अंग्रेजों ने अपने शासन काल में मनमानी लूट-खसोट की। हमारी बहुमूल्य धरोहरों को अपने देश भेज दिया। हजारों छोटे-मोटे गोरों ने अपने घरों को सजा, सवांर, समृद्ध बना लिया, हमारे बल-बूते पर। पर उनमें कुछ ऐसे लोग भी थे, जिन्होंने अपनी कर्तव्य परायणता के आड़े किसी भी चीज को नहीं आने दिया। ऐसा ही एक नाम है लार्ड कर्जन का। अगर वे नहीं होते तो शायद हमारे गौरवशाली अतीत का बखान करने वाले कयी स्मारक भी शायद न होते। बात कुछ अजीब सी है पर सही है।
समय था 1831 का, दिल्ली और आगरा पर ब्रिटिश फौज ने कब्जा जमा लिया था और शासन था, लार्ड विलियम बैंटिक का। इन शहरों की खूबसूरत इमारतें बैंटिक की आंख की किरकिरी बनी हुई थीं। खासकर ताजमहल। एक योजना के अंतर्गत यह तय किया गया कि दिल्ली के लाल किले और आगरे के ताजमहल को या तो गिरा दिया जाए या बेच दिया जाए। इस आशय की एक खबर बंगाल के एक अखबार 'जान बुल' में 26 जुलाई 1831 के अंक में छपी भी थी। इसमें बताया गया था कि ताज को सरकार की बेचने की मंशा है पर यदि सही कीमत नहीं मिलती तो इसे गिराया भी जा सकता है। इसके पहले आगरा के लाल किले में स्थित संगमरमर के बने नहाने के हौदों को बैंटिक ने निलाम करवाया था, पर उनको तोड़ने में जो खर्च आया था वह उसके मलबे से प्राप्त रकम से काफी ज्यादा था। यह भी एक कारण था ताज के टूटने में होने वाले विलंब का और शासन की झिझक का। इधर अवाम को भी इस सब की खबर लग चुकी थी जिसमें अंग्रेजों की इस तोड़-फोड़ की नीतियों से आक्रोश उभर रहा था। बैंटिक के अधिकारों पर भी सवाल उठने लग गये थे। ब्रिटिश हुकुमत भी सिर्फ ताज के संगमरमर के कारण उसे गिराने के कारण फैलने वाले असंतोष को लेकर सशंकित थी। इसलिए इस घाटे के सौदे से उसने अपना ध्यान धीरे-धीरे हटा लिया। और फिर लार्ड कर्जन के आने के बाद तो सारा परिदृश्य ही बदल गया। कर्जन एक कर्तव्यनिष्ठ शासक था। जनता के मनोभावों को समझते हुए उसने यहां की सभी गौरवशाली इमारतों के संरक्षण तथा रखरखाव का वादा किया और निभाया। उसके शासन काल में इन प्राचीन इमारतों तथा स्मारकों को संरक्षण तो मिला ही उनका उचित रख-रखाव और देख-रेख भी की जाती रही।
इन सब बातों का खुलासा 7 फरवरी 1900 को एशियाटिक सोसायटी आफ बेंगाल की सभा में खुद लार्ड कर्जन ने किया था।
इस ब्लॉग में एक छोटी सी कोशिश की गई है कि अपने संस्मरणों के साथ-साथ समाज में चली आ रही मान्यताओं, कथा-कहानियों को, बगैर किसी पूर्वाग्रह के, एक अलग नजरिए से देखने, समझने और सामने लाने की ! इसके साथ ही यह कोशिश भी रहेगी कि कुछ अलग सी, रोचक, अविदित सी जानकारी मिलते ही उसे साझा कर ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जा सके ! अब इसमें इसको सफलता मिले, ना मिले, प्रयास तो सदा जारी रहेगा !
