यदि निष्पक्षता से देखा जाय, पुस्तकों में वर्णित सिर्फ उनकी अच्छाईयों को ही ना देखा जाए तो उत्तर 'हां' में आता है। शुरु करते हैं द्रोपदी स्वयंवर से। अर्जुन ने अपने कौशल से द्रोपदी को वरा था। पर जब पांडव उसे लेकर कुंती के पास आए तो युधिष्ठिर, जिन्हें धर्म का अवतार कहा जाता है, जिनके बारे में प्रचलित है कि वह कभी झूठ नहीं बोलते थे, तो उन्होंने भले ही मां को चकित करने के लिए ही कहा हो, पर यह क्यों कहा कि हम भिक्षा लाए हैं। जिसे सुन कुंती ने बिना देखे ही अंदर से कह दिया कि आपस में बांट लो। पर जब कुंती को अपनी गलती का एहसास हुआ तो उसने कहा कि यह तो राजकन्या है और राजकन्याएं बंटा नहीं करतीं। यह सुन कर युधिष्ठिर ने मां की बात काटी कि हे माते तुम्हारे कहे वचन झूठ नहीं हो सकते तुम्हारी आज्ञा हमारा धर्म है। कोई ना कोई रास्ता निकालना पड़ेगा। बाकि भाई भी चुप रहे। क्या द्रोपदी के अप्रतिम सौंदर्य से सारे भाईयों के मन विचलित हो दुर्बल नहीं हो गये थे? क्या सभी भाई उसे पाना नहीं चाहते थे? जो अवसर अर्जुन ने उन्हें अनायास उपलब्ध करवा दिया था, उसे खोना क्या उनके लिए संभव था? जबकि मां की दूसरी बात भी उनके लिए उतनी ही महत्वपूर्ण होनी चाहिए थी। उस समय किसी ने द्रोपदी के मन की हालत क्यूं नहीं जाननी चाही, जब कि स्वयंवर कन्या कि इच्छा पर आधारित होता था। उससे किसी ने पूछा, कि अपने से छोटे देवरों को वह कैसे पति मानेगी? परिवार की रक्षा करने वाले भीम को अपना भक्षक कैसे बनने देगी? उसकी देह को तो यंत्र बना दिया गया पर उसका मन ?
ठीक है सबने माँ की आज्ञा शिरोधार्य की पर इतनी नैतिकता तो होनी ही चाहिये थी कि उसे सिर्फ कहने भर को पत्नि मानते। मां ने यह तो नहीं कहा था कि उससे संतान प्राप्त करो। पर द्रोपदी से हरेक भाई ने पुत्र प्राप्त किया। जबकि ग्रन्थों में छोटे भाई की पत्नि को बेटी तथा बड़े भाई की पत्नि को मां का स्थान प्राप्त है। जाहिर है कि द्रोपदी के अप्सरा जैसे सौंदर्य ने पांडवों की नैतिकता को भुला दिया था। अब इस बंटवारे की गुत्थी को सुलझाने के लिए नारद मुनि की सहायता ली गयी। उनके कथनानुसार द्रोपदी का एक-एक भाई के पास एक साल तक रहना निश्चित किया गया जैसे वह इंसान ना हो कोई जींस हो। उस दौरान यदि कोई और भाई उसके कक्ष में आ जाता है तो उसे बारह वर्षों तक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए वनगमन करना होगा। इस नियम का परिस्थितिवश शिकार बना अर्जुन। पर अपने वनवास के दौरान इस नियम का पालन नहीं कर सका।
