सोमवार, 20 जून 2011

हमारे रिश्ते अंकल-आंटी पर ही खत्म नहीं हो जाते

बाज़ार की ताकतों को अपना और अपनी कंपनी  का पेट भरने के लिए सदा बिरयानी की जरूरत होती है। जिसके लिए वे दुनिया भर में मुर्गों की तलाश करती रहतीं हैं।

वर्षों पहले एक क्रीम ने भारतीय युवतियों को गोरा बनाने का बीड़ा उठाया था। आज भी वह काम बदस्तूर जारी है। पर व्यवसाय में उतार-चढाव तो आते ही हैं। कुछ दिनों पहले जब बिक्री का ग्राफ तेजी से नीचे आने लगा  तो निर्माताओं को पुरुषों का भी ध्यान आया क्योंकि पुरुष भी तो "रब्ब की मातमपुर्सी" करने थोड़े ही पैदा हुए हैं तो एक 'बड़े मुंह वाले' के मुंह से युवकों को धिक्कारा गया   "छी: औरतों वाली क्रीम लगाता है!!!    अरे मर्द बन, यह लगा। पर शायद 'फार्मुला' उतना कारगर नहीं रहा। सो फिर लड़कियों को निशाना बनाया गया क्योंकि शायद वे उन्हें कुछ ज्यादा बेवकूफ टाईप की लगी होंगी। युवतियों को समझाया गया कि क्रीम रोज लगानी है नहीं तो निखार नहीं आता। पर जब बिक्री उससे भी बढती नहीं दिखी तो अब विज्ञापन में क्रीम को दिन में दो बार लगाने पर जोर दिया जाने लगा है। यह तो था नारी की सुंदर दिखने की आदिम चाहत को अपनी तिजोरी भरने का माध्यम बनाने वाली कुटिल चाल का एक उदाहरण।

बाजार को तो अपने से मतलब है। उसे तो अपने और अपने परिवार वालों के पेट में बिरयानी ड़ालनी ही है जिसके लिए वह दुनिया भर में मुर्गे ढूंढता रहता है। इसी कवायद में उसे भारतियों की भावनात्मक कमजोरी का भी एहसास हो गया। बस अपने उत्पादों को "गिफ्ट" का नाम दे उसने साल के दिनों को तरह-तरह की संज्ञाओं के नाम के "रैपरों" में लपेट-लपेट कर हमारे सामने पेश कर दिया। पहले फरवरी में लाया गया "प्रेम दिवस"। इस दिवस ने कंपनियों के दिन बहुरा ड़ाले। बस सिलसिला चल निकला। आने लगे, माता, पिता, भाई, बहन के लिए निर्धारित दिन। हम भी पूर्व और पश्चिम की संस्कृति के भेद को जाने बगैर जुट गये बाजार का पेट भरने। हम भूल गये कि हमारे यहां पश्चिमी सभ्यता के कुछ शहरों या घरों में हावी हो जाने के बावजूद अभी भी संयुक्त परिवारों का चलन है। जिसकी धूरी हमारे माँ-बाप हैं। उनका वरद-हस्त अभी भी रोज हमारे घर से काम पर निकलते समय हमारी रक्षा हेतु हमारा मस्तक स्पर्श करता है। जब तक लौट कर ना आ जाएं उनकी आंखें दरवाजे से हटती नहीं हैं। सारा परिवार छोटे-छोटे मनमुटावों के बावजूद एक-दूसरे की जरूरतों का ख्याल रखता है। इसके विपरीत योरोप में अधिकांश परिवार एकल होते हैं। ऊपर से तलाक और बहूविवाह रिश्तों को जटिल बना देते हैं। फिर जीवन की आपाधापी में संवेदनाएं भी लुप्त होती चली गयी हैं। ऐसे माहौल में किसी एक रिश्ते को साल का एक दिन समर्पित कर उनका उसे जीवंत बनाए रखने की कोशिश करना समझ में आता है।

पर बाज़ार को किसी नाते-रिश्ते-अपनेपन से कोई मतलब नहीं होता उसे एक ही चीज दिखती है और वह है पैसा। जिसे पाने, अपने पास बनाए रखने के लिए रोज तरह-तरह के तरीके ईजाद किए जाते हैं। उसी ऊपर कही गयी गोरे-पन को बढाने वाली क्रीम की तरह। फिर हमारे देश का बाज़ार तो असीम संभावनाओं से भरा पड़ा है। यहां रिश्ते अंकल-आंटी पर ही खत्म नहीं हो जाते। यहां तो मामा-मामी, चाचा-चाची, मौसा-मौसी, बुआ-फूफा, बहन-जीजा, भाई-भाभी। फिर चचेरे, ममेरे, मौसेरे रिश्तों की ना खत्म होने वाली श्रृंखला है। उसके बाद भी हमारा प्रेम खत्म कहां हो जाता है वह तो सदा प्रवाहमान रहता है जिसमें गोते लगाते रहते हैं, दोस्त और उनके परिवार, पड़ोसी, नौकर-चाकर। फिर हम अपने पालतुओं को थोड़े ही ना भूल जाएंगे। यानि हम अनंत हमारा बाज़ार अनंता।

