रविवार, 31 मार्च 2019

रिलायंस और रिलायंस, नाम एक पर संस्थान अलग-अलग

रिलायंस जूट मिल ऐंड इंडस्ट्रीज में गुजरे बचपन के संस्मरण लिखते समय अक्सर यह बात दिमाग से निकल जाती थी कि आज के दिन बंगाल के बाहर इसे जानने वालों की संख्या बहुत कम है ! आज जब भी कहीं रिलायंस का नाम आता है तो सब के जेहन में धीरू भाई अंबानी द्वारा स्थापित रिलायंस इंडस्ट्रीज की छवि ही उभरती है ! पर रिलायंस जूट मिल के बारे में जानकारी ना होने के बावजूद उससे संबंधित मेरी ब्लॉग रचनाओं को मेरे स्नेही जनों से जो प्रतिसाद मिलता रहा है वह तो मेरा सौभाग्य ही है ! आज की यह पोस्ट एक ही नाम के उन दो संस्थानों की थोड़ी सी जानकारी के साथ-साथ उनके लिए भी जिनके लिए रिलायंस जूट मिल का नाम अनजाना-अनसुना और शायद हैरत प्रदान करने वाला भी हो........!    

#हिन्दी_ब्लागिंग 
कभी-कभी जब दिन भर की गहमा-गहमी के बाद रात के नितांत अकेलेपन में समय के अवगुंठन को धीरे से हटा कर जब वर्षों पुरानी यादें करवट लेती हैं तो सबसे पहले रिलायंस जूट मिल में गुजरे बचपन के दिन साक्षात साकार हो मुझे खींच कर अपने बीच ले जाते हैं ! आज चार दशक से ऊपर हो जाने के बावजूद यह सिलसिला बदस्तूर जारी है, हो भी क्यों ना ! जिंदगी का बेहतरीन कालखंड जो था वह ! 

यादों के उसी स्वरुप को जब शब्दों में बांध, वाक्यों में पिरोने की कोशिश करता हूँ तो अक्सर यह बात दिमाग से निकल जाती है कि आज के दिन रिलायंस जूट मिल ऐंड इंडस्ट्रीज को बंगाल के बाहर जानने वालों की संख्या बहुत कम है ! आज जब भी कहीं रिलायंस का नाम आता है तो सब के जेहन में धीरू भाई अंबानी द्वारा स्थापित रिलायंस इंडस्ट्रीज की छवि ही उभरती है ! पर रिलायंस जूट मिल के बारे में जानकारी ना होने के बावजूद उससे संबंधित मेरी ब्लॉग रचनाओं को मेरे स्नेही जनों से जो प्रतिसाद मिलता रहा है वह तो मेरा सौभाग्य ही है ! आज की यह पोस्ट मेरे बचपन के संगी साथियों, स्नेहीजनों के साथ-साथ उन मित्रों, अनजाने अपनों के नाम जिन्होंने मेरे ब्लॉग लेखन को ढेरों खामियों के बावजूद प्रोत्साहित किया है और जिनके लिए रिलायंस जूट मिल का नाम अनजाना-अनसुना और शायद हैरत प्रदान करने वाला भी हो ! 

पहले रिलायंस जूट मिल ! जिसके नाम में समय के साथ-साथ उसकी सफलता के कारण कुछ ना कुछ नया जुड़ता रहा है ! जैसे रिलायंस जूट मिल, या फिर रिलायंस जूट ऐंड इंडस्ट्रीज लिमिटेड या फिर रिलायंस जूट मिल्स इंटरनेशनल लिमिटेड आदि ! तब देश अभिभाजित था। संसार की बेहतरीन जूट बंगाल में ही उत्पन्न होती थी। उसका भरपूर लाभ उठाने के लिए बंगाल के उत्तरी चौबीस परगना जिले के, कलकत्ता से करीब 21-22 मील (35 की.मी.) दूर, भाटपाड़ा इलाके में बीसवीं शताब्दी के पहले दशक में अंग्रेजों द्वारा स्थापित की गयी थी। सड़क मार्ग की बनिस्पत यहां रेल मार्ग से पहुंचना ज्यादा आसान रहा है। इसके लिए कोलकाता के दूसरे बड़े स्टेशन सियालदह से इधर आने वाली लोकल ट्रेनों से कांकिनाड़ा स्टेशन पर उतरना होता है, जिसके लिए बमुश्किल 50-55 मिनटों का समय लगता है जबकि कार वगैरह से करीब डेढ़ से दुगना समय लग जाता है। स्टेशन से पैदल पांच-सात मिनट का समय चाहिए होता है मिल तक पहुँचने के लिए। 

आजादी के बाद बदहाल पड़ी इस मिल को 1963 में कनोडिया परिवार द्वारा अपनी मिल्कियत में शामिल कर लिया गया। यह उनकी दूरदर्शिता, कुशल प्रबंधन, व्यापारिक कौशल और अपने स्टाफ पर पूरा भरोसा ही था जो रिलायंस जूट मिल बंगाल की अग्रणी मिलों में शुमार रही। मालिकों द्वारा प्रदत्त सहूलियतें, बिना किसी हस्तक्षेप के काम करने की पूरी छूट, परिवारों की सुख-सुविधा का पूरा ख्याल, सुख-दुःख में सदा उनके साथ होने के दिलासे के कारण सारा स्टाफ उनके प्रति समर्पित था। काम को अपना काम समझ कर काम किया जाता था। सत्तर का दशक रिलायंस का स्वर्ण काल रहा। 