तीर्थाटन के दौरान हरिद्वार में नाग कन्या ऊलूपी उस पर आसक्त हो गयी, अर्जुन ने अपने नियम की मजबूरी बताई पर ऊलूपी के तर्कों से पराजित हो उसने उससे विवाह कर लिया। दो वर्षों तक नागलोक में रह कर पतित्व का निर्वाह करते हुए उसने ऊलूपी को मातृत्व का सुख प्रदान किया। उसके पश्चात घूमते-घूमते वह मणीपुर पहुंचा। वहां के राजा चित्रवाहन की कन्या, चित्रांगदा, गुणी और अनुपम सौंदर्य की स्वामिनी थी। उसे देख अर्जुन का मन बेकाबू हो गया। उसने अपना परिचय दे चित्रवाहन से उसकी कन्या का हाथ मांगा। राजा ने उसकी बात मान ली पर एक शर्त रखी कि उनसे होने वाले पुत्र को उसे गोद दे दिया जाएगा। अर्जुन को इसमें क्या आपत्ति हो सकती थी। उसने शर्त स्वीकार कर चित्रांगदा से विवाह कर लिया। यहां वह तीन साल तक रहा। फिर उसे नियम की याद आई और उसने मणीपुर छोड़ आगे की यात्रा शुरु की। चलते-चलते वह अपने सखा के यहां द्वारका जा पहुंचा। और इस बार उसकी दृष्टि का शिकार बनी अपने ही सखा की बहन सुभद्रा। पर यहां एक समस्या भी थी। श्री कृष्ण के बड़े भाई बलराम, सुभद्रा का विवाह दुर्योधन से करना चाहते थे, जो राजनीतिक रूप से भी पांडवों के अनुकूल नहीं था। कृष्ण पांडवों के हितैषी थे उन्हीं की सलाह पर अर्जुन ने सुभद्रा का अपहरण कर लिया।
इस तरह क्षत्रिय धर्म का पालन करते हुए अर्जुन ने वनगमन जरूर किया था, पर शर्तों के अनुसार ना वह ब्रह्मचर्य का पालन कर सका ना एक पत्निनिष्ठ रह सका। स्त्री-दुर्बलता के कारण उसन विवाहेतर संबंध बनाए। उसकी कमजोरी को ढकने के लिये कहा जा सकता है कि समय के साथ वह संबंध राजनीतिक शक्ति ही साबित हुए पर जिसको भगवान का वरदहस्त प्राप्त था, साक्षात प्रभू जिसके हितैषी थे, उसको ऐसे संबंधों की क्या जरूरत थी ?
इस ब्लॉग में एक छोटी सी कोशिश की गई है कि अपने संस्मरणों के साथ-साथ समाज में चली आ रही मान्यताओं, कथा-कहानियों को, बगैर किसी पूर्वाग्रह के, एक अलग नजरिए से देखने, समझने और सामने लाने की ! इसके साथ ही यह कोशिश भी रहेगी कि कुछ अलग सी, रोचक, अविदित सी जानकारी मिलते ही उसे साझा कर ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जा सके ! अब इसमें इसको सफलता मिले, ना मिले, प्रयास तो सदा जारी रहेगा !
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13 टिप्पणियां:
इस कथा के विभिन्न पहलू हैं। खैर... कथा के रूप में भी देखें, तो यह उस समय की बात है जब पॉलिगेमी और पॉलियांड्री का ज़माना था, जब बहु-पति-पत्नियां रखना कोई सामाजिक अपराध नहीं समझा जाता था। इसीलिए उन महाकाव्यों [रामायण-महाभारत] में कई पत्नियों का सामाजिक चलन देखने को मिलता है!!
आप नैतिकता की बात करतें हैं, अरे यदि कुंती न कहतीं कि पाँचों भाई आपस में बाँट लो तो जो लड़ाई कौरव और पांडव के बीच हुई वह पहले पांडू पुत्रों के बीच होती | वरना कुंती बात को समझाने पर यह कह सकती थीं कि वह तो भिक्षा बांटने के लिए कहीं थीं न कि औरत, लेकिन घर के फ़ुट बचाने के लिए ही उन्होंने ऐसा किया
इसमे मैं cmpershad जी से सहमत हूं, वैसे मैने कहीं पढा है कि हिमाचल की कुछ जनजातियों मे अब भी बहुपति प्रथा मौजूद है.
रामराम.
मुझे आपका ब्लोग बहुत अच्छा लगा ! आप बहुत ही सुन्दर लिखते है ! मेरे ब्लोग मे आपका स्वागत है !
