मेरे चेहरे पर प्रश्न सूचक जिज्ञासा देख उसने कहा, अंदर आने को नहीं कहिएगा ?
उनींदी सी हालत, अजनबी व्यक्ति, सुनसान माहौल !! पर आगंतुक के व्यक्तित्व में कुछ ऐसा आकर्षण था कि ऊहापोह की स्थिति में भी मैंने एक तरफ हट कर उसके अंदर आने की जगह बना दी। बैठक में बैठने के उपरांत मैंने पूछा, आपका परिचय नहीं जान पाया हूँ ? वह मुस्कुराया और बोला, मैं बसंत !
बसंत ! कौन बसंत ? मुझे इस नाम का कोई परिचित याद नहीं आ रहा था ! मैंने कहा, माफ़ कीजिएगा, मैं अभी भी आपको पहचान नहीं पाया हूँ
#हिन्दी_ब्लागिंग
बसंत फिर आया तो है ! पर यह कैसा हो गया है, सुस्त, मलिन सा ! जर्जर सी काया ! कांतिहीन चेहरा ! मुखमण्डल पर विषाद की छाया ! पहले कैसे इसके आगमन की सूचना भर से प्रेम-प्यार, हास-परिहास, मौज-मस्ती, व्यंग्य-विनोद का वातावरण बन जाता था ! सरदी से ठिठुरी जिंदगी एक मादक अंगड़ाई ले आलस्य त्याग जागने लगती थी ! जीवन में मस्ती का रंग घुलने लगता था ! वृक्ष, पेड़-पौधे सब नए पत्तों के स्वागत की तैयारियां करने लगते थे ! सारी प्रकृति ही मस्ती में डूब प्रफुल्लित हो जाती थी। पर इस बार तो जैसे मायूसी ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही ! जीव-जंतु-पादप सभी जैसे किसी अज्ञात संकट से डरे, सहमे सदमाग्रस्त हुए से लग रहे हैं ! उन्हें डर है कि जैसे बसंत धीरे-धीरे क्षीण होता जा रहा है वैसे ही बाकी मौसम भी मुंह फेर गए तो क्या होगा, इस शस्य-श्यामला का ? ऐसा क्यों !
तभी पिछले वर्ष की वह भोर फिर मेरे मष्तिष्क में कौंध जाती है ! साल गुजर गया इस बात को ! पर अभी भी जब उस पल की याद आती है तो सिहरन तो होती ही है साथ ही विश्वास भी नहीं होता कि उस दिन सचमुच कुछ वैसा भी हुआ था ! आज भी मुझे उस साल भर पहले की सुबह का एक-एक लम्हा अच्छी तरह याद है। जब पौ फटी नहीं थी और मुझे दरवाजे पर कुछ आहट सी सुनाई दी थी। उस दिन रात देर से सोने के कारण अर्द्ध-सुप्तावस्था सी हालत हो रही थी। इसीलिए सच और भ्रम का पता ही नहीं चल पा रहा था। पर कुछ देर बाद फिर लगा बाहर कोई है। इस बार उठ कर द्वार खोला तो एक गौर-वर्ण अजनबी व्यक्ति को खड़े पाया। आजकल के परिवेश से पहनावा कुछ अलग था। धानी धोती पर पीत अंगवस्त्र, कंधे तक झूलते गहरे काले बाल, कानों में कुण्डल, गले में तुलसी की माला, सौम्य-तेजस्वी चेहरा, होठों पर मोह लेने वाली मुस्कान। इसके साथ ही जो एक चीज महसूस हुई वह थी एक बेहद हल्की सुवास !उसने एक गहरी सांस ली और कहने लगा, पर अब धीरे-धीरे सब कुछ जैसे बदलता जा रहा है। मनुष्य की लापरवाही, लालच और लालसा की वजह से सारी ऋतुएँ अपनी विशेषताएं तथा तारतम्य खोती जा रही हैं। मैं कब आता हूँ कब चला जाता हूँ किसी को पता ही नहीं चलता
मेरे चेहरे पर प्रश्न सूचक जिज्ञासा देख उसने कहा, अंदर आने को नहीं कहिएगा ?