अब बात दूसरी रिलायंस की। इसे धीरू भाई अंबानी और चंपक लाल दमानी ने 1960 में साथ मिल कर खड़ा किया था पर 1965 आते-आते दोनों जने अलग हो गए, और धीरू भाई ने 1966 में रिलायंस टेक्सटाइल इंडस्ट्री की नींव महाराष्ट्र में रखी, जो सिंथेटिक धागे बनाने का काम करती थी। कंपनी ने समय के साथ अपार सफलता प्राप्त की। उसका ''बिमल'' ब्रांड का कपड़ा जन-जन की पसंद बन गया। आज यह रिलायंस देश के नवरत्नों में शामिल है। देश-विदेश में ख्याति अर्जित करने वाले इस बहुमुखी और सफलतम संस्थान को आज किसी पहचान की जरुरत नहीं है। देश के बच्चे-बच्चे की जुबान पर इसका नाम है।

तो यह थी एक ही नाम के दो संस्थानों की कहानी। एक के संस्थापक राजस्थान से आए, बंगाल को अपना कर्म-क्षेत्र चुना। जूट के पौधे से धागे बना कर देश में उस क्षेत्र में अग्रणी स्थान बनाया। 
दूसरे ने गुजरात से आ महाराष्ट्र की जमीन पर, अथक मेहनत, दूरदर्शिता, व्यापार कौशल तथा अपनी लगन से अपने सपनों को साकार करते हुए देश की सीमाएं लांघ कर आसमान छू लिया। 
दोनों में समानता यही थी कि उन्होंने धागे बनाने के काम से शुरुआत की और अपने संस्थानों का नाम रिलायंस रखा ! क्योंकि उन्हें खुद पर भरोसा था। अपनी आत्म-निर्भरता पर विश्वास था।  

मंगलवार, 26 मार्च 2019

बहुत बडे दिल वाला हुआ करता था बंगाल

जब-जब देश के किसी भी प्रदेश के रहवासी को यदि रोजगार के लिए किसी दूसरे राज्य में जाने की जरुरत महसूस होती थी तो उसके जेहन में सबसे पहले कलकत्ते का ही नाम आता था और इसने भी खुली बाँहों से सबका स्वागत बिना भेद-भाव के किया ! कहते हैं बम्बई अपने मेहमान का कठिन इम्तहान ले कर तब उसे अपनाती है ! पर बंगाल तो सदा सहृदय मेजबान रहा ! वहां तो दूध के भरे गिलास में चीनी की तरह, बिना उसको छलकाए लोग आते गए और घुलते-मिलते गए, रोजगार पाते गए और वहीं के हो कर के रह गए। इसी कारण देश के किसी भी शहर के पहले कलकत्ते ने एक करोड़ की आबादी का आंकड़ा पार कर लिया था.........!

#हिन्दी_ब्लागिंग
वैसे तो हमारे देश का हर राज्य अपनी भौगोलिक स्थिति, संस्कृति, परंपराओं या प्रकृति की नेमतों की वजह से अपने-आप में खास है, पर इनमें बंगाल अपना अलग ही स्थान रखता है। चाहे गीत-संगीत हो, राजनीती हो, देश प्रेम हो, शिक्षा हो, आध्यात्म हो, शौर्य हो, ललित कला हो, वास्तु हो, खेल हो, पठन-पाठन हो, नेतृत्व हो, प्रेम हो, भाईचारा हो, खान-पान हो, उत्पादन हो, किसी भी विधा में यह पीछे नहीं रहा। ऐसे ही इस धरती का नाम ''सोनार बांग्ला'' नहीं पड़ गया था। कई-कई बार विदेशों में इसने अपने देश का नाम रौशन करवाया है। इतना ही नहीं जब-जब देश के किसी भी प्रदेश के रहवासी को यदि रोजगार के लिए किसी दूसरे राज्य में जाने की जरुरत महसूस होती थी तो उसके जेहन में सबसे पहले कलकत्ते का ही नाम आता था और इसने भी खुली बाँहों से सबका स्वागत बिना भेद-भाव के किया ! कहते हैं बम्बई अपने मेहमान का कठिन इम्तहान ले कर तब उसे अपनाती है ! पर बंगाल तो सदा सहृदय मेजबान रहा ! वहां तो दूध के भरे गिलास में चीनी की तरह, बिना उसको छलकाए लोग आते गए और घुलते-मिलते गए, रोजगार पाते गए और वहीं के हो कर के रह गए। इसी कारण देश के किसी भी शहर के पहले कलकत्ते ने एक करोड़ की आबादी का आंकड़ा पार कर लिया था। उन दिनों हर तबके,  स्तर के लोगों के लिए वहां रहना-गुजर करना आसान था।



