पहली बार बचपन में सर के ऊपर से गुजर गयी "उसने कहा था" को पढा और देखा था तो ना कुछ महसूस हुआ था नाहीं होना था। फिर बहुत बार इसे पढने का मौका मिला तब जाकर समझ में आया कि कैसे और क्यूं इस एक कहानी से ही गुलेरीजी अमर हो गये। लगता नहीं कि आज के अधिकांश युवा इससे परीचित होंगे। पहले तो कोर्स वगैरह में भी यह होती थी। पर धीरे-धीरे सब कुछ बदल ही तो रहा है। इस अमर कहानी का सार देने की कोशिश करता हूं।
अमृतसर में अपने मामा के घर आए दस-ग्यारह साल के लहनासिंह का बाज़ार में अक्सर एक सात-आठ साल की लडकी से सामना हो जाता है। ऐसे ही बाल-सुलभ छेड़-छाड़ के चलते लहना उससे पूछता रहता है "तेरी कुड़माई (सगाई)हो गयी" और लड़की "धत्" कह कर भाग जाती है। पर एक दिन वह बालसुलभ खुशी से जवाब देती है "हां, हो गयी। देखता नहीं मेरा यह रेशमी सालू"।
वह तो चली जाती है, पर लहना पर निराशा छा जाती है। दुख और क्रोध एक साथ हावी हो बहुतों से लड़वा, भिड़वा, गाली खिलवा कर घर पहुंचवाते हैं।
पच्चीस साल बीत जाते हैं। फौज में लहना सिंह जमादार हो जाता है। अपनी बटालियन के सूबेदार हज़ारा सिंह के साथ अच्छा दोस्ताना है। एक ही तरफ के रहनेवाले हैं। हज़ारा सिंह का बेटा बोधा सिंह भी इनके साथ उसी मोर्चे पर तैनात है। कुछ दिनों पहले छुट्टियों में ये घर गये थे। तभी पहला विश्वयुद्ध शुरु हो जाता है। सबकी छुट्टियां रद्द हो जाती हैं। हज़ारा सिंह खबर भेजता है, लहना सिंह को कि मेरे घर आ जाना, साथ ही चलेंगे। लहना वहां पहुंचता है तो सूबेदार कहता है कि सूबेदारनी से मिल ले, वह तुझे जानती है। लहना पहले कभी यहां आया नहीं था, चकित रह जाता है कि वह मुझे कैसे जानती होगी। दरवाजे पर जा मत्था टेकता है। आशीष मिलती है। फिर सूबेदारनी पूछती है "पहचाना नहीं? मैं तो देखते ही पहचान गयी थी। ...तेरी कुड़माई हो गयी....धत्....अमृतसर....."
सब याद आ जाता है लहना को। सूबेदारनी रोने लगती है। बताती है कि चार बच्चों में अकेला बोधा बचा है। अब दोनों लाम पर जा रहे हैं। जैसे तुमने एक बार मुझे तांगे के नीचे आने सा बचाया था, वैसे ही इन दोनों की रक्षा करना। तुमसे विनती है।
मोर्चे पर बर्फबारी के बीच बोधा सिंह बिमार पड़ जाता है। खंदक में भी पानी भरने लगता है। लहना किसी तरह बोधे को सूखे में सुलाने की कोशिश करता रहता है। अपने गर्म कपड़े भी बहाने से उसे पहना खुद किसी तरह गुजारा करता है। इसी बीच जर्मन धोखे से हज़ारा सिंह को दूसरी जगह भेज खंदक पर कब्जा करने की कोशिश करते हैं पर लहना सिंह की चतुराई से हज़ारा सिंह की जान और खंदक दोनों बच जाते हैं। पर खुद बुरी तरह घायल होने पर भी चिकित्सा के लिये बाप-बेटे को पहले भेज देता है, हज़ारा सिंह से यह कहते हुए कि घर चिठ्ठी लिखो तो सूबेदारनी से कह देना उसने जो कहा था मैने पूरा कर दिया है।
उनके जाने के बाद अपने प्राण त्याग देता है।
यह तो कहानी का सार है। पर बिना पढे इसकी मार्मिकता नहीं समझी जा सकती। गुलेरीजी के शब्दों मे ही, अमृतसर के तांगेवालों की चाकू से भी तेज धार की जबान, दोनों बच्चों की चुहल, खंदक की असलियत, लड़ाई की विभीषिका, सूबेदारनी की याचिका, लहना की तुरंत-बुद्धि और फिर धीरे-धीरे करीब आती मौत के साये में स्मृति के उभरते चित्र, वह सब बिना पढे महसूस करना मुश्किल है।
यदि कभी मौका मिले तो इसी नाम पर बनी पूरानी फिल्म देखने का मौका चूकें नहीं। जिसमें स्व. सुनील दत्त और नंदा ने काम किया था।
अमृतसर में अपने मामा के घर आए दस-ग्यारह साल के लहनासिंह का बाज़ार में अक्सर एक सात-आठ साल की लडकी से सामना हो जाता है। ऐसे ही बाल-सुलभ छेड़-छाड़ के चलते लहना उससे पूछता रहता है "तेरी कुड़माई (सगाई)हो गयी" और लड़की "धत्" कह कर भाग जाती है। पर एक दिन वह बालसुलभ खुशी से जवाब देती है "हां, हो गयी। देखता नहीं मेरा यह रेशमी सालू"।
वह तो चली जाती है, पर लहना पर निराशा छा जाती है। दुख और क्रोध एक साथ हावी हो बहुतों से लड़वा, भिड़वा, गाली खिलवा कर घर पहुंचवाते हैं।
पच्चीस साल बीत जाते हैं। फौज में लहना सिंह जमादार हो जाता है। अपनी बटालियन के सूबेदार हज़ारा सिंह के साथ अच्छा दोस्ताना है। एक ही तरफ के रहनेवाले हैं। हज़ारा सिंह का बेटा बोधा सिंह भी इनके साथ उसी मोर्चे पर तैनात है। कुछ दिनों पहले छुट्टियों में ये घर गये थे। तभी पहला विश्वयुद्ध शुरु हो जाता है। सबकी छुट्टियां रद्द हो जाती हैं। हज़ारा सिंह खबर भेजता है, लहना सिंह को कि मेरे घर आ जाना, साथ ही चलेंगे। लहना वहां पहुंचता है तो सूबेदार कहता है कि सूबेदारनी से मिल ले, वह तुझे जानती है। लहना पहले कभी यहां आया नहीं था, चकित रह जाता है कि वह मुझे कैसे जानती होगी। दरवाजे पर जा मत्था टेकता है। आशीष मिलती है। फिर सूबेदारनी पूछती है "पहचाना नहीं? मैं तो देखते ही पहचान गयी थी। ...तेरी कुड़माई हो गयी....धत्....अमृतसर....."
