चीन और हमारे बोल-चाल, रहन-सहन, खान-पान हर चीज में काफी अंतर है। यहां तक कि दोनों देशों के आपसी संबंध भी कुछ मधुर नहीं हैं, इसके बावजूद इस मंदिर ने दोनों समुदायों को जोड़ कर रखा है। दो अलग-अलग संस्कृतियाँ एकजुट हो जैसे यहाँ पूजा-अर्चना करती हैं, वह विश्व में एक मिसाल ही कही जाएगी। इसके निर्माण में टैंगरा के हर चीनी परिवार ने अपना यथाशक्ति सहयोग दिया है
1962 में शम्मी कपूर के दोहरे रोल वाली एक फिल्म आई थी "चाइना टाउन"। जिसमें कलकत्ते के एक कोने में आज भी स्थित चीनी बहुल आबादी वाले एक ऐसे बदनाम इलाके का चित्रण था, जहां अपराध और अपराधियों के इस स्वर्ग में किसी की तलाश में जाने के पहले पुलिस को कई बार सोचना पड़ता था। चाहे मादक द्रव्यों की उपलब्धता की बात हो या खून-खराबे, गुंडा-गर्दी की बात हो या लूट-मार की, स्मगलिंग की वारदात हो या गैर कानूनी हथियारों की, ग़ढ हुआ करती थी यह जगह हर इस तरह के जयाराम पेशों और गैर-कानूनी कामों की। 1837 के आस-पास से इसकी बसाहट का इतिहास मिलता है। सत्तर के दशक में इसका पराभव होना शुरू हो गया था। उस समय कलकत्ते में चीनी जूतों और चीनी दंत चिकित्सकों की भरमार हुआ करती थी, हालांकि कुछ लोग बढ़ई-गिरी के काम में भी संलग्न थे, जो इनकी पहचान बन गयी थी।
कलकत्ते के, अंग्रजों के समय में, देश की राजधानी होने के कारण कई विदेशी लोगों का वहाँ आना-जाना लगा रहता था और इसी कारण उनके अलग-अलग मोहल्ले भी बन गए थे। वैसा ही एक इलाका "धापा" था जिसको बोल-चाल में चायना टाउन भी कहा जाता था। यहां लगभग 95 प्रतिशत आबादी चीनियों की होने के कारण उसका ऐसा नाम पड़ा था।इसके दो हिस्से हुआ करते थे, पुराने वाला हिस्सा टीरेट्टा या टीरेट्टी बाजार और नया हिस्सा टैंगरा कहलाता था। पर जैसे अन्य समुदायों के लोग स्थानीय लोगों से घुल-मिल गए थे वैसा चीनी बिरादरी नहीं कर पायी थी। धापा में इनके चमड़ा शोधन के कारखाने थे, जो कलकत्ते में खासकर धर्मतल्ला के पास स्थित जूतों-चप्पलों और चमड़े की सैकड़ों दुकानों को उनकी जरुरत का सामान उपलब्ध करवाते थे। पर जैसे कि हर जाति, समुदाय या देशवासियों में कुछ लोग मिलनसार, एक-दूसरे के सुख-दुःख में प्रतिभागी होने की प्रकृति वाले होते हैं, वैसे ही कुछ लोग टैंगरा में भी थे। उनके स्थानीय लोगों के साथ भाईचारे, मित्रता और सौहाद्र का प्रतीक, काली माता का मंदिर आज भी वहाँ गवाह के रूप में मौजूद है।
कलकत्ता, आज के कोलकाता, में एक अलग तरह का काली माता का मंदिर, जिसे "चायनीज काली मंदिर" (ऐसा ही मंदिर के नाम-पट्ट पर लिखा हुआ है) के नाम से जाना जाता है, लोगों के आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। काली पूजा के दिन हिन्दुओं से ज्यादा यहां चीनी भक्तों की भीड़ होती है। यहां के लोगों के अनुसार यह मंदिर करीब साठ साल पुराना है। उस समय एक पेड़ के नीचे एक काले पत्थर के पिंड पर सिंदूर-फूल चढ़ा कर पूजा-अर्चना की जाती थी। चीनी समुदाय की इस मंदिर और काली माँ में आस्था तब हुई जब चीनी