देबू उस दिन मूड में था, उसने बताया कि उसकी कहीं पहुँच वगैरह नहीं हैं। वह तो पंद्रह-बीस छात्रों से पैसा लेकर कहीं घूमने निकल जाता है। उन पंद्रह-बीस में से आधे से ज्यादा तो जैसे-तैसे खुद ही पास हो जाते हैं, उन पर अपना रुआब जता उनके पैसे रख लेता हूँ और जो बिल्कुल ही निक्खद्ध होते हैं उन पर एहसान जता उनके पैसे वापस कर देता हूँ।
बचपन या युवावस्था के कुछ लोग ता-उम्र याद रहते हैं। मुझे भी ऐसे दो बंदे कभी नहीं भूलते। हालांकि वे मेरे कोई जिगरी दोस्त नहीं थे पर उनकी लियाकत ने उनको कभी भूलने नहीं दिया। उनमें से एक गुजराती था, कल्पेश पटेल तथा दूसरा बंगाली, देव बनर्जी, जिसे सब देबू कह कर बुलाते थे। अलग समाज, अलग परिवेश, अलग संस्कृति में पले-बढे पर एक बात समान थी दोनों में, वह थी व्यवसायिक बुद्धि। ऐसा माना जाता है कि गुजराती भाईयों में व्यवसायिक अक्ल जन्मजात होती है पर देबू तो एक ऐसे समाज से था जहां के लोग नौकरी को सदा तरजीह देते आए हैं। एक बात और दोनों में समान थी, उनकी शारीरिक बनावट, दोनों सींकिया पहलवान थे। शरीर से कमजोर पर दिमाग के धनी। कल्पेश के और मेरे बाबूजी एक ही जगह काम करते थे। हम दोनों बचपन में साथ ही पले-बढे। देबू से कॉलेज में क्रिकेट टीम में साथ होने की वजह से जान-पहचान हुई।
पहले बात कल्पेश की, उच्च-मध्यम वर्गीय परिवार का युवावस्था में कदम रखता लड़का। उसने करीब चालीस साल पहले कल्पना कर ली थी कि यदि किसी "हेयर कटिंग सेलून" को वातानुकूलित बना दिया जाए तो बंगाल की तकलीफदेह उमस से राहत दिलाने के कारण उसकी आमदनी में दस गुना वृद्धि हो सकती है। हम सब ने इस बात को सिर्फ कपोल-कल्पना समझ हंसी में उड़ा दिया था। यह बात तब की है जब ए.सी. युक्त होना बहुत बड़ी बात मानी जाती थी। उस समय कलकत्ता में गिने-चुने सिनेमाघर या बहुत बड़ी कंपनियों के ऑफिस ही इस नियामत से लैस हुआ करते थे। आज जब दो कुर्सी वाली हज्जाम की दुकान को भी वातानुकूलित देखता हूँ तो कल्पेश को सलाम करने की इच्छा होती है। वैसे आज वह गुजरात में एक सफल व्यावसायिक के रूप में जाना जाता है।
रही बात देबू की। उसकी बुद्धि में थोड़ी ठगी का तड़का लगा हुआ था। आज की तरह ही उस समय भी अक्ल के अधूरे गाँठ के पूरे छात्रों की स्कूल-कालेजों में कमी नहीं हुआ करती थी। ऐसे ही बकरे, निम्न मध्यम वर्गीय देबू की जिंदगी की गाडी को खींचने में परोक्ष रूप से उसके सहायक हुआ करते थे। उसने दबे-छिपे और कुछ-कुछ पोशीदाई का मुल्लमा चढ़ा, अपने चमचों द्वारा कॉलेज में यह बात फैला रखी थी कि युनिवर्सिटी में उसकी बहुत ऊंची पहुँच है और वह किसी को भी पास करवा सकता है चाहे पेपर कितना भी खराब हुआ हो। उस जमाने में पांच सौ रुपये एक अच्छी-खासी रकम हुआ करती थी जिसे वह प्रति छात्र लिया करता था। उसका दावा था कि यदि किसी कारण से कोई छात्र पास नहीं होता है तो उसकी पूरी रकम वापस कर दी जाएगी और अपने वादे से कभी न टलने के कारण उसकी दुकानदारी कभी भी मंदी नहीं पड़ती थी।
खेलों के दौरान जब उससे कुछ आत्मीयता बढ़ी तो मैंने एक दिन उसकी सफलता का राज पूछ ही लिया। उसने जो बताया उसे जान मैं तो भौंचक्का सा उसे देखता ही रह गया ! देबू उस दिन मूड में था, किसी और को ना बताने की शर्त पर उसने बताया कि उसकी कहीं पहुँच वगैरह नहीं हैं। वह तो पंद्रह-बीस छात्रों से पैसा लेकर कहीं घूमने निकल जाता है। उन पंद्रह-बीस में से आधे से ज्यादा तो जैसे-तैसे खुद ही पास हो जाते हैं, उन पर अपना रुआब जता उनके पैसे रख लेता हूँ और जो बिल्कुल ही निक्खद्ध होते हैं उन पर एहसान जता उनके पैसे वापस कर देता हूँ। साफ-सुथरा काम। ना कोई झमेला ना किसी तरह की सिरदर्दी।
सोचता हूँ आजकल के तथाकथित बाबा लोग धर्म, जादू-टोने की आड़ में तरह-तरह के प्रपंच रच लोगों को बेवकूफ बनाने की जो नौटंकी कर रहे हैं वह तो वर्षों पहले की देबू के दिमाग की खेती है ! पता नहीं आज वह कहाँ होगा पर जहां भी होगा उसका धंदा, मंदा नहीं पड़ा होगा।
2 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (22-08-2015) को "बौखलाने से कुछ नहीं होता है" (चर्चा अंक-2075) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
ये बढिया है..........बिल्कुल बाबाओं वाला कार्य
सबको लडका होने की द्वाई देने वाले बाबा और हर बीमारी से निजात दिलाने वाला बाबाओं का भी यही फंडा होता है...बस उन्हें किसी के पैसे वापिस नहीं करने पडते
प्रणाम
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