सब याद आ जाता है लहना को। सूबेदारनी रोने लगती है। बताती है कि चार बच्चों में अकेला बोधा बचा है। अब दोनों लाम पर जा रहे हैं। जैसे तुमने एक बार मुझे तांगे के नीचे आने सा बचाया था, वैसे ही इन दोनों की रक्षा करना। तुमसे विनती है।
मोर्चे पर बर्फबारी के बीच बोधा सिंह बिमार पड़ जाता है। खंदक में भी पानी भरने लगता है। लहना किसी तरह बोधे को सूखे में सुलाने की कोशिश करता रहता है। अपने गर्म कपड़े भी बहाने से उसे पहना खुद किसी तरह गुजारा करता है। इसी बीच जर्मन धोखे से हज़ारा सिंह को दूसरी जगह भेज खंदक पर कब्जा करने की कोशिश करते हैं पर लहना सिंह की चतुराई से हज़ारा सिंह की जान और खंदक दोनों बच जाते हैं। पर खुद बुरी तरह घायल होने पर भी चिकित्सा के लिये बाप-बेटे को पहले भेज देता है, हज़ारा सिंह से यह कहते हुए कि घर चिठ्ठी लिखो तो सूबेदारनी से कह देना उसने जो कहा था मैने पूरा कर दिया है।
उनके जाने के बाद अपने प्राण त्याग देता है।
यह तो कहानी का सार है। पर बिना पढे इसकी मार्मिकता नहीं समझी जा सकती। गुलेरीजी के शब्दों मे ही, अमृतसर के तांगेवालों की चाकू से भी तेज धार की जबान, दोनों बच्चों की चुहल, खंदक की असलियत, लड़ाई की विभीषिका, सूबेदारनी की याचिका, लहना की तुरंत-बुद्धि और फिर धीरे-धीरे करीब आती मौत के साये में स्मृति के उभरते चित्र, वह सब बिना पढे महसूस करना मुश्किल है।
यदि कभी मौका मिले तो इसी नाम पर बनी पूरानी फिल्म देखने का मौका चूकें नहीं। जिसमें स्व. सुनील दत्त और नंदा ने काम किया था।
7 टिप्पणियां:
शर्मा जी यही है सच्चा प्यार, जो देना ओर कुरबान होना जानता है, लेकिन आज की यह पीढी प्यार को सिर्फ़ वासना के रुप मे देखती है, ओर पाना ही चाहती है, मां बाप की लाश पर ही चाहे खूशियां मनानी पडे, बहुत सुंदर लिखा आप ने धन्यवाद
कहानी पढी है पर फ़िल्म नही देखी,मौका मिला तो ज़रूर देखेंगे।
बहुत ही मार्मिक कहानी है. फिल्म देखने का मौका कभी नहीं मिला.
सादगी के साथ हम, शृंगार की बातें करें।
प्यार का दिन है सुहाना, प्यार की बातें करें।।
सोचने को उम्र सारी ही पड़ी है सामने,
जीत के माहौल में, क्यों हार की बातें करें।
प्यार का दिन है सुहाना, प्यार की बातें करें।।
film to apan ne bhi nai dekhi lekin kahani to ek bar fir se aha! zindagi ke latest issue me fir se padhi aur utne hi bhaavuk ho gaye jitna har baar is kahani kopadh kar hote rahe hain...
फिल्म तो हमने भी नहीं देखी, पर इस कालजयी कहानी का न जाने कितनी बार पारायण किया है, खुद को टीस देने और खुद की टीस मिटाने के लिये ।
आभार ।
मैंने ये कहानी हाल ही में पढ़ी है। ये "अहा !ज़िन्दगी " नामक पत्रिका के फरवरी के अंक में प्रकाशित हुई है। इस सुन्दर कहानी के साथ और भी कुछ मर्मस्पर्शी प्रेम कथाएँ छपी है। यदि आपने ये कहानी ना पढी हो तो इस अवसर कों हाथ से ना जाने दे।
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