शुक्रवार, 14 जून 2013

"तार" का बेतार होना, यानी एक युग का अंत

जहां पत्र या चिट्ठी के मिलने से एक खुशी और आनंद की अनुभूति होती थी वहीं तार वाले की आवाज सुन 95 प्रतिशत लोग किसी आशंका से ग्रसित हो जाते थे, क्योंकि तार ज्यादातर शोक संदेश ही लाती है, ऐसा विश्वास लोगों के मन में घर कर गया था.  इस "सिचुएशन" का फिल्मों में कई बार हास्य के रूप में भी चित्रण किया जा चुका है, जब तार आने पर उसे पढ़े बिना ही  घर में रोना-पिटना शुरू हो जाता है जबकि तार किसी खुशखबरी को  ही लाया होता है.

आने वाली 15 जुलाई से संचार प्रणाली के एक यांत्रिक माध्यम का नाम इतिहास में दर्ज होने जा रहा है. इंटरनेट, स्मार्ट फोन, एस एम् एस, फैक्स, ई-मेल के जमाने के सामने पुरानी और मंहगी पड़ती "टेलीग्राम" सेवा, जो "तार" के नाम से प्रसिद्ध थी, को बंद करने का फैसला लिया जा चुका है.

टेलीग्राफिक यंत्र 
वैसे तो यह प्रणाली सत्रहवीं सदी से ही सेमाफोर लाइन के  रूप में मौजूद थी पर डेढ़-पौने दो सौ साल पहले सेमुअल मोर्स की "डैश-डॉट" प्रणाली, जिसे मोर्स कोड के नाम से जाना जाता रहा है, के द्वारा संचार जगत में क्रांति ला दी गयी थी.  इससे विशेष संकेतों के जरिये सूचनाएं कभी भी और कहीं भी तुरंत भेजी जा सकती थीं।

मोर्स द्वारा 1844 में वाशिंगटन से बाल्टीमोर  भेजे गए अपने पहले संदेश "what hath God wrought?" के करीब 6 साल बाद ही भारत में इसकी शुरुआत 1850 में हो गयी थी, जब कलकत्ता से डायमंड हार्बर तक तारें बिछाई गयीं थीं, जिन्होंने अगले तीन साल के अन्दर ही करीब 4000 मील की जगह को घेरते हुए तकरीबन सभी प्रमुख शहरों को अपने जाल में लपेट लिया था. जिसका सबसे बड़ा फ़ायदा अंग्रेजों को सन 1857 की लड़ाई में समाचारों को पाने और पहुंचाने में मिला.  वहीं आजादी के तुरंत बाद तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू द्वारा इंग्लैण्ड के प्रधान मंत्री क्लेमेंट एटली को पाकिस्तान द्वारा काश्मीर में घुसपैठ करने पर एक 230 शब्दों का संदेश भी इसी माध्यम से भेजा गया था.      

इलेक्ट्रोमैग्नेटिक सर्किट 
शुरू से ही कुछ शब्दों और छोटे वाक्यों को लाने ले जाने वाले टेलीग्राम या तार का उपयोग बहुत ही जरूरी खबरों या संदेशों के लिए किया जाता रहा था. खुशी, गमी, सफलता, पहुंचने, त्योहारों, जन्मदिन  इत्यादि जैसी खबरों को बताने के लिए जनता की सहूलियत के लिए टेलीग्राफ विभाग ने, ऐसे लोगों के लिए जो लिखना न चाहते हों,  के लिए छोटे-छोटे 44 संदेशों का चार्ट उपलब्ध करवाया हुआ था. पर यह भी सच है कि जहां पत्र या चिट्ठी के मिलने से एक खुशी और आनंद की अनुभूति होती थी वहीं तार वाले की आवाज सुन 95 प्रतिशत लोग किसी आशंका से ग्रसित हो जाते थे, क्योंकि तार ज्यादातर शोक संदेश ही लाती है, ऐसा विश्वास लोगों के मन में घर कर गया था.  इस "सिचुएशन" का फिल्मों में कई बार हास्य के रूप में भी चित्रण किया जा चुका है, जब तार आने पर उसे पढ़े बिना ही  घर में रोना-पिटना शुरू हो जाता है जबकि तार किसी खुशखबरी को लाया होता है.

 पर अब तक अपने समय के संचार के सबसे आवश्यक और तेज माध्यम को आधुनिक युग से तारतम्य न बैठा सकने के कारण मैदान छोड़ना पड़ रहा है.  ऐसा नहीं है की इसे बचाने के प्रयास नहीं किए गए, 2006 में इसे "अपग्रेड" करने के बावजूद यह "नेट-सेवी" लोगों को आकर्षित नहीं कर पाई. बढ़ते घाटे की भरपाई के कारण  करीब 80 साल बाद 2011 में इसकी दरों में वृद्धि की गयी और 50 शब्दों के लिए, लिए जाने वाले 3 रुपयों की जगह दरें 27 रुपये कर दी गयीं, पर इस आक्सीजन से भी इसमे प्राण नहीं फूंके जा सके और अंत में संचार क्रान्ति के इस अजूबे पितामह को अजायबघर का सदस्य बनाने का निर्णय ले लिया गया.
     

3 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

एक युग का अन्त..

ब्लॉग बुलेटिन ने कहा…

आज की ब्लॉग बुलेटिन तार आया है... ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

हार्दिक आभार

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