भरा रहता है जो अपनी पसंद के शाल, जूते, घर सजाने का सामान, तिब्बती कलाकृतियां ढूंढते-ढूंढते यहां आ पहुंचते हैं। यहां एक बौद्ध मठ तथा मंदिर भी है। इसके अलावा खाने-पीने की अनेक दुकाने खुल चुकी हैं, जहां नार्थ कैम्पस के विद्यार्थी और यहां आने वाले ग्राहक उचित मूल्य पर अपनी भूख शांत कर सकते हैं।
3 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (22-12-2014) को "कौन सी दस्तक" (चर्चा-1835) पर भी होगी।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
shaastri ji, aabhar.
मजनू के टीले के बारे में बढिया जानकारी छित्र के साथ। आपका आभार।
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