इस चतुर इंसान ने मौका ताड़ा और रेलवे के वरिष्ठ अधिकारियों से बात की और फिर हो गया, डिब्बों का रंग नीला। उनका तर्क था की लाल रंग क्रोध, उत्तेजना व आवेश का रंग है, इसी कारण रेल एक्सीडेंट होते हैं ! नीला रंग शांति का प्रतीक है इसलिए दुर्घटनाओं का ख़तरा बिल्कुल कम हो जाएगा ! दुर्घटनाएं कितनी कम हुईं ये तो सबने देखा पर करोड़ों अरबों के खेल का खेल पर्दे के पीछे हो गया.................!!
#हिन्दी_ब्लागिंग
भारत में रेल का परिचय अंग्रेजों द्वारा सन 1853 में बहुत ही मामूली शुरूआत से हुआ जब बंबई से थाणे तक की 34 किमी की दूरी तय कर इतिहास बनाया था ! हालांकि उसके पहले 1837 में मद्रास में लाल पहाड़ियों से चिंताद्रीपेत पुल तक तथा 1851 में रुड़की में सोलानी नदी पर एक एक्वाडक्ट के लिए निर्माण सामग्री पहुंचाई गई थी पर वह सिर्फ माल ढोने के लिए किया गया था। शायद अंग्रेजों को लाल रंग बहुत पसंद था सो रेल गाड़ियों के डिब्बे भी लाल रंग के ही होते थे। वर्षों-वर्ष यही रंग चलता भी रहा !
शुरू के डेढ़-दो दशकों को छोड़ दें जिसने भी रेल की कमान संभाली उसने इससे कुछ ना कुछ फायदा जरूर उठाया ! पर यह एक दुधारू गाय है, यह पहचान दो चतुर लोग ही कर पाए ! ऐसे ही एक दूरंदेशी, महत्वाकांक्षी, पारखी को जब इसकी बागडोर संभालने का सुअवसर मिला, उस समय केंद्र में सरकार भी लुंज-पुंज सी ही थी ! इस चतुर इंसान ने मौका ताड़ा और वरिष्ठ अधिकारियों से बात की और फिर हो गया, डिब्बों का रंग नीला। उनका तर्क था की लाल रंग रोष, आक्रमकता तथा उत्तेजना का रंग है, इसी कारण रेल एक्सीडेंट होते हैं ! नीला रंग शांति का प्रतीक है इसलिए दुर्घटनाओं का ख़तरा बिल्कुल कम हो जाएगा ! दुर्घटनाएं कितनी कम हुईं ये तो सबने देखा पर करोड़ों अरबों के खेल का खेल पर्दे के पीछे हो गया।
आज फिर से रेल के लाल डिब्बे नजर आने लगे हैं, पर ये नीले से लाल नहीं किए जाते बल्कि इनका मूल रंग ही मुख्यता लाल रखा गया है। नई तकनीकी के उच्च गुणवत्ता के इन लाल और सिल्वर रंग के कोच को एलएचबी (Link Hoffman Bush) कहा जाता है। जो एल्युमिनियम तथा स्टेलनेस स्टील से एंटी टेलीस्कोपिक सिस्टम के द्वारा बने होने के कारण भार में हल्के होते हैं और इनको 160 किलोमीटर से 200 किलोमीटर/घंटा पर दौड़ाया जा सकता है। ये आसानी से पटरी से नहीं उतरते ! बड़े झटके भी आसानी से झेल लेते है। जिसकी वजह से एक्सीडेंट बहुत ही कम हो जाते हैं। इनको रिपेयर की जरुरत भी काफी देर के बाद पड़ती है। इनमें डिस्क ब्रेक लगाये जाते हैं, जिससे इन्हें जल्दी रोका जा सकता है। इसके अलावा इसमें ज्यादा यात्रियों के लिए सीटें होती हैं।
नीले इंग के डिब्बों का निर्माण इंटीग्रल कोच फैक्ट्री में किया जाता है। ये लोहे के बनते हैं इसलिए कुछ भारी होते हैं। इनकी गति भी 70 से 140 तक ही होती है। सबसे खतरनाक बात यह है कि घटना के दौरान इनके डिब्बे एक दूसरे पर चढ़ जाते हैं। यात्रियों के लिए सीटें भी लाल वाले से कम होती हैं। इसके रख-रखाव को भी जल्दी-जसल्दय करना पड़ता है।
वैसे कुछ गाड़ियों में हरे, मिले-जुले पीले रंग या कुछ और रंगों में भी होते हैं पर मुख्यता नीले और लाल रंग के डिब्बे ही ज्यादातर उपयोग में आते हैं।
11 टिप्पणियां:
सुन्दर जानकारी।
सुशील जी
"चतुर-सुजान" अपनी रोटी सेकने के लिए अंगीठी खोज ही लेते हैं
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 11 दिसंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
यशोदा जी
सम्मिलित करने हेतु अनेकानेक धन्यवाद
जी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (१२-१२-२०२०) को 'मौन के अँधेरे कोने' (चर्चा अंक- ३९१३) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है
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अनीता सैनी
अनीता जी
चयन करने हेतु अनेकानेक धन्यवाद
शोधात्मक
रोचक जानकारी...
शरद जी
"कुछ अलग सा" पर आपका सदा स्वागत है
बेहतरीन जानकारी! आभार
बहुत अच्छी और शोधपरक जानकारी ।
आभार, मीना जी
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