हम मानव परिवार के विकास का अध्ययन करेंगे तो पाएंगे कि एकल परिवार बहुत बाद में विकसित हो पाया है। इस बीच अनेक प्रकार के परिवार पाए गए हैं। कभी सब भाइयों की एक पत्नी होना पूरे समाज का नियम रहा है। भारत के कुछ भागों में अब भी प्रचलित है।
पांचों पांडवों संग द्रोपदी विवाह के संदर्भ में एक अन्य कथा भी जुडी हुई है जिसमे द्रोपदी अपने पूर्वजन्म में शिव तपस्या के फलस्वरूप भगवान भोलेनाथ से पांच महापराक्रमी पतियों की प्राप्ति का वरदान प्राप्त करती है.
किन्तु पांडवों को स्त्री दुर्बलता का शिकार कहना गलत होगा क्यों कि बहुपत्नि का चलन तो हमारे प्राचीन समाज में रहा ही है.
बहुपत्नि प्रथा अपनी जगह थी। उसमें अलग-अलग कारणों से ऐसे विवाह किए कराये जाते थे। पर कहीं भी इसका उदाहरण नहीं मिलता कि अपने ही भाई की विवाहिता पर और भाईयों ने हक जमाया हो।
क्योंकि समाज और दुनिया के सामने उनके हर कृत्य को जायज ठहराना था, तो तरह-तरह के उदाहरण और मजबूरियों को सामने ला रखा गया।
waise dekhaa jay to saree kathaa me adharm ka bol-bala raha hai. bhagwan ka nam juda hone ke karan vivadon ke bhay se koi khul ke nahi bolata. par poori ladai me dharm kahi dikhta bhi to nahi.
आपकी दृष्टि उपयुक्त लगती है। पहले एक महाराष्ट्रीयन लेखक हुए हैं मुझे उनका नाम याद नहीं। उन्होंने भारतीय विवाह संस्था का इतिहास नामक पुस्तक लिखी थी। उस किताब को बैन कर दिया गया था। उसमें रामायण और महाभारत के पात्रों का विवाह और विवाहेत्तर संबंधों का विश्लेषण दिया गया है।
मेरा मानना है कि गीता के चारों और महाभारत लिखी गई है जो उस काल की राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक स्थिति के बारे में भी संकते देती है। महाभारत के जिस कोण पर गीता स्थित है उसके अलावा कहीं भी गीता का अर्थ लगाना मुश्किल हो जाता है। इसलिए मैं ऐसा मानता हूं।
बाकी हर एक का अपना दृष्टिकोण है। वैसे महाभारत में एकमात्र कृष्ण ही ऐसे हैं जिनके गुणों का अनुसरण योग्य वर्णन किया गया है। शेष पात्र को सामान्य पुरुष और मानवीय दुर्बलताएं लिए हुए थे।
आपका विश्लेषण प्रभावित करता है।
हाँ जी, पूरा महाभारत ही इस तरह की कथाओं से भरा पड़ा है. भीष्म के पिताजी शांतनु भी तो ऐसे ही थे जिन्होंने एक मछुआरे की कन्या से विवाह किया और फिर वहीँ आगे चलकर महाभारत का परोक्ष कारण बनी.
तर्क अकाट्य हैं । किंतु महाभारत मन का मानवीयकरण कर रची गई कथा है । मन मेन कितना धर्म होता है कितना अधर्म ,यह ध्यान आता जाएगा ,समाधान होता जाएगा ।
किंतु ऐसी मौलिक सोच के लिए आपकी मेधा का अभिनन्दन
अलग सा, बिल्कुल अलग सा। रामायण काल में भी तो सुग्रीव और बालि का उदाहरण मिलता ही है। पर वहीं एक बात और द्रौपदी ने अपने पिछले जनम में एक आदमी के अंदर पांच गुण का वर मांगा था जिसे की वो अपना पति मान सके। एक आदमी के अंदर वो पांच गुण नहीं हो सकते थे। तभी ये तो होना ही था कि अनुसार नारद जी कि पांच पतियों की पत्नी तो उन्हें बनना ही था। जहांतक रही अर्जुन की बात तो जिसके साथ स्वयं प्रभु हों उसे किस बात का डर। लेकिन प्रभु के पास होने पर भी गीता सार के बाद ही अर्जुन समझ पाया कि वो भगवान के इतने करीब है।
ha pandav durbalta ke shikar the
rjaesh singh 101
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