शुरू में एक कहावत हुआ करती थी कि ''आज जो बंगाल सोचता है, वही कल पूरे देश की सोच होती है'' इसका एक कारण भी था बंगाल की शिक्षा दर, बुद्धि जीवी वर्ग, जागरूकता देश के बाकी हिस्सों पर भारी पड़ती थी। इसका एहसास वहां के वाशिंदों को था ! हालांकी गुणी जनों का आदर सत्कार करने में वे कभी पीछे नहीं रहते थे पर किसी बाहर वाले से जल्दी मिलते-जुलते भी नहीं थे। शायद अपने खोल में बने रहने की आदत के कारण ही आजादी के वर्षों बाद तक बंगाली युवा देश के दूसरे हिस्सों में रोजगार तलाशने में कतराते रहे। जो मिला है उसी में खुश रहने वाले हुआ करते थे बंगाली परिवार। ज्यादातर शारीरिक मशक्कत और व्यापार से दूरी बनाए रखने वाला युवा वर्ग ''सफ़ेद कॉलर'' या सरकारी नौकरी, एक अपना घर जिसमे छोटा सा तालाब हो, सादगी भरी वेशभूषा और अपने पसंदीदा फ़ुटबाल क्लब की जीत-हार के साथ संतुष्ट रहता था। अलबत्ता ताश के खेल ब्रिज तथा ''अड्डा-बाजी'' उसका प्रमुख शगल हुआ करता था जहां दुनिया-जहान की बातों और मसलों पर वाद-विवाद होते रहते थे। यही कारण था कि मेहनत-मजदूरी के कामों में यहां यूपी, बिहार व पंजाब के लोगों का वर्चस्व रहता आया है। मिलों-फैक्ट्रियों में कामगारों, दरवानों के अलावा कलकत्ते में चलने वाली  ''ट्राम'' में चालक और कंडक्टर ज्यादातर बिहार-यूपी के ही हुआ करते थे। परिवहन में टैक्सी के व्यवसाय में पंजाब से आई सिख बिरादरी का बोल-बाला हुआ करता था। उस समय पलम्बर का मतलब हुआ करता था ओडिसावासी ! मारवाड़ी, गुजराती तथा पंजाबी भाइयों ने यहां का व्यवसाय संभाला हुआ था। देश के अन्य भागों से आए हुए लोगों की भी यहां अच्छी-खासी तादाद थी। यहां तक की 60-70 के भयंकर उथल-पुथल वाले दिनों में भी गैर-बंगाली परिवार चिंतित तो जरूर हुए पर यहां से जाने की किसी ने नहीं सोची, यह थी उस मिट्टी की ममता !
कोलकाता मैदान 

धापा का इलाका 
बहुत बडे दिल वाला हुआ करता था बंगाल, जिसने कभी भी किसी से भेद-भाव नहीं किया। भले ही वह कोई भी भाषा-भाषी हो, किसी भी देश-प्रदेश का हो, किसी भी जाति-धर्म का हो ! जिसने भी इसको चाहा इसने उतनी ही शिद्दत से उसे अपनाया। देश तो देश, विदेशी लोगों को भी यहां उतना ही संरक्षण मिला। अंग्रेज तो खैर यहां थे ही, उनके अलावा फ्रेंच, रशियन, पारसी, यहूदी, नेपाली, एंग्लोइंडियन, आर्मेनियन, ग्रीक, लंका और बर्मा जैसे देशों के लोग भी यहां अपना जीवन यापन करते मिल जाते थे। बासठ के युद्ध के बावजूद चीनियों की तादाद यहां दूसरे प्रवासियों से ज्यादा थी। उनका मुख्य रोजगार चमड़े से बनी वस्तुएं, रेस्त्रां और दंत चिकित्सा हुआ करता था। सही कहा जाए तो उन्होंने कलकत्ता के पूर्वीय हिस्से में स्थित धापा नामक जगह को अपना गढ़ जैसा बना लिया था। वहां उन लोगों की चमड़ा फैक्ट्रियां लगी हुई थीं। चीनियों की सघन आबादी के कारण उस जगह को चायना टाउन कहा जाने लगा था, धीरे-धीरे वह जगह असामाजिक तत्वों की शरण-स्थली बनती चली गयी जिससे आम आदमी उधर जाने से कतराने भी लगा था।

समय के साथ-साथ बहुत कुछ बदलता चला गया। देश-विदेश की नई पीढ़ी बेहतर रोजगार की तलाश में समुंदर भी लांघ गयी। विदेशियों की आबादी भी धीरे-धीरे कम होती चली गयी। तरह-तरह की सरकारें और उनकी नीतियों ने भी अपना-अपना असर डाला। एक समय ऐसा भी आया कि इस प्यारे, खूबसूरत महलों के शहर को ''डाइंग सिटी'' तक कह दिया गया था। तरह-तरह के कुप्रबंधन, अदूरदर्शी नेताओं, आत्मघाती निर्णयों, केंद्र से टकराव के बावजूद बंगाल के मुकुट के इस हीरे ने अपनी असाधारण जीजीविषा के बलबूते अपनी खोई चमक को वापस प्राप्त किया ! आज फिर वह उसी दम-ख़म के साथ पुन: गर्व से सीना ताने खड़ा है। मेरा सौभाग्य रहा है कि मुझे इसी की छत्र-छाया में लिखने-पढ़ने-काम करने-जिंदगी को जानने -समझने का अवसर प्राप्त हुआ। आज भी कोई मेरा पसंदीदा शहर पूछे तो मेरा एकमात्र उत्तर होगा..सिर्फ और सिर्फ ''कोलकाता'' । 

सोमवार, 18 मार्च 2019

होली, रिलायंस की, यादें बचपन की !

