सही मानिए, जिस दिन इस "कब" का उत्तर मिल जाएगा, उस दिन से कोई आपदा, विपदा, त्रासदी प्रलयंकारी हो कर हमें इतना नहीं सताएगी. क्योंकि तब प्रकृति का दोस्ताना हाथ हमारे साथ होगा.
उत्तराखंड हादसे के भी कई रूप हैं। वहाँ रहने वालों के लिए यह महाविनाश का रूप था, जिसमे उनका घर-द्वार, रोजी-रोटी सब छीन गये. वहाँ गए तीर्थ यात्रियों के लिए भयंकर प्रकोप था, जिसके कारण उन्हें शारीरिक, आर्थिक कष्टों के साथ-साथ अपने प्रिय जनों से बिछुड़ने का गम जीवन भर सालता रहेगा. प्रकृति की यह विनाश लीला थी, जिसने जीव-जड़ सबका संतुलन बिगाड़ कर रख दिया।
उत्तराखंड हादसे के भी कई रूप हैं। वहाँ रहने वालों के लिए यह महाविनाश का रूप था, जिसमे उनका घर-द्वार, रोजी-रोटी सब छीन गये. वहाँ गए तीर्थ यात्रियों के लिए भयंकर प्रकोप था, जिसके कारण उन्हें शारीरिक, आर्थिक कष्टों के साथ-साथ अपने प्रिय जनों से बिछुड़ने का गम जीवन भर सालता रहेगा. प्रकृति की यह विनाश लीला थी, जिसने जीव-जड़ सबका संतुलन बिगाड़ कर रख दिया।
पैसों के साथ पकडे गए कथित साधू |
बहुतेरे लोगों के लिए यह विपदा पैसा बनाने का जरिया भी बन गयी, जिसमे कुछ लोग अमानुषिकता की हदें भी पार कर गये. कुछ मतलब परस्त नेताओं की मौकापरस्ती भी इससे उजागर हो उनकी हकीकत बयान कर गयी. पर इसके साथ ही लोगों को मिसाल भी देखने को मिली जब कुछ "बाहर वालों" ने बिना किसी हिचक, या लालच के अपने आस-पास के क्षेत्र को साफ करने की ठान ली. पर दुःख यही है की उनके इस काम से भी किसी ने सबक लेने की जहमत नहीं उठाई।
इस हादसे का कारण देखा जाए तो प्रकृति जनक कम, इंसान द्वारा निर्मित ज्यादा था. मानव के पैर जहां भी पड़े वहीं उसने उस जगह को मलबा घर बना डाला. फिर वह चाहे हिमालय हो या फिर सुदूर स्थित च्न्द्र्मा. चाहे सागर की गहराईयाँ हों या फिर रेगिस्तान. ऐसे ही जानते-बुझते, पैसों के लालच में पहाड़ों में जगह-जगह वैध-अवैध निर्माण, खनन, वृक्षों की कटाई ने प्रकृति को दोस्त की जगह दुश्मन बना दिया। इसी लिए वर्षों से छिट-पुट हादसों द्वारा अपनी नाराजगी को नजरंदाज करने वालों को आखिर कायनात ने एक करारा झटका में और नहीं की. पर लगता नहीं कि हमने अभी भी कोई सबक सीखने की कोशीश की है.
