बुधवार, 14 नवंबर 2012

स्वर्ण मोह


 धक्का-मुक्की का हमारा हिंदुस्तानी "कल्चर" वहां अपने पूरे जोशो-खरोश के साथ उपस्थित था। कहीं से भी, किसी कोण से भी नहीं लग रहा था कि यह वही भारत है जहां दिन रात मंहगाई का रोना रोया जाता है। जहां की आधी आबादी को पेट भर भोजन नसीब नहीं होता। उल्टे यहां तो अमीरी भी किसी कोने में दुबकी खडी लग रही थी। 

पिछली धनतेरस पर सरकारी कंपनी MMTC के विज्ञापनों से प्रेरित हो दिल्ली के मशहूर अशोक होटल में चल रहे स्वर्ण-उत्सव को देखने का मन बना लिया। जिज्ञासा यह थी कि अखबारों में हर साल देश के विभिन्न शहरों में टनों सोने की बिक्री और अरबों के कारोबार का जो लेखा-जोखा पढ़ने को मिलता है  शायद उसका  एक छोटा सा जायजा मिल ही जाए।   

रात के आठ बज रहे थे। अशोक के सजे-धजे गलियारों से होते हुए, वहीं चल रही एक शादी के समारोह के मूक दर्शक बने हुए जब इस भव्य होटल के कंवेंशन हाल में दाखिल हुए तो आंखें खुली की खुली रह गयीं। विशाल हाल हर उम्र के लोगों से अटा पडा था। छोटे शहरों, गांवों में होने वाले मेलों-ठेलों जैसी भीड इक्ट्ठा थी।  लगा कहीं ऐसा तो नहीं कि सरकार ने दो रुपये कीलो गेंहू और चावल बांटने की तर्ज पर सोना भी रियायती  दर पर लोगों को उपलब्ध करवा दिया हो या फिर लोग एवंई मेले-ठेले की तर्ज पर घूमने चले आए हों? पर ये दोनों ही ख्याल गलत निकले क्योंकि ना तो सोना रियायती मुल्य पर बिक रहा था नाहीं लोग सिर्फ घूमने और अशोक की भव्यता देखने आए थे। 36000 रुपये का दस ग्राम की कीमत  वाला  सोना वहाँ  चने-मुरमुरे की तरह बिक रहा था। हालांकि वहां चांदी भी उपलब्ध थी पर भूसे के ढेर में सूई की मानींद। लोगों की रुचि सोने में ज्यादा थी। किसी को कीमत की या दर की परवाह नहीं थी। चिंता थी तो इस बात की कि कहीं उनकी पसंदीदा वस्तु उनके लेने के पहले ही खत्म ना हो जाए। हर स्टाल पर लोग उमडे पडे थे। धक्का-मुक्की का हमारा हिंदुस्तानी "कल्चर" वहां अपने पूरे जोशो-खरोश के साथ उपस्थित था। करीब-करीब हर स्टाल में  चीजें खात्मे की ओर थीं। कहीं से भी, किसी कोण से भी नहीं लग रहा था कि यह वही भारत है जहां दिन रात मंहगाई का रोना रोया जाता है। जहां गरीबी मुंह बाए खडी रहती है। जहां की आधी आबादी को पेट भर भोजन नसीब नहीं होता। उल्टे यहां तो अमीरी भी किसी कोने में दुबकी खडी लग रही थी। सभी यहां निश्फिक्र, चिंता विहीन, खुश-हाल ही नजर आ रहे थे। टेंशन में कोई था तो यहां के कर्मचारी। दस दिनों का तनाव और थकावट उनके चेहरों से साफ झलक रही थी। 

मैं हाल के एक कोने में बने खाली हो चुके ऊंचे स्टाल पर खडा सारा नजारा देख रहा था बिना इस बात की आशंका या  आभास के  कि इस सामुहिक खरीदी का जादू श्रीमती जी पर भी अपना असर डाल चुका है और वे अपने बेटों के साथ चांदी की लक्ष्मी-गणेश की मूर्ती लेने का मन बना चुकी हैं। इसके पहले की  इसकी भनक लगने पर मैं उनके पास जा किसी तरह का विघ्न डालूं वहां काम "डन" हो चुका था। 

6 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

सोने के प्रति प्यार यहाँ के खून में है।

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

चांदी पर ही बात बन गयी .... स्वर्ण मोह से ज्यादा ऐसे स्थानों पर दिखावा प्रचलन ज्यादा रहता है ।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
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(¯*•๑۩۞۩:♥♥ :|| गोवर्धन पूजा (अन्नकूट) की हार्दिक शुभकामनायें || ♥♥ :۩۞۩๑•*¯)
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धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

सोने के प्रति मोह भारत में ज्यादा है,,,,

RECENT POST: दीपों का यह पर्व,,,

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

भदौरिया जी, कुछ ज्यादा ही, ज्यादा है।

Madan Mohan Saxena ने कहा…

बहुत सराहनीय प्रस्तुति.
बहुत सुंदर बात कही है इन पंक्तियों में. दिल को छू गयी. आभार !
बेह्तरीन अभिव्यक्ति .बहुत अद्भुत अहसास.सुन्दर प्रस्तुति.
दीपावली की हार्दिक शुभकामनाये आपको और आपके समस्त पारिवारिक जनो को !

मंगलमय हो आपको दीपो का त्यौहार
जीवन में आती रहे पल पल नयी बहार
ईश्वर से हम कर रहे हर पल यही पुकार
लक्ष्मी की कृपा रहे भरा रहे घर द्वार..

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