शाम को पांच बजे के आस-पास लॉन में ठंडाई का कार्यक्रम भी पूरे उत्साह के साथ संपन्न होता था। उसके बाद कभी-कभी वहीं ''स्क्रीन'' लगा किसी फिल्म का भी प्रदर्शन हो जाता था। पूरा दिन कैसे छू-मंतर हो जाता था, पता ही नहीं चलता था।  उसके बाद थके-हारे कैसे बिस्तर पर पहुंचते थे, कब नींद आती थी, कब सुबह होती थी कुछ नहीं पता ! पता था तो सिर्फ यह कि होली का इंतजार उसी दिन से फिर शुरू हो जाता था............!      

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होली आ रही है साथ ही ला रही है बीते दिनों की रंग में सराबोर बचपन की यादें। वैसे तो समय के साथ-साथ जैसे-जैसे निज़ाम बदलते गए, मिल के वाशिंदों के आचार-व्यवहार-त्यौहार आदि में भी थोड़ा-बहुत बदलाव आता चला गया, जोकि लाज़िमी भी था। पर आज जो बात बतला रहा हूँ, वह बिल्कुल शुरू के कुछ वर्षों में मनाई-खेली जाने वाली होली की है। 

उन दिनों सर, मैडम, मिसेज या अंकल-आंटी जैसे शब्दों का प्रयोग नहीं के बराबर ही होता था। जो पंद्रह-बीस परिवार परिसर में रहते थे, उनकी महिला सदस्य एक-दूसरे को संबोधित करने के लिए भैन (बहन) या भैन जी तथा एक-दो अपवादों को छोड़, पुरुष सदस्यों के लिए उनका उपनाम या भाई जी का प्रयोग ही हुआ करता था। आज तो मुझे लगता था कि शायद मिल के स्टाफ का पूरा नाम तो सिर्फ कैशियर अंकल ही जानते होंगे, जिन्हें सैलरी देने के लिए पूरे नामों की जरुरत पड़ती होगी ! हाँ बच्चा पार्टी बिना भेद-भाव,जात-पात के सिर्फ नाम से पुकारी जाती थी। 

तो बात हो रही थी होली की ! वैसे तो सारा परिसर एक ही परिवार था ! पर पुरुष वर्ग की ''क्रिमी लेयर'' के पांच-सात लोग बहुत ही मित्त-भाषी, सादगी प्रिय, गंभीर और एक अनुशासित ''औरा'' में ही रहने वाले थे ! ऐसा नहीं था कि वे स्वभाव से कठोर या अहम वाले थे ! वे सब बहुत प्रेमिल थे, पर अपने पर और अपनी भावनाओं पर उनका पूरा नियंत्रण हुआ करता था। समय-समय पर उनकी जिंदादिली भी सामने आती रहती थी पर कभी-कभी, किसी पूर्णिमा पर या एकादशी पर ! ये सब इसलिए बता रहा हूँ कि जिससे एक खाका खिंच सके, उस समय का। 

मिल में होली की दस्तक हफ्ते भर पहले ही शुरू हो जाती थी, उसके स्वागत में मिल का युवा स्टाफ रात दस बजे के बाद एक किनारे बने ''बेबी क्रेश'' में चंग या ढपली के साथ राजस्थानी फाग गीतों की स्वर लहरी छेड़ उसके पदचाप की ध्वनि सब तक पहुंचा देता था। होली के दिन भांग जरूर घुटा करती थी, जिसका पूरा सामान कलकत्ते से दो दिन पहले पहुँच जाता था। भांग-ठंडाई, बिना किसी मशीन या बाहरी इंसान की सहायता के खुद ही बनाई जाती थी। यह भी एक बड़ा कार्यक्रम होता था ! 60-70 लोगों के लिए इसको बनाना कोई हंसी-खेल नहीं था। सारी सामग्री, घटकों तथा मसालों का सही अनुपात-मात्रा का पूरा ज्ञान और ध्यान रख पूरी तन्मयता और एकांत में उसका निर्माण किया जाता था। भांग बच्चों के लिए पूरी और कठोरता से निषिद्ध थी। होली के एक दिन पहले होलिका दहन की रस्म पूरे रीती-रिवाजों के साथ पूरी की जाती थी और फिर आ जाता था वह दिन जिसका इंतजार हम बच्चे साल भर से करते रहते थे। 