यह तो वह सब है जो दिखता है। बाज़ार को तो हमसे ज्यादा समझ है। पता नहीं वह कैसे-कैसे, ऐसे-वैसे दिन दिखलाएगा जिनके लिए साल के दिन भी शायद कम पड़ जाएं। फिर भी कोई बात नहीं, घंटे, मिनट तो बाकी रहेंगे ही ना हमारे "चौघड़िये" की तरह। आप तो बस तैयार रहें दिन का नाम तय होने और अपनी जेब ढीली करने के लिए।

14 टिप्‍पणियां:

भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा…

थोड़े दिनों बाद बच्चों के नाम होंगे डागर प्रायोजित दिनेस, खोखोखोला की प्रस्तुति चुनिआ.

Darshan Lal Baweja ने कहा…

बहुत ही अच्छा लेख
आभार

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपने तो ढोल की पोल
खोल कर रख दी!

मनोज कुमार ने कहा…

विचारोत्तेजक आलेख।

anshumala ने कहा…

वैसे ये भी सच है की बाजार जितना चीखता है उतना लोग उसकी सुनते नहीं है क्योकि सभी जानते है कि दिखावे पर मत जाओ अपनी अकाल लगाओ |

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

अंशुमालाजी, आप सही हैं, फिर भी यह तो मानना ही पड़ता है कि बाज़ार की भाषा में 'जो दिखता है वह बिकता है' भी सही है। उदाहरण के तौर पर कोई आम इंसान यदि उसकी खास ही पसंद ना हो तो पेस्ट के लिए कोलगेट या नमक के लिए टाटा या कपड़ों के लिए निरमा या सर्फ उठा लाता है। मेरे कहने का मतलब है जो उसके दिमाग में होता है। यदि ऐसा ना होता तो कंपनियां अपने करोंड़ों का बजट सिर्फ विज्ञापनों के लिए ना रखतीं। यहां दो ऐसे उत्पादनों के नाम बताता हूं जो गुणवत्ता में अपने से बेहतर उत्पादनों से कमतर होते हुए भी वर्षों से बाजार में अपनी उपस्थिति बनाए रखे हुए हैं। पहला है "निरमा' कपड़े धोने का पावडर जिसने हिंदुस्तान लीवर जैसी कंपनी को तारे दिखलवा दिए थे। दूसरी है "मैगी" जिसने रोज सैंकड़ों बार टीवी पर आ-आ कर घर-घर में घुसपैठ कर ली। वैसे भी आज के जमाने में दसिओं बार गलत को सही बोल-बोल कर सही को गलत करने वालों का असर हम सब पर हो ही रहा है।

ZEAL ने कहा…

गगन जी ,
दुखद सत्य तो यही है की भारत की जनता को धर्म के नाम पर और स्त्रियों को सौन्दर्य प्रसाधन के नाम पर एक लम्बे समय तक मूर्ख बकर व्यवसाय चलाया जा सकता है।

ZEAL ने कहा…

मूर्ख बनाकर * (correction)

Anil Pusadkar ने कहा…

सही कहा शर्मा जी।

Chetan ने कहा…

bahut aashchary hota hai jab yuwatiyon par adharit fuhad wigyapano par mahilae bhi apatti nahi jatati.

kavita verma ने कहा…

vigyapano ke nam par logo ko bevkoof banane ka dhandha joron par hai...

Abhay ने कहा…

dhyan dene waalii baat hai

G.N.SHAW ने कहा…

बहुत सुन्दर..यही पैसा है ..जो सब को मार रहा है !

Chetan ने कहा…

sou bar jhuuth bole to wa bhi sach lagane lagata hai

विशिष्ट पोस्ट

रणछोड़भाई रबारी, One Man Army at the Desert Front

सैम  मानेक शॉ अपने अंतिम दिनों में भी अपने इस ''पागी'' को भूल नहीं पाए थे। 2008 में जब वे तमिलनाडु के वेलिंगटन अस्पताल में भ...