शनिवार, 4 जून 2011

जब समय आने पर वह अपना मुंह उठा चल देती है तो हमें क्या कि उस पर क्या गुजरेगी !

रक्त, हड्डी, मांस-मज्जा, नस-नाड़ियों, विभिन्न अंगों, हवा, पानी इत्यादि के अलावा भी मेरे अंदर कुछ है। यह सदा से ही मुझे लगता रहा है। जो मेरे साथ हंसता है, गाता है, खुश होता है, दुखी होता है यानि मेरा सहभागी है। मुझे यह भी लगता है कि यह जो भी है हर जीव में होता होगा, ” कुछेक” को छोड़ कर। अब यह होता है या होती है इसका पता नहीं चल पाया है सो लिंग निर्धारण भी नहीं हो सका है। आगे इसे “ती” मान कर चर्चा जारी रखते हैं।
अब जाहिर है कि अपने अंदर कुछ हो तो उसके बारे में जानने की उत्सुकता तो होगी ही। इसी के कारणवश कुछ खुद के प्रयत्नों और इधर-उधर पूछने, पता करने पर अलग-अलग ग्रंथों, विभिन्न श्रेणियों के लोगों, महानुभावों ने अपने-अपने “सटीक” ज्ञान से मेरे सूखे बगिया रूपी ज्ञान को हरा-भरा करने की कोशिश की। जो लब्बो-लुआब सामने आया वह कुछ इस तरह का है।

संत, महात्मा, योगी, ऋषि-मुनि, ज्ञानी लोग इसे ”आत्मा” की संज्ञा देते हैं। डाक्टर, चिकित्सक, शायर आदि इसे “दिल” कहते हैं और आम जन इसे “मन” के नाम से जानते हैं। ये सारे के सारे लोग अपनी-अपनी दी गयी संज्ञाओं को महिमा मंडित करने में जुटे रहते हैं।

इनमें डाक्टरों इत्यादि को छोड़ ही दें क्योंकि उनके लिए यह शरीर का एक आवश्यक अवयव मात्र है, जिसके बिना शरीर का चलना नामुमकिन है।

आम इंसान का यह मन भी कुछ अजीब चीज है। वह सोचता कुछ है तो होता कुछ है। वह चाहता कुछ है तो मिलता कुछ है। वह अपनी करना चाहता है पर करने वाले को करना कुछ और ही पड़ता है। इसी उहा-पोह में बचपन-जवानी-बुढापा बिता कल था आज फ्रेम में कैद हो दिवार पर टंग जाता है।

सबसे ज्यादा खींचा-तानी, वाद-विवाद, सवाल-जवाब होते रहे थे, होते रहे हैं तथा होते रहेंगे “आत्मा” को लेकर। ऋषि-मुनियों, साधू-संतों, आधुनिक मजमे-बाज गुरुओं आदि सब का ही यही कहना है कि यह जो आत्मा है वह अजर-अमर है। उस पर कोई व्याधि, सुख-दुख नहीं व्यापता। आग, हवा, पानी, अस्त्र-शस्त्र का उस पर कोई असर नहीं होता। ठीक है भाई, आप सब ज्ञानी हैं सत्य ही कहते होंगे। पर जब वह इतनी सशक्त है तो शरीर रूपी सहारे, आसरे, आधार के अंदर सुरक्षित रहते हुए उसकी शक्ति क्षीण क्यों हो जाती है? और "घर" से बाहर आते ही इतनी शक्तिशाली कैसे हो जाती है? जिस शरीर में 100-50 सालों तक डेरा डाले पड़ी रहती है उसी के खत्म होते समय निर्मोही की तरह दुम झाड़ के अपना रास्ता कैसे अख्तियार कर लेती है?
इधर वह इंसान, जिसे पता नहीं कैसे-कैसे उल्टे-सीधे विशेषणों से “अलंकृत” किया जाता रहा है, जो किसी कुत्ते-बिल्ली, तोता-मैना को दो-तीन साल के लिए भी पाल लेता है तो उसकी जुदाई में दिनों हफ्तों उदास, भावुक बना रहता है क्योंकि उसमें प्रेम की भावना होती है। जो शायद आत्मा में नहीं पाई जाती। तभी तो शरीर के खत्म होते ही उसे त्याग अपनी राह चल देती है। चलो त्याग दिया तो त्याग दिया, सही भी है खुद क्यों जलें या दफन हों किसी के साथ। पर फिर सवाल यह उठता है कि जब वह इतनी ही वितरागी है तो फिर शरीर द्वारा किए गये पाप-पुण्य का लेखा-जोखा उसे क्यों भुगतना पड़ता है। आवास से निकलने के बाद क्यों उसे आग, पानी, अस्त्रों-शस्त्रों से तकलीफ होने लगती है। चलो होती भी है तो उसके त्यागे हुए चोले को धारण करने वाले को क्यों डराया-धमकाया जाता है कि मरने के बाद ऊपर जाने पर ऐसा होगा, वैसा होगा। अरे होगा तो हो। जो हमारे अंदर वर्षों रह कर भी हमारी नहीं रही, जो हमारे खत्म होने पर मुंह उठा कर चल दी तो यदि उसे कुछ होता है हमें क्यों डराते हो और हम भी क्यों डरें ? वैसे भी इन डराऊ उपदेशों का असर हम पर क्यों और कैसे होगा जब हम, हम ही नहीं रहेंगे?

ऐसे सवाल अपनी अक्ल-मंदी में तेजी लाने के लिए कोई ना कोई तो पूछेगा ही। उसे अलग-अलग तरह-तरह के जवाब भी मिलेंगे। पर साथ ही यह भी सच है कि जवाब देने वाला अपने तथाकथित उपदेशों से सामने वाले को कितना भी प्रभावित कर ले पर खुद उसे भी मालुम नहीं होता कि वह जो बोल रहा है वह कितना सच है।
इधर फिर मुझे लग रहा है कि मेरे अंदर कोई है जो मेरे साथ मेरा सहभागी है। कौन है वह ?

6 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

कुछ अलग सी गुजरी होगी!

संगीता पुरी ने कहा…

प्रकृति के हर रहस्‍य को समझना मुश्किल है .. रहस्‍य ही रहस्‍य भर पडे हैं !!

मनोज कुमार ने कहा…

बहुत मुश्किल है इसे समझना।

ब्लॉ.ललित शर्मा ने कहा…

काया के स्थल रहै,मन राजा पंच प्रधान।
पच्चीस प्रकृति तीन गुण,आपा गर्व गुमान॥

Abhay Sharma ने कहा…

Bahut sunder evam bhavnatmak prastuti

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

दिलो-दिमाग के बेलगाम घोंड़ों पर काबू पाना मनुष्य तो क्या देवताओं के वश में भी नहीं रहा।

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