होली की चहल-पहल सुबह साढ़े आठ-नौ बजे शुरू हो जाती थी। महिलाओं-लड़कियों का अलग गुट होता था जो मैनेजर गेट के पास बांए हाथ के छोटे से मैदान में जुटता था। बाकी छोटे-बड़े पुरुष सामने लॉन में रंगों की धूम मचाते थे। गंगा सामने थीं, पानी इफरात था, रंगों की पूर्ती मिल से होती थी। हम अपनी हाफ पैंटों-निकरों की जेबों में तरह-तरह के रंगों को संजोए मोर्चे पर निकलने को तैयार होने लगते थे। ये दूसरी बात है कि ज्यादातर बच्चों की जेबों में कागज की पुड़ियों में रखे रंग पानी से मिलीभगत कर उन्हीं के बदन को ज्यादा रंगीन कर जाते थे। शुरुआत होती थी उन ''पांच-सात देव-पुरुषों'' से जो झक्क सफ़ेद शर्ट-पैंट में मंथर गति से चलते हुए आ कर लॉन में एक-दूसरे को बधाई दे, जरा-जरा सा गुलाल लगा खड़े हो जाते थे। फिर उनके युवा सहकर्मी उन्हें गुलाल लगा आशीर्वाद पाते थे और फिर उस एक दिन को मिली छूट का पूरा लाभ उठा वानर सेना के सेनानी, बिना अपने-पराए का भेद-भाव कर, पिल पड़ते थे अपने हथियारों समेत उन पर और जब तक उनके लिबास में चिन्दी भर भी सफेदी नज़र आती थी तब तक रंगों की बरसात जारी रहती थी। उसी बीच मिठाई का आदान-प्रदान भी बदस्तूर चलता रहता था। हमारी हसरतें पूरी होते ही वे आपस में विदा ले अपने-अपने घरों को बढ़ लेते थे।  आज वह सब सोच कर उन पर तरस और प्यार के साथ आँखें भी नम हो जाती हैं कि कैसे वे लोग चुप-चाप खड़े रह कर हमें खुश होने का भरपूर मौका दिया करते थे। तीन-चार घंटों के हुड़दंग के बाद, माओं के, बाथरूम को गंदा ना कर ध्यान से नहाने के कड़े निर्देशों का पालन करते हुए हम सब अपने-अपने जिद्दी रंगों को छुड़ाने की मशक्कत में जुट जाते थे। यह दूसरी बात है कि रंगों और हमारा स्नेह दो-तीन दिनों तक तो बना ही रहता था। 


शाम को पांच बजे के आस-पास लॉन में ठंडाई का कार्यक्रम भी पूरे उत्साह के साथ संपन्न होता था। उसके बाद कभी-कभी वहीं ''स्क्रीन'' लगा किसी फिल्म का भी प्रदर्शन हो जाता था। पूरा दिन कैसे छू-मंतर हो जाता था, पता ही नहीं चलता था।  उसके बाद थके-हारे कैसे बिस्तर पर पहुंचते थे, कब नींद आती थी, कब सुबह होती थी कुछ नहीं पता ! पता था तो सिर्फ यह कि होली का इंतजार उसी दिन से फिर शुरू हो जाता था।
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@कुछ दिनों बाद, रिलायंस के इतिहास की सबसे बड़ी दुर्घटना, जो आज भी रोंगटे खड़े कर देती है !   

शुक्रवार, 8 मार्च 2019

अरे ! अब तो जागो, आधा विश्व हो तुम !!

एक ऐसे समाज को, जो खुद आबादी का आधा ही हिस्सा है, किसने हक दिया महिलाओं के लिए साल में एक दिन निश्चित करने का ? कोई पूछने वाला नहीं है कि क्यों भाई संसार की आधी आबादी के लिए ऐसा क्यों ? क्या ये कोई विलुप्तप्राय प्रजाति है  ? यदि ऐसा है तो पुरुषों के नाम क्यों नहीं कोई दिन निश्चित किया जाता ? पर सभी खुश हैं ! विडंबना यह है कि वे और भी आह्लादित हैं जिनके नाम पर ऐसा दिन मनाया जा रहा होता है ! समाज के इस महत्वपूर्ण हिस्से को इतना चौंधिया दिया गया है कि कुछेक को छोड़ वे अपने प्रति होते अन्याय, उपेक्षा को न कभी देख पाती हैं और न कभी महसूस ही कर पाती हैं........

पुरानी पोस्ट, फिर एक बार  !

#हिन्दी_ब्लागिंग 
आज #आठ_मार्च है, #महिलाओं _को_समर्पित_एक_दिन ! उन महिलाओं को जो विश्व का आधा हिस्सा हैं ! उन्हें बराबरी का एहसास करवाने, अपने हक़ के लिए जागरूक करने का दिन। पर सोचने की बात है कि क्या                                                                                                                                     
संसार का यह आधा भाग इतना कमजोर है कि उस पर किसी विलुप्त होती नस्ल की तरह ध्यान  दिया जाए ! सबसे बड़ी बात, क्या सचमुच पुरुष केंद्रित समाज महिलाओं को बराबरी का हकदार मानता है ? क्या वह दिल से चाहता है कि ऐसा हो, या सिर्फ उन्हें मुगालते में रखने का नाटक है ?  क्या यह पुरुषों की ही सोच नहीं है कि महिलाओं को लुभाने के लिए साल में एक दिन उनको समर्पित कर दिया जाए ?  वैसे ऐसे समाज को, जो खुद आबादी का आधा ही हिस्सा है उसे किसने हक दिया महिलाओं के लिए साल में एक दिन निश्चित करने का ? कोई पूछने वाला नहीं है कि क्यों भाई संसार की आधी आबादी के लिए ऐसा क्यों ? क्या वे कोई विलुप्तप्राय प्रजाति है ? यदि ऐसा है तो पुरुषों के नाम क्यों नहीं कोई दिन निश्चित किया जाता ? पर सभी खुश हैं ! विडंबना है कि वे तो और भी आह्लादित हैं जिनके नाम पर ऐसा दिन मनाया जा रहा होता है और इसे मनाने में तथाकथित सभ्रांत घरानों की महिलाएं बढ-चढ कर हिस्सा लेती हैं।

