शुक्रवार, 16 नवंबर 2012

दीपावली फिर आने का वायदा कर गई।


दीपावली आई, खुशियां, उल्लास और फिर आने का वायदा कर चली गई। इस पारंपरिक त्यौहार से हम आदिकाल से जुड़े हैं। यह अपने देश के सारे त्योहारों से एक अलग और अनोखे तरह का उत्सव है। रोशनी के त्योहार के रूप में तो यह अलग है ही, इसे सबसे ज्यादा उल्लास से मनाए जाने वाले त्योहारों में भी गिना जा सकता है। इसे चाहे किसी भी कथा, कहानी या आख्यान से जोड लें पर मुख्य बात असत्य पर सत्य की विजय की ही है। प्रकाश के महत्व की है। तम के नाश की है। उजाले के स्वागत की है।  इसीलिए इसके आते ही सब अपने अपने घरों इत्यादि की साफ-सफाई करने, रौशनी करने मे मशगूल हो जाते हैं। साफ-सफाई के अलावा इस त्योहार मे एक बात और है कि यह अकेला ऐसा त्योहार है, जिसमें हर आदमी, हर परिवार समृद्धि की कामना करता है। यह त्योहार हमें रूखी-सूखी खाकर ठंडा पानी पीने या जितनी चादर है उतने पैर पसारने की सलाह नहीं देता। इन उपदेशों का अपना महत्व जरूर है पर यह त्योहार यह सच्चाई भी बताता है कि भौतिक स्मृद्धि का भी जीवन में एक अहम स्थान है, इसका भी अपना महत्व है। 

धन की, सुख की आकांक्षा हरेक को होती है इसीलिए इस पर्व पर अमीर-गरीब अपनी-अपनी हैसियत के अनुसार दीए जला, पूजा-अर्चना कर अपनी मनोकामना पूरी होने की प्रार्थना करते हैं। हां यह जरूर है कि अमीरों के ताम-झाम और दिखावे से यह लगने लगता है जैसे यह सिर्फ अमीरों का त्योहार हो।  

हमारे वेद-पुराणों में सर्व-शक्तिमान से यह प्रार्थना की गई है कि वे हमारे अंदर के अंधकार को दूर करें, हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाएं जिससे हमें ज्ञान और शांति प्राप्त हो जिसका उपयोग दूसरों की भलाई में किया जा सके। इसी बात को, इसी संकल्प को हमें अपने जेहन में संजोए रखना है पर यह उद्देश्य तब तक पूरा नहीं हो पाएगा जब तक इस पर्व को मनाने की क्षमता, समृद्धि का वास देश के हर वासी, हर गरीब-गुरबे के घर-आंगन में नहीं हो जाता। 

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