इस दशक की शुरुआत के साथ जब तीन नये राज्यों का गठन हुआ तो इनमें से एक छत्तीसगढ को भी हर जगह पिछड़े और अविकसित राज्य के रूप में ही ज्यादा प्रचारित किया गया था। यहां के वाशिंदों की शांतिप्रियता, सादगी और भोलेपन पर किसी ने भी दो शब्द नहीं लिखे पर पिछड़ेपन, असाक्षरता, टोने-टोटके और बस्तर को लेकर उल्टी-सीधी बातों पर कालम पे कालम रंग डाले थे।
उन दिनों मैं हिमाचल में था। जिस दिन यहां "हरेली" होती है, उस दिन वहां के एक प्रतिष्ठित पत्र ने लिखा था - "छत्तीसगढ में आज भी जादू-टोने पर लोगों में अटूट विश्वास है। आज के दिन वहां हरेली नामक त्यौहार वहां के बैगा लोगों, जो टोना-टोटका करते हैं, द्वारा मनाया जाता है। छत्तीसगढ के रायपुर में भी, जो कि वहां का सबसे बड़ा शहर है, कोई भी व्यक्ति घर से बाहर नहीं निकलता है ना ही अपने बच्चों को बाहर जाने देता है। स्कूल दुकानें सब बंद रहती हैं। लोग जादू-टोने के ड़र से दरवाजे बंद कर घरों में दुबके रहते हैं। अघोषित कर्फ्यू लग जाता है।"
यह पढ कर मैने एक पत्र उस अखबार के संपादक महोदय को वस्तुस्थिति बताते हुए लिखा था। पर उसका कोई जवाब नहीं पा सका हूं अभी तक। बिना किसी प्रमाण के, बिना सच्चाई जाने, बिना पूरी तहकीकात कर सिर्फ चटकारेदार खबरें 'बना' कर यह तथाकथित पत्रकार क्या सिद्ध करना चाहते हैं, समझ के बाहर की बात है। स्कूल-कालेज के समय में रोज अखबार पढने पर जोर दिया जाता था, जिससे भाषा और सामान्य ज्ञान पर पकड़ बन सके। आज अखबारों में ना ही शुद्ध भाषा मिलती है नाहीं सही जानकारी, फिल्म जगत के फूहड़ किस्सों वगैरह की तफसील को छोड़।
दिल्ली में भी ऊंचे-ऊंचे सरकारी ओहदों पर बैठे लोगों को भी यहां के भूगोल को बताने के लिये भिलाई का वास्ता देना पड़ता था। पर बस्तर के बारे में मिर्च-मसाला लगी बातों का उनके पास भंडार होता था। इसीलिये मेरा जब भी बाहर जाना होता है तो यहां की छोटी-छोटी "अच्छाईयां" मैं जरूर अपने साथ ले जाता हूं।
आज भी अखबार में एक खबर पढी तो इसे यहां से बाहर रहने वालों के लिये पोस्ट करने से अपने को रोक नहीं पाया।
वर्षों पहले व्ही. शांतारामजी की अमर क्लासिक फिल्म "दो आंखें बारह हाथ" की कल्पना को कुछ-कुछ साकार किया है, रायपुर सेंट्रल जेल प्रशासन ने। यहां आजीवन कारावास की सजा पाए चार कैदियों को आम जनता के लिये हल्का -फुल्का नाश्ता बनाने के लिये जेल परिसर में ही बाहर की ओर एक दुकान खोल कर दी गयी है। बावजूद इस जोखिम के कि सजायाफ्ता मुजरिमों को बाहर भेजना पड़ रहा था। पर इन चारों के अब तक के व्यवहार को देखते हुए यह जोखिम उठाया गया। आज इनके हुनर का यह कमाल है कि उस दुकान से रोज की बिक्री दस हजार रुपये का आंकड़ा छू रही है। यहां की बनी चीजों की गुणवता, सफाई और स्वाद का जादू लोगों के सर चढ कर बोल रहा है। अब तो बड़े-बड़े होटलों और रेस्त्रां से भी इन्हें आर्ड़र मिलने लग गये हैं। इन चारों के हुनर और मेहनत करने के जज्बे ने इनकी जिंदगी को एक मकसद दे दिया है।
तथाकथित विकसित राज्य क्या इस पिछड़े प्रदेश से सबक लेंगे?