आज जरूरत है सोच बदलने की। इस तरह की मानसिकता की जड पर प्रहार करने की। सबसे बडी बात महिलाओं को खुद अपना हक हासिल करने की चाह पैदा करने की। कभी हनुमान जी को उनकी शक्तियों की याद दिलाने में जामवंत ने सहायता की थी ! पर आज कोई भी ऐसा करने वाला नहीं है ! उन्हें खुद ही प्रयास 
करने होंगे, खुद ही अपनी लड़ाई लड़नी होगी, खुद को ही सक्षम-सशक्त बनाना होगा !  हाँ,  कुछ तो बर्फ टूटी है पर गति बहुत धीमी है, ऐसे में तो वर्षों-वर्ष लग जाएंगे ! क्योंकि यह इतना आसान नहीं है ! हजारों सालों की मानसिक गुलामी की जंजीरों को तोडने के लिए अद्मय, दुर्धष संकल्प और जीवट की जरूरत है। उन प्रलोभनों को ठुकराने के हौसले की जरूरत है जो आए दिन उन्हें परोस कर अपना मतलब साधा जाता है। 

पहले तो उन्हें यह निश्चित करना होगा कि उनका लक्ष्य क्या है ! उन्हें क्या चाहिए ! सिर्फ मनचाहे कपडे पहनने और कहीं भी कुछ भी बोल सकने की छूट, ध्येय नहीं होना चाहिए है, वह भी सिर्फ बड़े शहरों में ! दूर-
दराज के गांवों-कस्बों में आज भी कुछ ज्यादा नहीं बदला है। आश्चर्य होता है, इस और ध्यान ना देकर इस दिन वे कुछ, अपने आपको प्रबुद्ध, आधुनिक व खुद को महिलाओं का संरक्षक मान बैठी तथाकथित समाज सेविकाएं जो खुद किसी महिला का सरे-आम हक मारे बैठी होती हैं, मीडिया में कवरेज इत्यादि पाने के लिए,  आरामदेह वातानुकूलित कक्षों में कुछ ज्यादा ही मुखर हो जाती हैं।  

आज पुरुष केंद्रित समाज ने अपने इस महत्वपूर्ण हिस्से को इतना चौंधिया दिया है कि कुछेक को छोड़, वे अपने प्रति होते अन्याय, उपेक्षा को न कभी देख पाती हैं और न कभी महसूस ही कर पाती हैं। दोष उनका भी नहीं होता, आबादी का दूसरा हिस्सा इतना कुटिल है कि वह सब अपनी इच्छानुसार करता और करवाता है। फिर उपर से विडंबना यह कि वह एहसास भी नहीं होने देता कि तुम चाहे कितना भी चीख-चिल्ला लो, हम तुम्हें उतना ही देगें जितना हम चाहेंगे। जरूरत है महिलाओं को अपनी शक्ति को आंकने की, अपने बल को पहचानने की, अपनी क्षमता को पूरी तौर से उपयोग में लाने की, अपने सोए हुए जमीर को जगाने की....और यह सब उसे खुद ही करना है ! आसान नहीं है यह सब, पर करना तो पड़ेगा ही.......! 

बुधवार, 6 मार्च 2019

हिज्जों के बदलाव से ग्रहों को साधने की कवायद

क्या ग्रह-नक्षत्र भाषा का फर्क समझते हैं ? भले ही हमने उनको साधने के लिए अंग्रेजी में Sharma को Shaarma या Sharrma कर लिया हो, पर हिंदी वर्तनी में उच्चारण और उसकी ध्वनि तो शर्मा ही रहेगी, ना कि शार्मा या शर्रमा ! तो वर्तनी बदलने के बावजूद जब हम उसका उच्चारण पहले ही की तरह करते रहेंगे और उसकी ध्वनि भी  पूर्ववत ही रही, तो फर्क क्या पड़ा ? जिसको साधने के लिए इतना ताम-झाम किया, पता नहीं वह बदलाव उसको उतनी दूर से नजर भी आएगा या नहीं ? उस तक यदि कुछ पहुंच पाएगा तो वह नाम की पहले जैसी ध्वनि ही होगी ! फिर यदि बदलाव का आभास संबंधित ग्रह को हो भी जाए तो क्या वह बेचारा प्भंबल-प्भुसे में नहीं पड जाएगा कि, भई इस बंदे का क्या करूँ ? लिखता कुछ है बोलता कुछ है ! अंग्रेजी में कुछ है हिंदी में कुछ है...........!

