पीपली लाइव देख ड़ाली। ना ही देखी जाती तो ठीक था। पर गल्तियां तो सभी से होती हैं। हो गयी हमसे भी। पर दाद देनी पड़ेगी अनुष्का की हिम्मत की । पहले तो आमिर को वश में किया फिर जैसे-तैसे जुगाड़ लगा बहुत सारे मंत्रियों व संत्रियों को भी फिल्म का डोज पिलवा कर नाम और दाम दोनों पा लिए। इसे कहते हैं "मार्केटिंग"।
आगे चलने से पहले दो बातें।
वर्षों पहले श्री सत्यजीत रे ने एक फिल्म बनाई थी "गुपी गाईन बाघा बाईन"। जब पिक्चर रिलीज हुई तो उसके बारे में बड़े-बड़े दिग्गज समिक्षकों ने एक से बढ कर एक समीक्षा लिख मारी। सत्यजीत साहब की फिल्म एवंई तो हो नहीं सकती इसीलिए किसी को उसमें गहरी राजनीति नजर आई तो किसी को भ्रष्ट नेतागिरी किसी ने उसमें दार्शनिकता खोज डाली तो किसी ने अपने देश की उसमे दिखाए राज्य से तुलना कर डाली। हफ्ते भर बाद जब सत्यजीतजी से फिल्म के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि "मैंने कोई गूढ बात इस फिल्म द्वारा नहीं कही है। यह विशुद्ध बच्चों की फिल्म है जिसकी कहानी वर्षों पहले मेरे नानाजी ने लिखी थी।"
एक थे ख्वाजा अहमद अब्बास। धुरंधर कहानीकार। उनकी कहानियों पर जब-जब राजकपूर ने फिल्में बनाईं वे सुपर हिट हुईं। पर जब-जब अब्बास साहब ने खुद अपने हाथ आजमाए तब-तब फिल्म कब आई कब उतरी किसी को पता भी नहीं चला।
आमिर का लगता है कि महिला पत्रकारों के लिए उनके दिल में कोई कोना सदा सुरक्षित रहता है। जहां जा कभी बरखा अपना हित साध लेती है तो कभी अनुष्का।
आमिर का नाम अपनी फिल्म से जोड़ कर इस चतुर महिला ने अपनी पहचान बनवा ली। पर देखा जाए तो एक अच्छे भले विषय की ऐसी की तैसी हो गयी है। कहानी कहना, सुनाना अलग बात है पर उसको फिल्माने के लिए दक्षता का होना बहुत जरूरी होता है। कैमरे की कलम से जब झरने की कलकल सी कहानी गढी जाती है तो उसका जादुई असर पड़ता है देखने वाले पर। इसी कहानी को यदि किसी निष्णात हस्ति ने या खुद आमिर ने फिल्माया होता तो इस व्यंग्य की धार इतनी पैनी होती कि देश में ऐसा माहौल बनाने वालों की बखिया उधड़ जाती। पर इसमें तो अभद्र और वाहियात संवादों और बेमतलब की गंदी गालियां ड़ाल अपने को बिंदास दिखा तुरंत मशहूर होने की फूहड़ कोशिश की गयी है वह भी एक महिला निर्देशक द्वारा।
इसके अलावा पता नहीं परफेक्टनिष्ट कहलाने वाले आमिर की नजर नत्थे की पत्नी के किरदार पर कैसे नहीं पड़ी। एक गरीब, फटेहाल, दाने-दाने को मोहताज किसान परिवार, जिसके पुरुषों के गंदे कपड़े, धूल भरे चेहरों पर बेतरतीब बढे बिना कंघियाए बाल और झाड़-झंखाड़ की तरह उगी दाढियां अपनी बदहाली का बखान करती नजर आती हैं वहीं नत्थे की बीवी की "भवें" अभी अभी तराशी गयीं लगती हैं। इतना ही नहीं उसके चेहरे का मेक-अप और सलवट रहित साड़ियां निर्देशक की कमजोरी की चुगली खाती नजर आती हैं। एक मरभुक्खे परिवार की महिला को क्या अपनी भवें तराशने या चेहरा पोतने की मोहलत मिल भी पाती है कभी?
सही बात है यदि कैमरे से कहानी में रंग भरना इतना ही आसान होता तो आज हर ऐरे-गैरे, नत्थू खैरे का नाम आसिफ, राज कपूर, गुरुदत्त, बिमलराय या ऋषिकेश मुखर्जी के साथ लिखा नजर आता।
इस ब्लॉग में एक छोटी सी कोशिश की गई है कि अपने संस्मरणों के साथ-साथ समाज में चली आ रही मान्यताओं, कथा-कहानियों को, बगैर किसी पूर्वाग्रह के, एक अलग नजरिए से देखने, समझने और सामने लाने की ! इसके साथ ही यह कोशिश भी रहेगी कि कुछ अलग सी, रोचक, अविदित सी जानकारी मिलते ही उसे साझा कर ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जा सके ! अब इसमें इसको सफलता मिले, ना मिले, प्रयास तो सदा जारी रहेगा !
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11 टिप्पणियां:
बहुत ही प्रभावी और शानदार आलेख है भाई जी !
आपने सार की बात कह दी.........
एक समीक्षा अलग सी
इसका अर्थ है कभी आपने ग्राम्य सौन्दर्य को देखा ही नहीं !
अरविंदजी,
पंजाब के गावों में बचपन के कुछ दिन बीते हैं। पर कभी एकदम नाता भी नहीं टूटा। पर गांवों के लोग ऐसी ही भाषा इस्तेमाल करते हों यह जरूरी तो नहीं। आपको आपत्ती किस बात पर है, खुलासा करेंगे?
नहीं देखी सर जी..आज देखना ड्यू है.
मैंने बात सुन्दरता की की थी ...ग्रामीण महिलायें भी बहुत सजती संवरती हैं -और गाली तो बहुत सहज है फिल्म में !
फ़िल्म तो देखे गे ही लेकिन आप की नजरे क्यामत है, हर चीज को ध्यान से देखती है, कही आप मेरे गांव के आस पास से तो नही.... मेरी आदत भी कुछ ऎसी ही है. धन्यवाद
आज ही एक सी.बी.आई के डीआइजी घर आये थे और हमसे पूछा की क्या पीपली लाइव देखना हैं. हमने नमस्ते कर दी. क्यों फ़ालतू का टेंशन लें.
सुना कि ओवर पब्लिसिटी हो गई है इस फ़िल्म की इसलिये देखने की इच्छा ही खत्म हो गई, क्योंकि उम्मीदें ज्यादा हो जाती हैं।
श्रीकृष्णजन्माष्टमी की बधाई .
जय श्री कृष्ण !!!
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शानदार आलेख,
आप भी इस बहस का हिस्सा बनें और
कृपया अपने बहुमूल्य सुझावों और टिप्पणियों से हमारा मार्गदर्शन करें:-
?अकेला या अकेली
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