उन दिनों मैं हिमाचल में था। जिस दिन यहां "हरेली" होती है, उस दिन वहां के एक प्रतिष्ठित पत्र ने लिखा था - "छत्तीसगढ में आज भी जादू-टोने पर लोगों में अटूट विश्वास है। आज के दिन वहां हरेली नामक त्यौहार वहां के बैगा लोगों, जो टोना-टोटका करते हैं, द्वारा मनाया जाता है। छत्तीसगढ के रायपुर में भी, जो कि वहां का सबसे बड़ा शहर है, कोई भी व्यक्ति घर से बाहर नहीं निकलता है ना ही अपने बच्चों को बाहर जाने देता है। स्कूल दुकानें सब बंद रहती हैं। लोग जादू-टोने के ड़र से दरवाजे बंद कर घरों में दुबके रहते हैं। अघोषित कर्फ्यू लग जाता है।"
यह पढ कर मैने एक पत्र उस अखबार के संपादक महोदय को वस्तुस्थिति बताते हुए लिखा था। पर उसका कोई जवाब नहीं पा सका हूं अभी तक। बिना किसी प्रमाण के, बिना सच्चाई जाने, बिना पूरी तहकीकात कर सिर्फ चटकारेदार खबरें 'बना' कर यह तथाकथित पत्रकार क्या सिद्ध करना चाहते हैं, समझ के बाहर की बात है। स्कूल-कालेज के समय में रोज अखबार पढने पर जोर दिया जाता था, जिससे भाषा और सामान्य ज्ञान पर पकड़ बन सके। आज अखबारों में ना ही शुद्ध भाषा मिलती है नाहीं सही जानकारी, फिल्म जगत के फूहड़ किस्सों वगैरह की तफसील को छोड़।
दिल्ली में भी ऊंचे-ऊंचे सरकारी ओहदों पर बैठे लोगों को भी यहां के भूगोल को बताने के लिये भिलाई का वास्ता देना पड़ता था। पर बस्तर के बारे में मिर्च-मसाला लगी बातों का उनके पास भंडार होता था। इसीलिये मेरा जब भी बाहर जाना होता है तो यहां की छोटी-छोटी "अच्छाईयां" मैं जरूर अपने साथ ले जाता हूं।
आज भी अखबार में एक खबर पढी तो इसे यहां से बाहर रहने वालों के लिये पोस्ट करने से अपने को रोक नहीं पाया।
वर्षों पहले व्ही. शांतारामजी की अमर क्लासिक फिल्म "दो आंखें बारह हाथ" की कल्पना को कुछ-कुछ साकार किया है, रायपुर सेंट्रल जेल प्रशासन ने। यहां आजीवन कारावास की सजा पाए चार कैदियों को आम जनता के लिये हल्का -फुल्का नाश्ता बनाने के लिये जेल परिसर में ही बाहर की ओर एक दुकान खोल कर दी गयी है। बावजूद इस जोखिम के कि सजायाफ्ता मुजरिमों को बाहर भेजना पड़ रहा था। पर इन चारों के अब तक के व्यवहार को देखते हुए यह जोखिम उठाया गया। आज इनके हुनर का यह कमाल है कि उस दुकान से रोज की बिक्री दस हजार रुपये का आंकड़ा छू रही है। यहां की बनी चीजों की गुणवता, सफाई और स्वाद का जादू लोगों के सर चढ कर बोल रहा है। अब तो बड़े-बड़े होटलों और रेस्त्रां से भी इन्हें आर्ड़र मिलने लग गये हैं। इन चारों के हुनर और मेहनत करने के जज्बे ने इनकी जिंदगी को एक मकसद दे दिया है।
तथाकथित विकसित राज्य क्या इस पिछड़े प्रदेश से सबक लेंगे?
8 टिप्पणियां:
भारत में कहीं कोई सबक लेता है क्या?
वाह
यह सही है कि इतर प्रदेशों में छत्तीसगढ़ की यह छवि बनाई गई थी कि यहाँ जादू टोना बहुत होता है । मैं जब नौकरी करने के लिये घर से निकला और छत्तीसगढ़ आया तो मुझे किसीने यह चेतावनी दी थी कि बचकर रहना वहाँ की औरतें जादू टोना करती हैं । मै इस बात पर हँसा था और कहा था ..निश्चिंत रहिये ऐसा नहीं होगा । बस्तर के बारे में भी घोटुल को लेकर यही भ्रांतियाँ व्याप्त हैं । इसके पीछे क्या राजनीति रही यह अब सब जानने लगे हैं । लेकिन अब छत्तीसगढ़ उस छवि से मुक्त हो रहा है । हमारे आपके जैसे कई लोग यहाँ की सही तस्वीर प्रस्तुत करने के लिये लगातार प्रयास रत हैं और मेरा यह दावा है हम रहे न रहे एक दिन छत्तीसगढ़ इस सदी का सर्वश्रेष्ठ प्रदेश घोषित किया जायेगा ।
शर्मा जी, आप ने बहुत सुंदर बात कही, लोग सिर्फ़ बुराई देखते है अच्छाई नही
बहुत सही और सटीक बात कही . भाई कोकास जी की टिप्पणी से बात का और एक पाह्लू समझ आया.
रामराम.
भ्रामक प्रचार ही भावनाओं पर तुषारापात करता है!
सटीक बात कही.
सुन्दर पोस्ट! शानदार पहल!
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