#हिन्दी_ब्लागिंग 
अक्सर देखा गया है कि लगातार प्रयत्नों के बाद भी जब कुछ लोग अपने कार्यक्षेत्र इत्यादि में सफल नहीं हो पाते तो वे ज्योतिषविदों की शरण में जा तरह-तरह के उपाय अपनाने लगते हैं ! ऐसे ही उपायों में एक है अपने नाम के हिज़्ज़े बदल कर ग्रहों को साधने की कवायद ! कई बार देखने में आया है कि कुछ लोगों के नामों की अंग्रेजी वर्तनी में जरुरत ना होने के बावजूद ''a'' ''e'' ''i'' ''r'' जैसे शब्द या उसी ध्वनि से मिलता-जुलता शब्द जोड़ दिया जाता है। जैसे Reva के बदले Rewa ! Sunil के बदले Suneel या फिर Suniel ! Sharma की जगह Shaarma या Sharrma ! Bhattacharya की जगह Bhattacharyya या फिर Sheela के बदले Sheila इत्यादि इत्यादि ! किसी का भी नाम उसका अपना नितांत व्यक्तिगत मामला है उसमें वह कुछ भी हेर-फेर करे किसी को क्या आपत्ति हो सकती है और होनी भी नहीं चाहिए ! पर यहां बात नाम में हेरा-फेरी या उलट-पुलट करवाने वालों की हो रही है।

यह विधा अंक ज्योतिष के अंतर्गत आती है। ऐसा बताया या समझाया जाता है कि हर ग्रह के कुछ निश्चित अंक होते हैं यदि आपका उस ग्रह से संबंध है तो आपके नाम के अंक उससे मिलते-जुलते होने चाहिए। हारा-थका, परेशान इंसान ''कीमती'' सलाह मान नाम में हेरा-फेरी करवा लेता है। यह रुझान समाज के समृद्ध, पढ़े-लिखे और समझदार कहे जाने वाले तबके में ही ज्यादातर लोकप्रिय भी है ! पर एक बात समझ में नहीं आती कि यह सब अधिकांशतः अंग्रेजी वर्तनी में ही किया जाता है ! हिंदी में उसका उच्चारण वही रहता है जो होना चाहिए ! भले ही Sharma को Shaarma या Sharrma कर लिया गया हो पर उच्चारण या ध्वनि शर्मा ही रहेगी, शार्मा या शर्रमा नहीं। 

मान लिया कि हमने अंग्रेजी का एक अंक बढ़ा Saturn जैसे किसी ग्रह को साध भी लिया पर हिंदी में शनिदेव या जिस ग्रह के लिए भी उठा-पटक की है उसका क्या ? क्या ग्रह भाषा का फर्क समझते हैं ? चलिए छोड़िए इस बात को ! कहते हैं, कहते क्या हैं सभी जानते हैं कि ध्वनि में अपार क्षमता होती है ! तो वर्तनी बदलने के बावजूद जब हम उसका उच्चारण पहले ही की तरह करते हैं तो ध्वनि तो वही ना रहती है जो पहले थी ! तो फर्क क्या पड़ा ?जिसको साधने के लिए इतना द्रव्य खर्च कर लिखावट बदली वह बदलाव क्या उसको उतनी दूर से नजर भी आएगा ? उस तक यदि कुछ पहुंचा भी तो वह नाम की पहले जैसी ध्वनि ही होगी ! फिर यदि लिखावट के बदलाव का आभास संबंधित ग्रह को हो भी जाए तो क्या वह बेचारा प्भंबल-प्भुसे में नहीं पड जाता होगा कि, भई इस बंदे का क्या करूँ ? लिखता कुछ है बोलता कुछ है ! अंग्रेजी में कुछ है हिंदी में कुछ है !

तो लब्बो-लुआब क्या निकला पता नहीं ! अपुन ने तो अब तक की जिंदगी में ज्यादातर टेढ़े-मेढ़े, एन्ड-बैंड, हल्के-भारी,अक्री-वक्री रहे ग्रहों-नक्षत्रों के बावजूद ऐसा कोई ''परजोग'' नहीं किया ! हिम्मत ही नहीं पड़ी !  ऐज इट इज, व्हेयर इट इज, की तरह ही कट गयी बाकी जो है वह भी अईसन ही रहेगी !

शुक्रवार, 1 मार्च 2019

''गुपि गायेन बाघा बायेन'' बनाम ''गोपी गवैया बाघा वजइया''