परिवार का एक बच्चा गंभीर रूप से बीमार पड़ गया। डाक्टरों ने जवाब दे दिया था। बचने की कोई सूरत नजर नहीं आ रही थी। हताश-निराश माँ-बाप ने बच्चे को उसी पेड़ के नीचे लिटा कर काली माँ से उसके प्राणों को बचाने की प्रार्थना की। दिल की गहराइयों से की गयी करुण याचना के फलस्वरूप बच्चा स्वस्थ हो गया और लोगों की माँ में अटूट श्रद्धा हो गयी। तब से वहाँ रहने वाले चीनी लोग भी, जिनमें ज्यादातर बौद्ध और क्रिश्चियन थे, यहाँ पूजा-अर्चना करने लग गए।
समय के साथ-साथ यहां मंदिर का निर्माण हुआ। आज का स्वरूप करीब बारह वर्ष पूर्व का है। इसमें पुरानी पीडिंयों के साथ ही माँ काली की प्रतिमा की स्थापना की गयी है। टैंगरा के हर चीनी परिवार ने इसके निर्माण में अपना यथाशक्ति सहयोग दिया है। माँ की पूजा हिन्दू रीती-रिवाज से ही होती है। पर उसमें अपनी भक्ति से वशीभूत कुछ लोग श्रद्धावश अपनी तरफ से चीनी प्रथाओं को भी जोड़ देते हैं। जैसे बड़ी मोमबत्तियां तथा सुंगधित द्रव्य जलाना, आकाश में कैंडिल या आकाश-दीप छोड़ना आदि। पर इस मंदिर की सबसे बड़ी खासियत और अनोखी बात यहां चढने वाले प्रसाद में है, जिसमें नूडल्स, चॉप्सी, चावल, हरी सब्जियों जैसे पदार्थ भी शामिल रहते हैं।
चीन और हमारे बोल-चाल, रहन-सहन, खान-पान हर चीज में काफी अंतर है। यहां तक कि दोनों देशों के आपसी संबंध भी कुछ मधुर नहीं हैं, इसके बावजूद इस मंदिर ने दोनों समुदायों को जोड़ कर रखा है। दो अलग-अलग संस्कृतियाँ एकजुट हो जैसे यहाँ पूजा-अर्चना करती हैं, वह विश्व में एक मिसाल ही कही जाएगी। भले ही साल के अन्य दिनों में यहां के लोग एक-दूसरे से उतना नहीं मिल पाते हों पर काली पूजा के दिन सुबह से ही दोनों समुदायों के लोग यहां एकत्रित होना शुरू हो जाते हैं। वहाँ हरेक को कुछ ना कुछ जिम्मेदारी सौंप दी जाती है जिसे वह पूरी श्रद्धा भाव से पूरा करता है। वैसे भी मंदिर के सामने से गुजरने वाले चीनी स्त्री-पुरुषों का वहाँ रुक अपने जूते वगैरह उतार देवी माँ के सामने हाथ जोड़ना एक आम बात है। रोजाना की पूजा-आरती का जिम्मा एक बंगाली ब्राह्मण पंडित जी के जिम्मे है। जब की पूरी देखभाल की जिम्मेदारी ईशोन चेन नाम के समर्पित चीनी सज्जन पर है। जो वर्षों से श्रद्धापूर्वक, पूरी आस्था और विश्वास के साथ बिना किसी भेद-भाव के अपना फर्ज निभाते आ रहे हैं। ऐसे ही लोगों के कारण कभी बदनाम रहा धापा आज अपनी एक नई पहचान बनाने में सफल रहा है।
5 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (28-02-2016) को "प्रवर बन्धु नमस्ते! बनाओ मन को कोमल" (चर्चा अंक-2266) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सार्थक व प्रशंसनीय रचना...
मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका स्वागत है।
बहुत प्राशंस्नीय पोस्ट .
बहुत ही सुंदर और अच्छी जानकारी प्रदान करती हुई रचना की प्रस्तुति।
बहुत ही सुंदर और अच्छी जानकारी प्रदान करती हुई रचना की प्रस्तुति।
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