शनिवार, 15 दिसंबर 2018

ऐसे लोगों पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए

यह सब देखने के बाद मैंने कैटरिंग के मालिक की खोज की तो पता चला कि वह घर चला गया है, फ्लोर मैनेजर पर जिम्मेदारी छोड़। मैंने उसी को घेरा, ''इतनी ठंड है पर आपके काम करने वालों के पास उचित कपडे नहीं हैं !'' पहले तो वह चौंका, फिर बोला, ''इनमें ज्यादातर परमानेंट नहीं हैं, काम और जरुरत के अनुसार इन्हें रखा जाता है।'' मैंने कहा, ''वह तो ठीक है, पर वे भी तो इंसान हैं, जैसे ये पोशाकें इन्हें उपलब्ध करवाते हैं, वैसे ही मौसम के अनुसार कपडे दिए जा सकते हैं !'' 
''अब ये तो भैया जी ही कर सकते हैं, मैं क्या बोलूँ !'' 

#हिन्दी_ब्लागिंग     
कल हरियाणा के रेवाड़ी नगर में एक विवाह समारोह में जाने का अवसर मिला। खुले पार्क में भव्य आयोजन था। तरह-तरह की सजावट, बिजली की चकाचौंध, ढेर सारे स्टॉल, छोटे-बड़े-बच्चे-बुजुर्ग सब के लायक भिन्न-भिन्न तरह के ढेरों भोजन-व्यंजनों की व्यवस्था। पर सब खुले में ! जाहिर है दिसंबर का महीना, रात का समय, बढती ओस की मौजूदगी, हल्की सी बयार उस खुले-खुले वातावरण में सिहरन ला दे रही थी। पर भले ही ठंड ज्यादा थी पर उसके बावजूद घराती-बाराती-मेहमान सभी मौसमानुसार शीतकालीन पोशाकों में प्रकृति के इस रूप का भी भरपूर आनंद ले रहे थे। हल्का-फुल्का खुशनुमा माहौल था। पता ही नहीं चला कब घडी की सूई ग्यारह के आंकड़े को पार कर गयी। हमें दिल्ली वापस भी लौटना था। सो उदर-पूर्ती के लिए निर्दिष्ट जगहों की ओर रुख किया ! इसी रुख को इस ब्लॉग पोस्ट का कारण बनना था !

मैं कुछ ज्यादा ही मिष्टान प्रिय इंसान हूँ। इसलिए जहां लोग मुख्य भोजन के बाद जाते हैं मैं उल्टे तौर पर वहीं से शुरु करता हूँ, भले एक-एक चम्मच ही लूँ। शुरुआत में वहां लोग भी कम ही होते हैं ! जैसा कि आजकल आम चलन है, खाना बड़े-बड़े डोंगों में किसी ताप-प्रदत्त यंत्र पर रखा रहता है और उसके साथ ही आपकी सहायता के लिए कैटरर का कर्मचारी एक आकर्षक वेश भूषा में वहां तैनात रहता है। यहां भी वही दस्तूर था। मैंने वहां जा एक चम्मच गाजर के हलुए की फरमाइश की ! वहां तैनात इंसान ने बड़ी शालीनता से मुझे पेश भी किया, तभी मैंने गौर किया कि उसका हाथ काँप रहा है। जानते हुए भी मेरे मुंह से निकल गया, ''ठंड लग रही है ?" उसने हौले से सिर हिलाया और धीरे से कहा, ''हाँ ! सर, ठंड तो है !''  
खाने से मेरा मन कुछ उचट गया और अब पूरा ध्यान विवाह के उल्लासपूर्ण माहौल से हट वहां खातिरदारी करने में जुटे तीस-चालीस लोगों पर जा अटका ! उनकी पोशाक पर गौर किया तो पाया कि कोट नुमा वस्त्र, सूती है और कइयों ने तो सिर्फ बनियान के ऊपर ही पहन रखा है ! जो इस ठंड में बिल्कुल नाकाफी था, खासकर मैदान में घूम-घूम कर सर्व करने वालों के लिए। पर स्टॉल के पीछे खड़े होने वालों की हालत भी खराब ही थी, तंदूर के पास काम करने वालों को छोड़ कर। उसी समय एक और बात दिखी कि तंदूर के पास के स्टॉल के कर्मचारी कुछ-कुछ देर बाद किसी ना किसी बहाने तंदूर के पास 10-20 सेकेंड के लिए जा खड़े होते हैं,  जितनी भी गर्मी मिल जाए !

यह सब देखने के बाद मैंने कैटरिंग के मालिक की खोज की तो पता चला कि वह घर चला गया है। फ्लोर मैनेजर पर जिम्मेदारी छोड़। मैंने उसी को घेरा, ''इतनी ठंड है पर आपके काम करने वालों के पास उचित कपडे नहीं हैं !'' पहले तो वह चौंका, फिर बोला, ''इनमें ज्यादातर परमानेंट नहीं हैं, काम और जरुरत के अनुसार इन्हें रखा जाता है।'' मैंने कहा, ''वह तो ठीक है, पर वे भी तो इंसान हैं, जैसे ये पोशाकें इन्हें उपलब्ध करवाते हैं, वैसे ही मौसम के अनुसार कपडे दिए जा सकते हैं !'' 
''अब ये तो भैया जी ही कर सकते हैं, मैं क्या बोलूँ !'' 

बहरहाल बात यहीं ख़त्म हो गयी, पर कुछ सवाल जरूर छोड़ गयी कि क्या यह भी शोषण नहीं है ? ऐसे ताम-झाम पर तक़रीबन तीस-पैंतीस लाख यानी एक चौथाई करोड़ से भी ऊपर का बिल थमा दिया जाता है, जिसमें कम से कम पच्चीस-तीस प्रतिशत की बचत तो होती ही होगी ! तो क्या उसमें से सिर्फ दस-पंद्रह हजार अपने लिए ही काम कर रहे लोगों पर खर्च नहीं किए जा सकते ? चलिए उतना बड़ा दिल नहीं है तो कम से कम काम के दौरान जरुरत के अनुसार तो कुछ सुविधा दी ही जा सकती है ! ठंड में ढंग की यूनिफार्म तो उपलब्ध करवाई जा ही सकती है ! इससे अपरोक्ष रूप से संस्था को ही फायदा होगा, जब कर्मचारी मन से काम करेगा। यह ठीक है कि काम के बदले वेतन दिया जाता है ! पर किसी मजबूरीवश उसके उपस्थित ना हो पाने पर किसी और की उपलब्धता भी तो सदैव बनी रहती है ! जब सक्षम हैं तो सामाजिकता, मानवता, इंसानियत पर भी तो कुछ ध्यान दिया जाना चाहिए ! 
इसी उहापोह में था की श्रीमती जी की आवाज से तंद्रा लौटी, ''साढ़े ग्यारह बज गए हैं, कुछ लिया कि नहीं ? वापस नहीं जाना है ? पहुंचते-पहुंचते दो बज जाएंगे''     

6 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज रविवार (16-12-2018) को "समझौता" (चर्चा अंक-3187) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Onkar ने कहा…

sarthak prastuti

Jyoti Dehliwal ने कहा…

बहुत विचारणीय आलेख। सचमुच व्यर्थ में पैसा बहाने की बजाए इस ओर ध्यान देना जरूरी हैं।

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

शास्त्री जी, हार्दिक धन्यवाद

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

ओंकार जी,"कुछ अलग सा" पर सदा स्वागत है

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

ज्योति जी, अक्सर हमारा ध्यान इधर नहीं जाता ¡

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