उनींदी सी हालत, अजनबी व्यक्ति, सुनसान माहौल !! पर आगंतुक के व्यक्तित्व में कुछ ऐसा आकर्षण था कि ऊहापोह की स्थिति में भी मैंने एक तरफ हट कर उसके अंदर आने की जगह बना दी। बैठक में बैठने के उपरांत मैंने पूछा, आपका परिचय नहीं जान पाया हूँ ? वह मुस्कुराया और बोला, मैं बसंत !
बसंत ! कौन बसंत ? मुझे इस नाम का कोई परिचित याद नहीं आ रहा था ! मैंने कहा, माफ़ कीजिएगा, मैं अभी भी आपको पहचान नहीं पाया हूँ !
अरे भाई, वही बसंत, जिसके आगमन की ख़ुशी में आप सब पंचमी मनाते हैं !
मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था ! क्या कह रहा है सामने बैठा इंसान !! यह कैसे हो सकता है ?
घबराहट साफ़ मेरे चेहरे पर झलक आई होगी, जिसे देख वह बोला, घबड़ाइये नहीं, मैं जो कह रहा हूँ वह पूर्णतया सत्य है।
मेरे मुंह में तो जैसे जबान ही नहीं थी। लौकिक-परालौकिक, अला-बला जैसी चीजों पर मेरा विश्वास नहीं था। पर जो सामने था उसे नकार भी नहीं पा रहा था। सच तो यह था कि मेरी रीढ़ में डर की एक सर्द लहर सी सी उठने लगी थी। आश्चर्य यह भी था कि ज़रा सी आहट पर उठ बैठने वाली श्रीमती जी को भी कोई आभास नहीं हुआ था, मेरे उठ कर बाहर आने का। परिस्थिति से उबरने के लिए मैंने आगंतुक को कहा, ठंड है, मैं आपके लिए चाय का इंतजाम करता हूँ, सोचा था इसी बहाने श्रीमती जी को उठाऊंगा, एक से भले दो। पर अगले ने साफ़ मना कर दिया कि मैं कोई भी पदार्थ ग्रहण नहीं करूंगा। आप बैठिए। मेरे पास कोई चारा नहीं था। फिर भी कुछ सामान्य सा दिखने की कोशिश करते हुए मैंने पूछा, कैसे आना हुआ ?
बसंत के चेहरे पर स्मित हास्य था, बोला मैं तो हर साल आता हूँ। आदिकाल से ही जब-जब शीत ऋतु के मंद पडने और ग्रीष्म के आने की आहट होती है, मैं पहुँचता रहा हूँ। अपने आने का सदा प्रमाण देता रहा हूँ । आपने भी जरूर महसूस किया ही होगा, उस समय प्रकृति के सुंदर, अद्भुत बदलाव को ! सृजन ही मेरा कर्म है ! धरा को जीवंत रखना मेरा फर्ज ! जीव-जंतुओं, लता-गुल्म की सुरक्षा मेरा उद्देश्य !
