मंदिर के अंदर जगह इतनी कम और संकरी है कि बमुश्किल दो लोग ही झुक कर अंदर बैठ सकते हैं। वहीँ से कुछ नीचे, पहाड़ी से गिरी हुई छोटी-बड़ी शिलाओं से घिरा, एक ताल है, जिसमें पहाड़ों से आ-आ कर पानी एकत्र होता रहता है। हरे रंग के पारदर्शी पानी में कई लोग नहाने का आनंद ले अपनी थकावट दूर कर लेते हैं। जमीन का ढलाव यहां भी ख़त्म नहीं होता बल्कि घाटी नीचे और नीचे होते हुए घने जंगल में विलीन होती चली जाती है
देव स्थान जितना दुर्गम होता है उसकी प्रमाणिकता उतनी ही बढ़ जाती है। खासकर पहाड़ों के दुर्गम रास्तों के बाद अपने गंतव्य पर जा अपने इष्ट के दर्शन मिलने पर आस्था और विश्वास दोगुना हो जाता है। कष्ट सह कर पहुँचने पर जिस अलौकिक आनंद की अनुभूति मिलती है वह वर्णनातीत होती है। पहाड़ों के अलावा भी हमारे देश में कई ऐसे स्थान हैं, जहां पहुँचना कुछ कष्ट-साध्य ही माना जाएगा। ऐसा ही एक स्थान है, कोटा बूंदी मार्ग
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घाटी के विहंगम दृश्य में दूर नीचे दिखता मंदिर
पर शिव जी का एक मंदिर जिसे स्थानीय लोग बाबा गेपरनाथ के रूप में पूजते हैं। ऐसी मान्यता है कि शिवरात्रि के आस-पास शिव जी अपने पूरे परिवार के साथ कुछ समय यहां गुजारते हैं। इस जगह को करीब पांच सौ साल पुराना बतलाया जाता है। |
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सीढियाँ |
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झरता पानी |
कोटा शहर से करीब
24-25 कि.मी. की दूरी पर एक सड़क दायीं ओर मुड़ती है, जो दो किमी बाद चम्बल की घाटी और उस पर बने प्राकृतिक पहाड़ी संकरे दर्रे पर जा कर ख़त्म होती है। ऊपर से घाटी गहराई
800 से 1000 फिट तक की है। वहीँ से पहाड़ी की एक दिवार से जुडी हुई सीढ़ियों की श्रृंखला नीचे तक चली गयी है। करीब चार सौ सीढ़ियां उतरने के बाद, भूतल से करीब
100 फिट पहले एक चबूतरे पर खोह नुमा जगह पर शिव जी का छोटा सा लिंग स्थापित है जिस पर पहाड़ी के अंदर से लगातार पानी आ कर अभिषेक करता रहता है। जगह इतनी कम और संकरी है कि बमुश्किल दो लोग ही झुक कर अंदर बैठ सकते हैं।
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मंदिर |
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सीढ़ियों से नज़र आता मंदिर |
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शिवलिंग और अभिषेक करती जल-धारा |
वहीँ से कुछ नीचे, पहाड़ी से गिरी हुई छोटी-बड़ी शिलाओं से घिरा, एक ताल है, जिसमें पहाड़ों से आ-आ कर पानी एकत्र होता रहता है। हरे रंग के पारदर्शी पानी में कई लोग नहाने का आनंद ले अपनी थकावट दूर कर लेते हैं ।जमीन का ढलाव यहां भी ख़त्म नहीं होता बल्कि घाटी नीचे और नीचे होते हुए घने जंगल में विलीन होती चली जाती है।
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ताल और दूसरे सिरे पर कंदराएँ |
दर्रे की दूसरी दिवार पर भी कुछ कुटियानुमा कंदराएँ नज़र आती हैं जिनके बारे में बताया जाता है कि पहुंचे हुए साधू-संत वहाँ रह कर अपनी साधना पूरी किया करते थे। देख सुन कर आश्चर्य होता है कि इतने दुर्गम, निर्जन, सुनसान, दुरूह इलाके की खोज कैसे हुई होगी। आज तो दस तरह की सहूलियतें उपलब्ध हैं। नीचे जाने के लिए सीढ़ियों का निर्माण कर दिया गया है।
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पहाड़ी से गिरे शिलाखंड
बिजली तो खैर आज भी नहीं है, पर सैकड़ों साल पहले जब इलाका जनशून्य होता होगा, जंगली जानवरों की बहुतायद होगी, तब कैसे कोई यहां आकर साधना में लीन होता होगा। इस जगह के रात के अँधेरे में की कल्पना ही रोंगटे खड़े कर देने के लिए काफी है।
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वापस चढ़ते समय रुकना तो पड़ता ही है भाई |
वैसे दिन की रौशनी में प्रकृति की अपूर्व छटा साल भर लोगों को लुभा कर प्रभू के दर्शन के अलावा युवाओं को पिकनिक के लिए भी आमंत्रित करती रहती है। पर अभी भी लोगों की आमद ज्यादा नहीं है, बमुश्किल डेढ़-दो सौ लोग ही रोज आते होंगे। फिर भी कभी मौका मिले तो ऐसी अद्भुत जगह के दर्शन करने का सुयोग छोड़ना नहीं चाहिए।
3 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर और रोचक जानकारी..आभार
हर्षवर्द्धन जी,
धन्यवाद
कैलाश जी, स्नेह बना रहे।
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