ऐसा लगता है जैसे धर्माधिकारियों में आपस में अलिखित समझौता हो गया हो कि अपने-अपने हिस्से में आए प्रभुओं की देख-रेख, रख-रखाव, हानि-लाभ सब अपने-अपने हिसाब से करेंगे। उत्तर के देव के काम में दक्षिण के प्रभू कुछ नहीं बोलेंगे। मध्य के देव, पूर्व की देवियों के मामले में चुप रहेंगे। पश्चिम वाले खुद अपना मामला निपटायेंगे !!!
उत्तराखंड की आपदा ने अनेक कटु सत्यों को उजागर कर दिया है। जैसे रिसते घाव पर से पट्टी हटा, सेना के जवानों के अथक परिश्रम के बावजूद मवाद बह निकला हो। हमारी बेवकूफियां, मतलबपरस्ती, ह्रदयहीनता, धन-लोलूपता, दो मुंही चरित्रता, लंपटता, मौकापरस्ती यह सब, छोटी-मोटी मानवीय सद्भावनाओं और कोशिशों के बावजूद, दुनिया के सामने उजागर हो गयी हैं।
हमने अभी तक अपने-आप को ही बांट रखा था, दिशा के हिसाब से, भूगोल के हिसाब से, धर्म के हिसाब से, जाति और हैसियत के हिसाब से। पर अब तो इस त्रासदी से लगता है कि हमने अपने-अपने भगवानों को भी बांट लिया है। जैसे छोटे-छोटे क्षेत्रों की हमने अपनी सुविधानुसार पार्टियां बना देश की ऐसी की तैसी कर दी है, वैसे ही अलग-अलग भगवानों को अलग-अलग क्षेत्रों तक सिमित कर छोड़ा है. अब तो ऐसा एहसास हो रहा है कि आज इंसान भगवान के वश में नहीं, भगवान इंसान के वश में हो गया है। हमने उसके पूजा-पाठ, दर्शन, अर्चना सब का समय निर्धारित कर दिया है। जब चाहे उसे उठाते हैं, जब चाहे सुलाते हैं और जब इच्छा हो ताले में बंद कर रुख्सत हो लेते हैं। उसके नाम का दुर्पयोग कर अथाह धन-राशि एकत्रित करते रहते हैं और उसे अपनी बपौती मान उसका उपयोग सिर्फ अपना भविष्य संवारने और अपने मन-मुताबिक खर्च करने में जुटे रहते हैं।
हमारे धर्म प्रधान देश में धर्म-भीरुता के चलते छोटे-बडे लाखों धर्म स्थल जगह-कुजगह मिल जाएंगे। उनमें से हजारों ऐसे हैं जिनकी साल भर की आमदनी से देश का भविष्य सुधर जाए। और कुछ तो ऐसे हैं जिनकी संपत्ति का कोई पार नहीं है, वे साक्षात कुबेर का निवास स्थान हैं। ठीक है उससे किसी को कोई गुरेज या परेशानी नहीं है, होनी भी नहीं चाहिए, सब आस्था का खेल है। पर विडंबना यह है कि ऐसी भयंकर विपदा के समय, जब देश के हर कोने और हर समुदाय से सहायता की पेशकश की जा रही है तो ये धर्मस्थान चुप्पी साधे बैठे हैं। अपने-अपने स्वार्थों और हितों के चलते हमने सर्वोच्च सत्ता का भी शायद बंटवारा कर दिया है। ऐसा लगता है कि जैसे आपस में अलिखित समझौता हो गया हो कि अपने-अपने हिस्से में आए प्रभुओं की देख-रेख, रख-रखाव, हानि-लाभ सब अपने-अपने हिसाब से करेंगे। उत्तर के देव के काम में दक्षिण के प्रभू कुछ नहीं बोलेंगे। मध्य के देव, पूर्व की देवियों के मामले में चुप रहेंगे। पश्चिम वाले खुद अपना मामला निपटायेंगे।
भगवान ना करे ऐसा हो, पर क्या कारण है कि दुर्घटना के इतने दिनों बाद भी हर तरह से सक्षम इन देव स्थलों से किसी तरह की भी राहत की पेशकश नहीं की गयी। क्यों कोई सुगबुगाहट अभी तक सुनाई नहीं पड रही?
6 टिप्पणियां:
satik prashn
अधिकारों पर कब्जा है, उत्तरदायित्व में ढीलापन..
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल सोमवार (07-07-2013) को <a href="http://charchamanch.blogspot.in/“ मँहगाई की बीन पे , नाच रहे हैं साँप” (चर्चा मंच-अंकः1299) <a href=" पर भी होगी!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
मैं भी कितना भुलक्कड़ हो गया हूँ। नहीं जानता, काम का बोझ है या उम्र का दबाव!
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पूर्व के कमेंट में सुधार!
आपकी इस पोस्ट का लिंक आज रविवार (7-7-2013) को चर्चा मंच पर है।
सूचनार्थ...!
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मयंक जी, :-)
आभार।
शीर्षक दिचास्प है लेकिन विषय महा गंभीर. विष्णु को पैसे वालों का भगवान् बना दिया गया है और शिव को सर्वहारा का. त्रासदी के दस दिनों में ही उत्तर भारतीयों का तिरुपति में चढ़ावा राहत के लिए पर्याप्त होता.
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