सालों-साल से हमारी आदत रही है योरोप या पश्चिम को बुरा कहने की और नीचा साबित करने की। उनकी बुराईयाँ सदा हमें आकृष्ट करती रहीं, पर हमने उनकी अच्छाईयों को सदा नकारा और नजरंदाज किया है. इस हादसे से बचे लोगों के किसी भी कैंप-शिविर-पनाहगाह को लें, जगह-जगह खाली प्लास्टिक के ग्लास, कागज़ की प्लेटें, खाली रैपर, कार्टंस बिखरे दिख जाएंगे, एक जगह इकट्ठा कर डालने की व्यवस्था होने के बावजूद. हमें इसकी आदत पड़ी हुई है. पर कुछ लोग हैं जिन्हे ऐसी बेतरतीबी रास नहीं आती. ऐसे ही एक जर्मन माँ-बेटे को
ऋषिकेश के बस अड्डे पर लोगों ने वहाँ बिखरी पड़ी, गंदगी फैला रही चीजों को हटा कर कूड़ेदान में डालते देखा। रैमो नाम के बालक की उम्र मात्र नौ साल की है और सफाई की पहल भी उसी ने अपनी माँ से पूछ कर की. दिन-रात काम में लगे सफाई कर्मियों ने उसे हाथ के ग्लव्स जरूर दिए पर वहाँ बैठे लोगों ने न कोई सहायता ही की नहीं गंदगी कम करने की कोशिश. ऐसा ही एक उदाहरण है ब्रिटेन की Jodie Underhill जो देहरादून में Garbage Girl के नाम से जानी जाने लगी है, बिना किसी लालच के, वर्षों से जुटी हुई है सफाई अभियान मे. उसे तो अब स्थानीय लोगों की सहायता भी मिलने लग गयी है. एक तरफ हम हैं जो आज कुछ न कर सिर्फ दुहाई देते हैं अपने अतीत की। गर्व करते हैं किसी जमाने के अपने जगद गुरु होने का। गर्व करते हैं अपनी पुरानी गौरव-संपदा का. दूसरी तरफ हैं ऐसे कुछ लोग जो बातों में नहीं कर्म में विश्वास करते है.
Jodie Underhill |
पर हम कब लाएंगे अपनी आदतों में सुधार. कब मूंगफली खा रेल के डिब्बे में छिलके ड़ालना बंद करेंगे? कब बसों-कारों से खाली पानी की बोतलें या रद्दी कागज़ बाहर उछालना छोड़ेंगे? कब अपना घर साफ कर अपने घर का कूडा दूसरे के दरवाजे के सामने सरकाना बंद करेंगे? कब अपने टामी-टमियाइन की गंदगी से सडकों-गलियों को निजात दिलवाएंगे ? कब? कब?
सही मानिए, जिस दिन इस कब का उत्तर मिल जाएगा, उस दिन से कोई आपदा, विपदा, त्रासदी प्रलयंकारी हो कर हमें इतना नहीं सताएगी. फिर यदि हमने अपना वजूद बचाना है तो कायनात का हाथ थामना ही पडेगा.
6 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा आज शनिवार (29-06-2013) को कड़वा सच ...देख नहीं सकता...सुखद अहसास ! में "मयंक का कोना" पर भी है!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सॉरी... लिंक गलत हो गया था!
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा आज शनिवार (29-06-2013) को कड़वा सच ...देख नहीं सकता...सुखद अहसास ! में "मयंक का कोना" पर भी है!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
काश, सब मन के कलुष से बाहर आ जायें।
सत्य सटीक-
आभार-
गर्व करते हैं किसी जमाने के अपने जगद गुरु होने का। गर्व करते हैं अपनी पुरानी गौरव-संपदा का. दूसरी तरफ हैं ऐसे कुछ लोग जो बातों में नहीं कर्म में विश्वास करते है. ...कटु सत्य ....अब तो लगता है बातों और भाषण बाजी में दुनिया में हमारा कोई सानी नहीं होगा .....
...बहुत प्रेरक जागरूक प्रस्तुति ...
साधू के वेश में शैतान,और कूड़ा चुनने वाले के वेश में भगवान
तीर्थ बने गए लूट मार चोरी के स्थल ,क्या रखा ऐसे तीर्थ में,जहाँ मानव मानवता को न जाने,इस से अच्छा अपना ही घर,वही बैठ करें नेक काम,उच्च विचार से ईश्वर यहाँ भी प्रसन्न हो जाता, वह कब कहता सब छोड़ कर,मुझे मनाने तीर्थ आओ, परेशान हो कर धक्के खाओ.
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