महानगरों में बेतहाशा बढ़ते वाहनों को रखने-खड़ा करने की समस्या ने सर उठाना ही था लोगों ने अपनी सहूलियत या कहिए मजबूरीवश उद्यानों में भी गाड़ियां खड़ी करनी शुरू कर दीं हैं । जो थोड़ी-बहुत जगह बाकी परिवेश से कुछ साफ थी वह भी अपनी अंतिम सांसे गिनने पर मजबूर हो गयी। देश की दूसरी समस्याओं की तरह इसमें भी शायद न्यायालय को ही हस्तक्षेप करना होगा नहीं तो आने वाले समय की भयावह तस्वीर अभी से डराने लगने लगी है।
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कहावत है कि आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है। पर धीरे-धीरे इंसान की आवश्यकताएं सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती ही चली गयीं और उसके अनुसार आविष्कार की परिभाषा भी बदल कर सहूलियत हो गयी। इसी सहूलियत के चलते बढ़ती आबादी के दवाब में इंसानों के रहने की जगह बनाने के लिए जंगलों की बली चढ़ी। अब कहने को तो यह पर्यावरण को क्षति पहुंचाने वाला कदम था पर मजबूरी भी तो थी, जगह ना हो तो इंसान रहे कहां ? सो जंगल कटे, आदमी बसे, पर अन्य जीव-जंतु बेघर हो गए। फिर आवश्यकता की भूख जंगल की आग बन गयी, इंसान तथाकथित उन्नति करता गया, उसकी सुख-सुविधा की सामग्रियाँ जुटती चली गयीं, प्रकृति का दोहन होता गया। उसके दुष्परिणाम भी सामने आते गए। ऐसा नहीं था कि इस ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया कुछ जागरूक लोगों ने सांमजस्य बनाने की कोशिश कभी नहीं छोड़ी। हरियाली बढ़ाने की चेष्टाओं के तहत पेड़-पौधे लगाने तथा घने रिहाइशी इलाकों में पार्क-उद्यान बनाने और उनकी साज-संभाल-देख-रेख की परिक्रिया भी जारी रही पर बेतहाशा बढ़ती आबादी, ख़ास कर महानगरों की, के सामने ये सारे उपकम नगण्य साबित होते रहे ।
सुख-सुविधा के लिए जुटाए गए उपकरण मुसीबतों का पहाड़ भी साथ ले आए। हालात फिर बेकाबू होने की कगार पर हैं।
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सुख-सुविधा के लिए जुटाए गए उपकरण मुसीबतों का पहाड़ भी साथ ले आए। हालात फिर बेकाबू होने की कगार पर हैं।
वातानुकूलन यंत्रों ने वातावरण को ही दूषित बना डाला है। कही आने-जाने में समय की बचत के लिए ली गयी
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गाड़ियों ने सडकों पर ऐसा कोहराम मचाया कि चलते रहने की बजाए एक ही जगह घंटों खड़े रह जाना पड़ने लगा। फिर धीरे-धीरे इन वाहनों को रखने-खड़ा करने की समस्या ने सर उठाया और फिर इस आवश्यकता ने वर्षों की मेहनत से बने उद्यानों की ऐसी की तैसी तब कर डाली जब लोगों ने अपनी सहूलियत या कहिए मजबूरीवश वहां भी गाड़ियां खड़ी करनी शुरू कर दीं। जो थोड़ी-बहुत जगह सारे परिवेश से कुछ साफ थी वह भी अपनी अंतिम सांसे गिनने पर मजबूर हो गयी। पर बात वही है कि जान-बूझ कर नहीं मजबूरी-वश यह सब करना पड़ रहा है। जब सरकार ने वर्षों पहले ऐसे मकानों की योजना बनाई थी तब तो आम इंसान के पास सायकिल होना ही बहुत बड़ी बात थी। तब 25-40 गज की बसाहट में कार कल्पना से भी परे थी। अब वहीं एक-एक घर में दो-दो गाड़ियां हैं। इसी हिसाब और इतनी आसानी से यदि सरकारें और कंपनियां चौपहिए उपलब्ध करवाती रहीं तो शायद देश की दूसरी समस्याओं की तरह इसमें भी न्यायालय को ही कोई ठोस कदम उठाना होगा नहीं तो आने वाले समय की भयावह तस्वीर अभी से डरावनी लगने लग रही है।
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4 टिप्पणियां:
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ब्लॉग बुलेटिन - ऋषिकेश मुखर्जी और मुकेश में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
चार कदम पार्क तक पैदल जाएँ तो शान में बट्टा लग जाएगा इसलिए कार से जाते हैं। .
कविता जी, ये घूमने आने वालों की नहीं उन लोगों की हैं जिनके पास गाडी तो है पर खड़ी करने की जगह नहीं है। सडकों, गलियों मैं जगह न मिलने पर अब लोगों ने पार्कों की खाली जगह को इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है।
बेहतरीन ,
कभी इधर भी पधारें
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