इतना कह वह चुप हो गया। जैसे कुछ कहना चाह कर भी कह ना पा रहा हो। मैं भी चुपचाप उसका मुंह देख रहा था। उसके मेरे पास आने की वजह अभी भी अज्ञात थी। वह मेरी ओर देख रहा था। अचानक उसकी आँखों में एक वेदना सी झलकने लगी थी। एक निराशा सी तारी होने लगी थी। उसने एक गहरी सांस ली और कहने लगा, पर अब धीरे-धीरे सब कुछ जैसे बदलता जा रहा है। मनुष्य की लापरवाही, लालच और लालसा की वजह से सारी ऋतुएँ अपनी विशेषताएं तथा तारतम्य खोती जा रही हैं। मैं कब आता हूँ कब चला जाता हूँ किसी को पता ही नहीं चलता। आज मेरा आपके पास आने का यही मकसद था कि अब वक्त आ गया है, गहन चिंतन का ! लोगों को अपने पर्यावरण, अपने परिवेश, अपनी प्रकृति, अपने माहौल के प्रति जागरूक होने का ! अपनी धरोहरों को बचाने का ! जिससे आने वाली पीढ़ियां स्वस्थ रहें, सुरक्षित रहें। अवाम को अपनी गफलतों से किनारा करना ही होगा ! नहीं तो कुछ ऐसी अनहोनी ना घट जाए जिस पर बाद में पछताने का कोई लाभ ना हो ! हाथ मलते रहने के सिवा कोई चारा ना हो !
कमरे में पूरी तरह निस्तबधता छा गयी। विषय की गंभीरता के कारण मैं पता नहीं कहाँ खो गया ! पता नहीं ऐसे में कितना वक्त निकल गया ! तभी श्रीमती जी की आवाज सुनाई दी कि रात सोने के पहले तो अपना सामान संभाल लिया करो। कंप्यूटर अभी भी चल रहा है, कागज बिखरे पड़े हैं, फिर कुछ इधर-उधर होता है तो मेरे पर चिल्लाते हो। हड़बड़ा कर उठा तो देखा आठ बज रहे थे। सूर्य निकलने के बावजूद धुंध, धुएं, कोहरे के कारण पूरी तरह रौशनी नहीं हो पा रही थी। मैंने इधर-उधर नज़र दौड़ाई, कमरे में हम दोनों के सिवाय और कोई नहीं था। पर जो भी घटित हुआ था, वह सब मुझे अच्छी तरह याद था। मन यह मानने को कतई राजी नहीं था कि मैंने जो देखा, महसूस किया, बातें कीं, वह सब भ्रम था ! कमरे में फैली वह सुबह वाली हल्की सी सुवास मुझे अभी भी किसी की उपस्थिति महसूस जो करवा रही थी !!
पर जो भी हुआ था, जैसे भी हुआ था ! जिस तरह उस दिन जिस गंभीर समस्या की ओर ध्यान गया या दिलाया गया था ! सचेत किया गया था ! उसको हल्के में ले, उसके निवारण हेतु कुछ भी तो सकारात्मक नहीं किया था हमने ! एक सपने की तरह भूला दिया था ! गैस चैंबर में घुट-घुट कर जीते रहने के बावजूद हम सदा की की तरह निश्चिन्त थे कि प्रकृति खुद ब खुद अपने में सुधार ले आएगी ! हम उसी प्रकृति का दम घोंटने में लगे रहे, उसी कायनात की ऐसी की तैसी कर रख दी, जिसने सिर्फ हमें छह-छह ऋतुओं की नेमत सौंपी है ! वह हमें बार-बार चेताती रही ! उसके संदेशे आते रहे ! पर हम अपने गुमान में ही जीते रहे ! फिर धीरे-धीरे ऋतुएं बदलने लगीं ! मौसम क्रूर होने लगे ! ऋतु चक्र डांवाडोल होने लगा ! पर हम कानों में तेल और आँखों पर पट्टी बांध अपनी कुटिल कारगुजारियों में मशगूल रहे !
नतीजतन एक अनजान, लाइलाज, विश्वव्यापी महामारी ने हमें अपने पंजों में धर दबोचा। सारी दुनिया में हाहाकार मचा दिया ! लोग बेतहाशा काल के गाल में समाने लगे ! ना कोई इलाज, ना कोई दवा ! इंसान अपने ही घरों में कैद हो कर रहने को मजबूर हो गया ! पूरी जिंदगी थम कर रह गई ! मानव के अमूल्य जीवन का एक साल पूरी तरह निष्क्रिय कर दिया ! अभी भी संकट टला नहीं है ! पर पता नहीं इंसान ने सीख ली या नहीं !