आज एक हिंदी भाषा की एनीमेशन फिल्म ''गोपी गवैया बाघा वजइया'' सिनेमाघरों में उतरी है। उसके शीर्षक, उसमें वर्णित घटनाक्रम और पात्रों के नाम से यह जाहिर है कि यह वर्षों पहले सत्यजीत रे जी की फिल्म ''गुपि गायेन बाघा बायेन'' नामक बांग्ला फिल्म  का ''एनिमेटेड'' रूप है। पर टाइम्स ऑफ इंडिया अखबार की पल्लबी डे पुरकायस्थ द्वारा उसकी जो समीक्षा की गयी है उसमें ना हीं पहली फिल्म का नाम है ना हीं सत्यजीत जी का ! ऐसा क्यों ? क्या यह निर्माता-निर्देशक और समीक्षक की मिलीभगत है ? क्यों नहीं श्रेय दिया गया ''गोपी गायेन बाघा बायेन'' को ? यह सोच कर कि इतनी पुरानी बांग्ला  फिल्म की किसको याद होगी ! फिल्म चल गयी तो वाह-वाही लूट ली जाएगी ! प्रश्न उठा तो क्षमा याचना तो हईये है ...........!        
#हिन्दी_ब्लागिंग 
करीब पचास साल पहले देश के महानतम फिल्म निर्माता श्री सत्यजीत रे ने गंभीर फिल्मों से अलग हट कर बच्चों के लिए कुछ हल्की-फुल्की, मनोरंजक फिल्मों का भी निर्माण किया था। जिनमें पहली कड़ी थी ''गोपी
गाइन बाघा बाइन''। फिल्म बनाई थी दिग्गज फिल्म निर्माता-निर्देशक ने, तो कोई सोच भी नहीं सकता था कि यह पूरी तरह बच्चों की फिल्म है। सभी रे साहब की अन्य फिल्मों की तरह उसमें भी कोई गंभीर संदेश ढूंढने की कोशिश कर रहे थे। उन दिनों भी आजकी तरह अपने आप को धुरंधर, सर्वज्ञानी, तुर्रम खां समझने वाले समीक्षकों ने उस फिल्म के तरह-तरह के विश्लेषण करने शुरू कर दिए थे। कोई उसे महान राजनितिक फिल्म बता रहा था ! कोई उसके द्वारा राज नेताओं पर व्यंग्य कस रहा था तो कोई उसमें छिपा गूढ़ संदेश सामने ला रहा था ! कुछ दिनों बाद एक इंटरव्यू में उन सब तथाकथित विशेषज्ञों के मुंह देखने लायक थे जब सत्यजीत जी से इस बारे में बात हुई ! उन्होंने हंसते हुए कहा कि ''आप लोगों के बताने पर मुझे भी इसके इतने पहलू नज़र आ रहे हैं ! सच तो यह है कि यह मेरे नानाजी उपेंद्र किशोर राय चौधरी जी की आज से 40-45 साल पहले बच्चों के लिए लिखी गयी एक कहानी पर आधारित फिल्म है। जब इसे मेरे बेटे संदीप ने पढ़ा तो उसने मुझे इस पर फिल्म बनाने को कहा। इसमें कोई गूढ़ या राजनितिक संदेश नहीं छिपा है यह पूर्णतया बच्चों की फिल्म है।''
तपन चटर्जी, रबी घोष और हरिंद्रनाथ चट्टोपाध्याय अभिनीत इस फिल्म को अपार सफलता मिली। बंगाल में किसी बंगाली फिल्म के सबसे ज्यादा चलने का रेकॉर्ड बना। नेशनल फिल्म एवार्ड में भी इसकी धूम रही। बेस्ट
फिल्म और बेस्ट निर्देशक का इनाम भी इसकी झोली में आया। इसकी सफलता के उपरांत रे साहब तथा उनके सुपुत्र ने अपनी ''अप्पू त्रयी'' की तर्ज पर इस फिल्म के भी ''हीरेक राजार देशे'' और ''गुपि बाघा फीरे एलो'' जैसे सीक्वेल बनाए।   
आज एक हिंदी भाषा की एनीमेशन फिल्म ''गोपी गवैया बाघा वजइया'' सिनेमाघरों में उतरी है। उसके शीर्षक, उसमें वर्णित घटनाक्रम और पात्रों के नाम से यह जाहिर है कि यह उसी बांग्ला फिल्म का ''एनिमेटेड'' रूप है। पर आज ही टाइम्स ऑफ इंडिया अखबार की पल्लबी डे पुरकायस्थ द्वारा उसकी जो समीक्षा की गयी है उसमें ना हीं पहली फिल्म का नाम है ना हीं सत्यजीत जी का ! ऐसा क्यों है ? क्या यह निर्माता-निर्देशक और समीक्षक की मिलीभगत है ? क्यों नहीं श्रेय दिया गया ''गोपी गाइन बाघा बाइन'' को ? ऐसा तो नहीं कि यह सोच कर कि इतनी पुरानी बांग्ला फिल्म की किसको याद होगी ! फिल्म चल गयी तो वाह-वाही लूट ली जाएगी ! प्रश्न उठा तो क्षमा याचना तो हईये है ! कामना है कि यह पल्लबी डे की एक चूक ही हो।  
एक बात और फिल्म का शीर्षक भी बाजारू और चलताऊ किस्म का है, गोपी गवैया बाघा वजइया, जैसे गांव-खेड़े की नौटंकियों में नृत्य करने वालों के लिए नचनिया शब्द प्रयोग में लाया जाता है। इसके बदले गोपी गायक बाघा वादक भी हो सकता था। पर यह शिल्पा रानाडे जी का अपना मामला है वे जो भी नाम रखें पर तब जब ये उनकी अपनी रचना हो। पर जब आपने किसी और की कृति उठाई है तो उसको हल्का तो ना करें ! इसके साथ ही स्रोत को श्रेय या उसका जिक्र तो जरूर ही होना चाहिए। 

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