गुरुवार, 16 जून 2011

यह बता तू कितने दिन रह सकता है बिना खाए ?

पिछले दिनों बाबा और संतों का अभियान चाहे सफल ना हो पाया हो पर उससे सियासती दलों की पोल जरूर खुल कर जनता के सामने आ गयी है। भले ही यह सब पहले की तरह भुला ही दिया जाने वाला हो।


देश के उत्तरी भाग में कुछ दिनों से तरह-तरह की घटनाएं मंचित होती रही हैं। उनको लेकर जनता-जनार्दन में जोश भी अपने चरम पर रहा। अन्नाजी ने अपनी भूमिका से आंधी का आह्वान किया ही था कि बाबा रामदेव ने तूफान का माहौल रच ड़ाला। यह इतना सजीव था कि आड़े-टेढे, छोटे-बड़े पांवों पर किसी तरह टिकी, घुन खाई सियासी कुर्सी और उस पर आसीन सभी को अपने अस्तित्व की चिंता ने घेर लिया। तभी अपने आकाओं की नज़रों में काजल बनने मौका देख बहुत सारी बैसाखियां दौड़ पड़ीं कुर्सी को घेर इस आपदा से बचाने के लिए।
अब कुर्सी रूपी एक अनार, उस पर लदने की फिराक में सैकड़ों बिमार। समय और दस्तूर देख भा.ज.पा. ने भी अपना दांव खेल दिया। पर राजनीति का ऊंट कब किधर बैठ जाएगा क्या पता चलता है। वैसे भी कर्ता के मन कुछ होता है और दाता कुछ और ही सोचे बैठा होता है। तो रामदेव बाबा को मोहरा बना खेला गया भाजपाई दांव तब उल्टा पड़ गया जब हिमाचल के उसी अस्पताल में 115 दिनों से अनशन कर रहे संत निगमानंद जी की मृत्यु हो गयी। अब इसका जवाब वहां की सरकार के पास नहीं है कि भ्रष्टाचार के विरोध में खड़े होने का दिखावा करने वाली सरकार ने निगमानंद की इतने लंबे समय से चली आ रही मांगों की ओर क्यों ध्यान नहीं दिया।
अब ध्यान तो तब दिया जाता है जब कि समस्याओं को सुलझाने की नीयत हो। इधर तो सारा खेल एक-दूसरे की टांग को लेकर था कि हाथ में आए, खींचें और लपक लें आसन।
दलों की गिद्ध-दृष्टि रहती है, देश के कोने-कोने में होने वाले धरनों, विरोधों, हड़तालों, अनशनों इत्यादि पर कि इन सब को भेड़ रूपी जनता का कितना समर्थन मिल रहा है, उस आंदोलन का विरोधी दल पर क्या असर पड़ने जा रहा है और उसका क्या फायदा उठाया जा सकता है। बस हवा को पक्ष में देखते ही बेशर्मों की तरह वहां अपनी उपस्थिति जताने जा पहुंचते हैं। चाहे वहां बेइज्जत होने का खतरा ही क्यूं ना मंड़रा रहा हो।


ऐसा ही कुछ पिछले दिनों भी देखने में आया जब कांग्रेस देश में उठे इस भीषण ज्वार में बूरी तरह डूबते-उतराते अवसाद की सीमा में पहुंच गयी थी। मशीनरी का हर पुर्जा अलग-थलग पड़ा कुछ का कुछ "कहे-करे" जा रहा था। कंट्रोल मजबूर था। पर शायद कुछ अच्छे कर्मों का फल बाकी था, तभी उसी ज्वार की एक तीव्र लहर ने उसे किनारे पर ला पटका।


उधर भा.ज.पा. उसी ज्वार की एक ऊंची लहर पर सवार थी और किनारे लगना चाहती थी कि पतवार पकड़े नाविक की गलती से नाव बीच में ही उलट गयी।


इधर जनता जो भ्रष्टाचार रूपी तमाशे से खुश हो खुशहाली के सपने देखने लगी थी, उसका ध्यान बटाने के लिए एक अबूझ पहेली उसके सामने रख दी गयी कि बताओ जब निगमानंद 115 दिन तक अनशन कर सकते हैं। एक आम नेता भी भूख-हड़ताल पर 20-25 दिन निकाल देता है तो योग को लेकर बड़े-बड़े दावे करने वाले योग-गुरु का आसन नौ दिन में ही क्यों डोल गया?


सौ पचास को लगा कि, हां भाई, बात तो ठीक है !! अब जनता तो जनता ही होती है। जहां कुछ को लगा तो बाकी भी भेड़ की तरह लग गये लाइन में, बिना सवाल करने वाले से पूछे कि पहले यह बता कि तू कितने दिन रह सकता है बिना खाए ?


पर पूछे कौन? यदि पहली चोरी पर ही माँ का थप्पड़ पड़ गया होता तो बेटा बड़ा हो कर चोर ना बनाता

7 टिप्‍पणियां:

भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा…

जनता को परछिद्रान्वेषण में लगाने में राजनीतिबाज बहुत माहिर हैं.

Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा…

गगन जी, सटीक मूल्‍यांकन किया है आपने राजनैतिक पार्टियों का। आभार।

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ब्‍लॉग समीक्षा की 20वीं कड़ी...
आई साइबोर्ग, नैतिकता की धज्जियाँ...

ZEAL ने कहा…

सरकार की कुटिलता जग जाहिर हो गयी है।

P.N. Subramanian ने कहा…

हम तो आशा बनाये रखे हैं. वह सुबह जरूर आएगी.

Chetan ने कहा…

bilkul sahi baat. shuru me hii kisii tarah nakel kas dii gayi hoti to shaayad aaj kuchh aur hi tasweer hoti.

Amrita Tanmay ने कहा…

Badhiya chhidranveshan..aabhar....

Surendra shukla" Bhramar"5 ने कहा…

गगन जी सुन्दर मूल्याङ्कन सटीक और बेबाक लेख -भूल हो गयी पहले माँ से थप्पड़ नहीं पड़ा अब जनता जनार्दन दूसरी माँ इस को पूरा कर दे तो कुछ बात बने -
निम्न सुन्दर

पर पूछे कौन? यदि पहली चोरी पर ही माँ का थप्पड़ पड़ गया होता तो बेटा बड़ा हो कर चोर ना बनाता
शुक्ल भ्रमर५

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