यदि नहीं तो अब कब हम अपने दायित्वों को समझेंगे ? यदि हमारे पूर्वज भी हमारी तरह सिर्फ मैं और मेरा करते रहे होते तो क्या कभी हम स्वर्ग जैसी इस धरा पर रहने का सौभाग्य पा सकते थे ? फिर मैं सोचता हूँ कि मैंने ही क्या किया इस विषय को ले कर ! सरकार का मुंह तकने, दूसरों से पहल की अपेक्षा रखने और सिवा नुक्ताचीनी के ! किसी की ओर उंगली उठाने से पहले मैंने कोई पहल की इस ओर ? कोई जागरूकता फैलाई ? अपनी तरफ से कोई कदम उठाया इस समस्या के निवारण हेतु ? पर अब इस विपदा से सबक लेते हुए सुधरना तो होगा ही, नहीं तो अब बसंत नहीं आने वाला फिर चेताने के लिए !!
34 टिप्पणियां:
मनुष्य की लापरवाही, लालच और लालसा की वजह से सारी ऋतुएँ अपनी विशेषताएं तथा तारतम्य खोती जा रही हैं। मैं कब आता हूँ कब चला जाता हूँ किसी को पता ही नहीं चलता। आज मेरा आपके पास आने का यही मकसद था कि अब वक्त आ गया है, गहन चिंतन का ! लोगों को अपने पर्यावरण, अपने परिवेश, अपनी प्रकृति, अपने माहौल के प्रति जागरूक होने का ! अपनी धरोहरों को बचाने का ! जिससे आने वाली पीढ़ियां स्वस्थ रहें, सुरक्षित रहें....
सारगर्भित, भाव पूर्ण, समसामयिक एवं सोचनीय विषय उठाया है आपने..सार्थक लेखन के लिए आपको हार्दिक शुभकामनाएं..
जिज्ञासा जी
प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार
वसन्त के बारे में उपयोगी प्रस्तुति।
शास्त्री जी
हार्दिक आभार
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 19 फरवरी 2021 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
यशोदा जी
मान देने हेतु अनेकानेक धन्यवाद
गगन भाई, अब तो भी इंसान को प्रकृति के भाव मे सोचना ही चाहिए। आपने सही कहा कि इसके लिए सरकार कुछ करेगी या कोई और दूसरा करेगा ये सोचने की बजाय हर इंसान को खुद को फल करनी होगी।
ज्योति जी
विपदा तो यही सीखाना चाहती है पर हम अभी भी पूरी तरह गंभीर नहीं हो पाए हैं जबकि वह टली नहीं है पूर्णतया
जिस सत्य को आपने अपने लेख में उद्धाटित किया है, बिरले ही उस पर विचार करते हैं... वरना तो आंख मूंद कर स्वयं को इससे दूर रखने का खोखला प्रयास करते हैं।
साधुवाद इस बेहतरीन अभिव्यक्ति के लिए 🙏
सादर,
डॉ. वर्षा सिंह
वर्षा जी
अब तो हमारा फर्ज बनता है कि निजी तौर पर भी जितना हो सके उतना प्रयत्न करें! नहीं तो अगला खतरा और भी खतरनाक हो सकता है
सच अब पहले जैसा बसंत कहाँ आता है
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
हार्दिक आभार, कविता जी
जी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (२१-०२-२०२१) को 'दो घरों की चिराग होती हैं बेटियाँ' (चर्चा अंक- ३९८४) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
--
अनीता सैनी
अनीता जी
सम्मिलित करने हेतु अनेकानेक धन्यवाद
बसन्त आया तो है । काश इन्सान अब भी कुछ चेत जाए । पर्यावरण की ओर ध्यान आकर्षित करने वाला लेख । लिखा बहुत सुंदर शैली में है ।
इंसानों द्वारा की गई ज्यादतियों की वजह से बसंत पहले जैसा रूप, रस गंध का पर्याय नहीं रह गया...मानव समूह अब भी चेत जाए तो वसंत पुनः वापस आएगा|
विचारणीय रचना, सुन्दर आलेख !!