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15 टिप्पणियां:
oh my god! really?
stabhd karne waali baat thi ye to..
arsh
हज़ारो मंदिरो को भी तो भूल गये ना उनमे एक ओर जुड़ जाता ओर क्या होने वाला था. सही इतिहास कहाँ पढ़ने को मिलता है और अगर मिलता भी है तो वो हमारे गले नही उतरता ,शायद बहूत से लोग तो तेज्यो महल का अशलि नाम भी नही जानते, यहाँ कुछ लिखा है चाहे तो पढ़ सकते हैं ..http://www.stephen-knapp.com/was_the_taj_mahal_a_vedic_temple.htm
अरे भई इसमें स्तब्ध होने की क्या बात है? अंगरेजों की छोड़िये, हमने भी अपने ऐतिहासिक स्मारक गिराये हैं। एक मस्जिद हुआ करती थी कहीं, करीब ४०० साल पुरानी, थोड़ा दिमाग पर ज़ोर डालिये।
किसी ने शोध किया था, और ताजमहल को शिव मंदिर बताया था। बस जैसे रामभक्तों ने मस्जिद गिरायी थी, वैसे ही कुछ सालों बाद शिवभक्त ताजमहल को गिराने पहुँचते ही होंगे। क्या कर लीजियेगा?
इमारतें तो छोड़िये हमने तो जिंदा पशु-पक्षी भी नहीं छोड़े - बाघ और हाथियों की संख्या दिन-ब-दिन कैसे कम हो रही है।
इमारत का गौरव इसलिये नहीं है कि वह भारत में है। इमारत का गौरव इसलिये है क्योंकि उसमें हमारे इष्टदेव को पूजा जाता है। अब बताइये।
सारा दोष अंगरेजों पर मढ़ने से पहले अपने गिरेबाँ में झाँक कर एक पल देख लेंगे तो सारी असलियत खुद ही सामने आ जायेगी।
बहुत ही अच्छी जानकारी. आभार.
are bhai stabdh@
ap jaiso ko koi phrk nahi padta. kisi imarat me dewta ki murti hone se hi wah smarak nahi ho jata. jiski bat kar rahe hai wah bhi madir thi jise tod kar wah rup diya gaya tha. apke khyal se jo khtm ho gaye usake liye bache huo ko bhi khtm karane me koi burai nahi hai. dhny hai videshi ann kha kar bani soch ki.
अनिल जी तथा "अनाम भाई" मैंने एक जानकारी सामने रखी थी। आप लोग आपस में ही उलझ गये। ब्लाग में सारे अंग्रेजों पर दोषारोपण भी तो नहीं है। कर्जन के काम की सराहना भी तो हुई है।
अनाम भाई आप अपना परिचय देते तो खुशी होती। मन में किसी के प्रति कटुता ना रखें, यही कामना है।
गगन शर्मा जी, मेरी टिप्पणी ऊपर की कुछ टिप्पणियों पर केंद्रित थी, न कि आपके आलेख पर। आपका आलेख इतिहास के बारे में है जिसके बारे में मेरा ज्ञान पहले से ही शून्यप्राय है।
इस बात से सहमत कि यदि अनाम जी नाम जाहिर कर देते तो उनकी बार में "दम" होता।
इससे पहले कि यहाँ लड़ाई छिड़े, मैं गायब। जो लड़ना चाहते हैं, मेरे ब्लाग पर आकर लड़ें, ताकि गगन जी का चिट्ठा साफ-सुथरा रहे।
पढ़ के अंग्रेजों की लाभ की मानसिकता का पता चला. शुक्र है ऐसी कई इमारतें तोड़ना घाटे का सौदा था
इमारत का गौरव इसलिये नहीं है कि वह भारत में है। इमारत का गौरव इसलिये है क्योंकि उसमें हमारे इष्टदेव को पूजा जाता है। मैं अनिल जी की इस बात से सहमत हूँ....लेकिन आपने एक जरूरी और काम की जान कारी दी है ..धन्यवाद
विधु जी,
स्मारक के अंतर्गत सिर्फ मंदिर ही तो नहीं आते। इमारतों को उनका एतिहास, कलात्मकता तथा उनकी प्राचीनता भी गौरवशाली बनाने में अपनी भूमिका निभाते हैं।
अलग सी जानकारी मिली आज ..धन्यवाद
v.good.s.sharma ji.
shri s.sharma ji. very very good.vishnu patel raipur c.g.
बेनाम भाई, पता नहीं आपकी क्या मजबूरी है जो आप इस तरह पेश आते हैं। गुप्त-दान तो सुना था यह गुप्त-प्रेक्षण भी खूब है। फिर भी आपका स्वागत है।
वैसे मेरे नाम में जल्दबाजी में जी की जगह एस लिख दिया गया है। खैर।
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