सच तो यह है कि आज भीड का जुटना किसी भी पार्टी की सफ़लता का आईना नहीं रह गया है।
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भीड़ या समर्थक |
कुछ दिनों पहले हुई 'शफलिंग' के बाद रविवार चार नवम्बर को दिल्ली के रामलीला मैदान से कांग्रेस ने अपनी लीला दिखाते हुए एक रैली निकाली जिसे महारैली का नाम दिया गया। इसका कुछ और असर हुआ हो या ना हुआ हो पर एक बात या उपलब्धि जरूर नज़र आई और वह थी एक लम्बे अरसे बाद प्रधानमंत्री, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और महासचिव राहुल गांधी तीनों ने एक ही मंच से विपक्ष पर आक्रणात्मक रूप से हल्ला बोला। पर बस रटी-रटाई बातें ही दोहराईं, महंगाई, भ्रष्टाचार और घोटालों के बारे में वह देश की जनता को किसी तरह का आश्वासन नहीं दे सके, जबकि यह बहुत जरूरी था क्योंकि इन्हीं सवालों का उत्तर ना पाने से ही आमजन इस पार्टी से छिटक और बिदक रहा है। पर एक बात यहां साफ भी हो गयी है कि आने वाले दिनों में, ममता जैसे साथियों का साथ ना होने के कारण अब सरकार और कडे कदम उठाने से नहीं झिझकेगी जिसके लिए आम आदमी को और कडवे घूटों को निगलने के लिए तैयार रहना होगा।
आज राहुल गांधी व्यवस्था को बदलने की बात कर रहे हैं, पर सवाल है कि किस व्यवस्था को? पिछले आठ सालों से उन्हीं की पार्टी तो सत्ता में बनी हुई है और यही बात तो अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल भी कह रहे हैं तो समस्या क्या है?
सच तो यह है कि आज भीड का जुटना किसी भी पार्टी की सफ़लता का आईना नहीं रह गया है। इस तरह के जुगाड को लोग भी समझने लग गये हैं। इसीलिए दिल्ली के रामलीला मैदान में हुआ कांग्रेस का यह जमावडा भले ही अपनी राजनीतिक ताकत दिखाने में सफल हुआ हो, पर कोई बड़ा संदेश, कोई आशा, कोई दिलासा देने में वह नाकाम ही रहा है।
2 टिप्पणियां:
तमाशबीनों की कमी नहीं है कहीं भी!
Nice writings on blog.
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