गुरुवार, 4 फ़रवरी 2016

कोटा में है, विभीषण का मंदिर

जैसे-जैसे इस जगह की ख्याति और जानकारी  बढ़ रही है वैसे - वैसे यहां लोगों के आने - जाने में भी बढ़ोत्तरी होने लगी  है। जिसका असर मंदिर की साज-सज्जा और रख - रखाव को देख साफ़ पता चलता है। पहले की अपेक्षा अब तो बहुत बदलाव हो गया है। पर अभी भी कोटा शहर में भी ऐसे लोग मिल जाएंगे जो इस मंदिर के बारे में अनजान हैं। जो भी हो मंदिर तो है ही और पूजा भी होती ही है........!
                
#हिन्दी_ब्लागिंग

वर्षों बाद फिर एक बार पहले राजस्थान के कोटा शहर जाने का मौका मिला तो कैथून जाने का लोभ संवरण नहीं कर सका । सच कहूँ तो  कोटा जाने का मुख्य उद्देश्य ही  यही था।  शहर से  बीस-पच्चीस  कि.मी.  दूर यह वही  जगह है, जहां विश्वप्रसिद्ध कोटा-डोरिया की साड़ियां बनायी जाती हैं ! यहीं पर है, रावण भ्राता, विभीषण का दुनिया का  इकलौता मंदिर !  यहां  देवता  के रूप में उसकी पूजा की जाती है। यह मंदिर चौथी शताब्दी  का बना  हुआ है।   यहां हर साल मार्च के महीने में  मेले का आयोजन किया जाता है। आश्चर्य की बात है कि इस जगह बारे में स्थानीय लोगों को  भी पूरी जानकारी  नहीं है ! पर धीरे-धीरे, जैसे-जैसे  इसकी ख्याति  और  जानकारी  बढ़  रही  है,  वैसे-वैसे  यहां लोगों  के आने-जाने  में  भी बढ़ोत्तरी होने लगी है !  जिसका असर मंदिर की साज-सज्जा और रख-रखाव को देख साफ़ पता चलता है। पहले की अपेक्षा अब तो बहुत बदलाव हो गया है।  

यह सही है कि राम-रावण समर में विभीषण ने राम का साथ दिया था वैसे भी वह धार्मिक प्रवृति का था। पर था तो राक्षस कुल का ही, ऊपर से  भाई के विरुद्ध जाने के कारण उसे कुलघाती माना जा कर दुनिया भर की बदनामी भी मिलती रही है । फिर भी उसके मंदिर का होना एक आश्चर्य का विषय है। यहां मंदिर बनने की कथा कुछ इस प्रकार है कि जब लंका-विजय के पश्चात श्री राम का राज्याभिषेक होने लगा तो सारे ब्रह्माण्ड से अतिथियों का आगमन हुआ था। कैलाश से शिव जी और लंका से विभीषण भी पधारे थे। समारोह के पश्चात शिव जी ने हनुमान जी से भारत भ्रमण की
मंदिर का पार्श्व भाग 
इच्छा जाहिर की तो विभीषण ने आग्रह किया कि शिव जी और हनुमान जी को कांवड़ में बैठा कर यात्रा करवाने की उनकी कामना को पूरा करने का सुयोग प्रदान किया जाए।भगवान शिव मान तो गए पर उन्होंने एक शर्त रख दी कि यदि यात्रा के दौरान कहीं कांवड़ भूमि से छू गयी तो वहीँ यात्रा का अंत कर दिया जाएगा।  विभीषण ने बात मान ली और एक ऐसी कावंड बनवाई जिसके दोनों छोरों में आठ कोस की दूरी थी। उसी में एक तरफ शिव जी तथा दूसरी तरफ हनुमान जी बैठ गए। पर प्रभुएच्छा से कुछ समय बाद जब ये लोग कैथून, तब की कनकपुरी, पहुंचे तो शिव जी वाला हिस्सा जमीन से छू गया और शर्तानुसार यात्रा वहीँ ख़त्म हो गयी। जिस जगह शिव जी उतरे वह जगह थी चौमा गांव वहीँ उनका मंदिर भी बना। उसी
अंदरुनी भाग 
तरह कोटा के रंगबाड़ी स्थान पर हनुमान जी स्थित हो गए, दोनों जगहों की प्रतिमाएं आज भी अपनी अपूर्व छटा के साथ विद्यमान हैं। इसी तरह इनके बीचोबीच कैथून में, जहां विभीषण जी ठहरे थे, वहाँ उनके मंदिर की स्थापना हो गयी। जहां उनके धड़ के ऊपरी भाग की पूजा की जाती है।

मंदिर के अंदर की छत 
अपने यहां बचपन से ही कथा-कहानियों के सुनने-सुनाने का दौर शुरू हो जाता है और घरवालों की आस्था तथा मान्यताओं के अनुरूप ही हम अपने मन में उन कथाओं के चरित्रों की छवि गढ़ लेते हैं,  जो ता-उम्र वैसी ही बनी रह कर आगे भी उसी रूप में स्थानांतरित होती चली जाती है। ये अलग बात है कि कोई चरित्र किसी के लिए नायक का होता है तो वही किसी और के लिए खलनायक का। इसका कारण स्थान, वहां के लोगों की आस्था, वर्षों से चली आ रही मान्यताएं कुछ भी हो सकता है। पर अभी भी कोटा शहर में भी ऐसे लोग मिल जाएंगे जो इस मंदिर के बारे में अनजान हैं।  जो भी हो मंदिर तो है ही और पूजा भी होती ही है। कभी कोटा जाएं तो इस जगह को जरूर ध्यान में रख घूम कर आएं।     

3 टिप्‍पणियां:

राजीव कुमार झा ने कहा…

रोचक जानकारी.

HARSHVARDHAN ने कहा…

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ब्लॉग बुलेटिन और कमलेश्वर में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

Thank you Harshvardhan ji

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