संगीता जी
"कुछ अलग सा" पर सदा स्वागत है,आपका
ऋता जी
बिल्कुल सही! हार्दिक स्वागत
"पहले कैसे इसके आगमन की सूचना भर से प्रेम-प्यार, हास-परिहास, मौज-मस्ती, व्यंग्य-विनोद का वातावरण बन जाता था ! सरदी से ठिठुरी जिंदगी एक मादक अंगड़ाई ले आलस्य त्याग जागने लगती थी ! जीवन में मस्ती का रंग घुलने लगता था ! वृक्ष, पेड़-पौधे सब नए पत्तों के स्वागत की तैयारियां करने लगते थे ! सारी प्रकृति ही मस्ती में डूब प्रफुल्लित हो जाती थी।"
बिलकुल सही कहा आपने,अब "बसंत" के चेहरे पर प्रसन्ता सिर्फ कविताओं में ही नज़र आती है यूँ कहे कवियों ने ही बसंत को जिन्दा रखने की कोशिश कर रहें है बसंत के दर्द को वाकई महसूस करवा दिया आपने। बड़ी ही गंभीर विषय को रोचक बना दिया आपने,सादर नमन
कामिनी जी
देखते-भालते, समझते-बूझते भी हम उदासीन बने हुए हैं
सुंदर लेख
धन्यवाद, मनोज जी
बसंत के माध्यम से अपने बिगड़ते पर्यावरण पर गहन चिंतन परक आलेख लिखा है।
जिसका खामियाजा हम भूगत रहे हैं ,चिंतन करें हम अपनी पीढ़ियों को क्या देकर जाएंगे ,
एक भय ,रोग शोक से भरा तड़पता जीवन ।
सब कुछ भयावह है हम चेत जाएं तो अच्छा है वर्ना कुछ भी नहीं बचेगा।
एक बहुत ही सार्थक लेख जो चेतावनी भी दे रहा है और नव जाग्रती का आह्वान भी कर रहा है ।
साधुवाद गगन जी ऐसे ही विचारोत्तेजक आलेख लिखते रहिए स्वयं के साथ सभी को अच्छे कार्यों के लिए प्रतिबद्ध करते रहिये हम भी इसी कोशिश में हैं ।
सादर।
कुसुम जी
अब तो प्रयत्न जीवनचर्या में शामिल होने चाहिए ! आने वाली खबरें कतई संतोषजनक नहीं हैं !
बहुत ही साहित्यिक, सामायिक विषयों के साथ बसंतोत्सव - - उच्च स्तरीय लेखन - - साधुवाद सह।
शांतनु जी
अनेकानेक धन्यवाद
सामयिक और सार्थक लेख
धन्यवाद, कदम जी
पर्यावरण की ओर ध्यान आकर्षित करने वाला सार्थक लेख
संजय जी
अनेकानेक धन्यवाद
जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार ३१ दिसंबर २०२१ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
शुभकामनाएं..
सादर नमन
अभी भी कहाँ कुछ बदला है । बसंत के माध्यम से मानवीय कृत्योंको बताने का सार्थक प्रयास है ।।
यदि नहीं तो अब कब हम अपने दायित्वों को समझेंगे ? यदि हमारे पूर्वज भी हमारी तरह सिर्फ मैं और मेरा करते रहे होते तो क्या कभी हम स्वर्ग जैसी इस धरा पर रहने का सौभाग्य पा सकते थे ?
सही कहा आपने हमारे पूर्वजों ने हमें स्वर्ग सी धरती सौंपी और हमने इसे नरक बना दिया हम अपने भावी पीढ़ी को क्या दे रहे है...
बहुत ही सटीक एवं चिंतनपरक...
लाजवाब लेख।
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